मनोनिग्रह और दिव्य शक्तियों का विकास

June 1986

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मन का संयम करने की आवश्यकता इसलिए समझी गई है कि उसकी चंचल वृत्ति के- भाग दौड़ के कारण किसी महत्वपूर्ण कार्य में तन्मय होने की आवश्यकता में विघ्न न पड़े।

यह स्पष्ट है कि कोई शारीरिक या मानसिक कार्य बिना तत्परता और तन्मयता के सम्पन्न नहीं होते। जिस प्रकार पनडुब्बे समुद्र में गहरा गोता लगाते हैं और जिस क्षेत्र में मोतियों वाली सीपें होती हैं उसी में सीधे उतर जाते हैं। तभी उन्हें अभीष्ट लाभ मिलता है। यदि वे जिधर-तिधर छितराते रहें और अभीष्ट लक्ष्य केन्द्र से अपरिचित रहें तो उनका श्रम निरर्थक ही चला जायगा और उनके हाथ खीज थकान के अतिरिक्त और कुछ न पड़ेगा। धनुष बाण कितने दाम का है। महत्व इस बात का नहीं वरन् इस बात का है कि चलाने वाले को निशाना साधना आता है कि नहीं। यह साधना एकाग्रता के बलबूते ही बन पड़ती है। यह बात किसी आध्यात्मिक भौतिक कोई भी कार्य क्यों न हो उसका सही रीति से सम्पन्न होते हैं यदि उसमें हवाई उड़ाने उड़ने वाला मन विघ्न उत्पन्न करे, तो उसी भी ठीक तरह सम्पन्न कर सकना सम्भव न हो सकेगा। अस्तु वैज्ञानिक, कलाकार, योगाभ्यास स्तर के कार्यों के लिए मन को निर्धारित प्रयोजन में एकाग्र रखना नितान्त आवश्यक है। यदि इतना भी न सध सकेगा तो लुहार-सुनार आदि मिस्त्री कारीगर तक अपना काम ठीक तरह न कर सकेगा। चोट यथास्थान मारने की अपेक्षा अपने हाथ में मार लेगा और घायल हो जायगा। बौद्धिक प्रयोजनों में तो यह और भी आधिक आवश्यक है। क्योंकि उनमें अधिकाँश काम मन को ही करना पड़ता है।

यह नितान्त आवश्यक है कि मन को कोई काम दिया जाय। यदि उसे छुट्टल रखा जाय तो वह घुड़दौड़ लगाये बिना न रहेगा और हिरन की सी चौकड़ी भरेगा। उसका कोई प्रयोजन पूरा न हो सकेगा चिड़ियों की तरह उछलता फुदकता फिरेगा। ऐसी दशा में उससे कोई काम ले सकना किसी भी प्रकार सम्भव न हो सकेगा।

मन की एकाग्रता के लिए ध्यान की अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है। जो लोग मन को स्थिर करने की बात सोचते हैं, और कल्पना करते हैं कि इच्छा करने भर से मन सध जायगा। ऐसा कभी नहीं हो सकता। इन प्रयत्नों में सफलता कहीं नहीं मिलती। कितने ही व्यक्ति मन को पकड़ने रोकने का प्रयत्न करते रहते हैं। यह हवा को रोकने के समान है।

जप भी इस सम्बन्ध में कारगर सिद्ध नहीं होगा। शब्दों और अक्षरों को दुहराते रहने का काम ऐसा है जो जिह्वा के सहारे होता रहता है। मन पर उससे कोई बन्धन नहीं बँधता। इसलिए शास्त्रकारों का कथन है कि जप के साथ इष्टदेव की प्रतिमा का प्रकाश केन्द्र सविता देवता का ध्यान उस समय करते रहना चाहिए।

ध्यान की कितनी ही शाखा प्रशाखाएँ हैं। इनमें श्वास-प्रश्वास पर ध्यान एकाग्र करना और उनके आवागमन के साथ ही सोऽहम् के गुंजन की आवाज सुनना यह मन को एकाग्र करने का एक अच्छा तरीका है। इसे अपनाने से ध्यान की एकाग्रता का उद्देश्य बहुत हद तक पूरा हो जाता है। यह सरल भी है। इसके उपरान्त नादयोग के अभ्यास की बात आती है। कानों के छेदों को शीशी के कार्मों से कड़ा बन्द करके बैठना चाहिए और समूचा ध्यान इस बात पर एकाग्र करना चाहिए कि उसमें से कहीं से कोई ध्वनि सुनाई पड़ती है क्या? यह ध्वनियाँ कई प्रकार की होती हैं। एक शरीर की धड़कनों से काया के भीतरी अवयव सभी क्रियाशील रहते हैं। उनमें से ध्वनियाँ होती हैं। कानों पर यदि ध्यान एकाग्र किया जाय। बाहर के शब्दों को भीतर प्रवेश न करने दिया जाय तो आन्तरिक ध्वनियां रेलगाड़ी चलने जैसी आवाजें आने लगती हैं। इसके पश्चात अन्तरिक्षव्यापी ब्रह्म चेतना के क्षेत्र में जो हलचलें हो रही हैं उनका आभास मिलना आरम्भ हो जाता है। इसका अनुभव समय साध्य है कि किस ध्वनि में क्या संकेत उठता है और उसका दृश्य जगत के साथ क्या सम्बन्ध रहता है। नादयोग के आधार पर भी अविज्ञात को विज्ञात स्वरूप में देख सकना सम्भव होता है। अतींद्रिय क्षमताओं को जागृत करना भी इस प्रकार के आधार पर सम्भव होता है। मस्तिष्क के विभिन्न कक्षों में विभिन्न शक्तियों का निवास है। उनमें से कौन कितनी मन्द और कौन कितनी तीव्र है इसका अनुमान भी उन क्षेत्रों से उठने वाली तरंगों को कान द्वारा समझा जा सकता है।

सूक्ष्म शरीर में षट्चक्र और 54 उपत्यिकाएं हैं। यह सभी शक्ति केन्द्र हैं। इन्हें अलंकारिक रूप से आध्यात्मिक विभूतियों का दिव्य मणियों का भण्डार कहा जा सकता है। इन्हें समर्थ रक्षण करने का अभ्यास भी यह है कि नासिका द्वारा खींची हुई वायु के साथ घुले हुए प्राण तत्व का मन की कल्पना और भावना शक्ति द्वारा वहाँ थपकी लगाई जाती है। यह थपकी मालिश करने या गुदगुदाने जैसी होती है। इन उपचारों का प्रभाव उन शक्ति केन्द्रों पर पड़ता है और क्रमशः उनमें समर्थता और प्रफुल्लता आती जाती है। इन्हीं उत्पादित क्षमताओं को ऋद्धि-सिद्धि आदि के नाम से जाना जाता है।

शरीर को उत्पीड़न करने और तपश्चर्या द्वारा उसे शीत ग्रष्मा, उपवास आदि करने के भी प्रयोग हैं, पर उन सबका प्रभाव शरीर के उथले क्षेत्र तक ही सीमित होकर रह जाता है। गहराई में प्रवेश करना उस मन का ही काम है जिन्हें एकाग्रता की साधनाओं से नुकीला सुई जैसा पतला बना लिया गया है। इसे इन्जेक्शन की तरह किसी ग्रन्थि में प्रवेश कराया जा सकता है और उसकी विकृतियों को खींचने और दिव्यताओं को बढ़ाने का काम लिया जा सकता है।

मन को साँसारिक प्रयोजनों से खींचकर आध्यात्मिक कार्यों में लगाने का यही तरीका है कि मन को उच्छृंखल उछल-कूद से रोककर अभीष्ट प्रयोजनों में लगाया जाय और उसका प्रयोग ऐसे कार्यों के निमित्त किया जाय जिससे सदाशयता का वातावरण बनता हो और साथ ही अपने और दूसरों के संकटों के निवारण की प्रक्रिया को भी पूरा किया जा सकता है।

मनोनिग्रह ही आत्म विजय हैं। आत्मिक क्षेत्र का कोई कल पुर्जा ऐसा नहीं है। जिनके सम्बन्ध में यह कहा जा सके कि उसका मन से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। या मन का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसी दशा में यही उचित है कि अपने मन पर शरीर से भी अधिक ध्यान दिया जाय। उसे एकाग्र ही नहीं , पवित्र, परिष्कृत और समर्थ बनाने में भी किसी प्रकार की कमी न रहने दी जाय?


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