कुरुक्षेत्र के सुविस्तृत मैदान में दूर-दूर तक महाभारत युद्ध में मरे योद्धाओं की लाशें बिछी पड़ी थीं। गिद्ध और कौए उन्हें नोंच-नोंच कर खा रहे थे। उसे घमासान के कारण सब कुछ कुचला ही कुचला पड़ा था।
शिष्यों समेत शमीक ऋषि उधर से निकले तो इस महानाश के बीच दो पक्षि-शावकों को एक गज घंटा के पास चहचहाते देखा गया। शिष्यों को आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्होंने महर्षि से पूछा- “भला, यह सब कुछ कुचल डालने वाले घमासान में ये बच्चे कैसे बच गये?”
शमीक ने कहा- शिष्यों! युद्ध के समय आकाश में उड़ती हुई चिड़िया को तीर लगने से वह भूमि पर गिर पड़ी और उसने दो अण्डे प्रसव किये। संयोगवश एक हाथी के गले का घण्टा टूटकर अण्डों पर गिरा जिससे उनकी रक्षा हो गई। अब परिपक्व होकर वे बच्चे के रूप में घण्टे के नीचे की मिट्टी हटाकर बाहर निकले हैं, सो तुम इन्हें उठालो और आश्रम में ले जाकर इनका पालन-पोषण करो।
एक शिष्य ने पूछा- “जिस दैव ने इन बच्चों की, ऐसे महासमर में रक्षा की क्या वह इनका पोषण न करेगा? महर्षि ने कहा- प्रिय, जहाँ दैव का काम समाप्त हो जाता है वहाँ से मनुष्य का कार्य आरम्भ होता है। दैव ने मनुष्य को दया और सामर्थ्य का वरदान इसलिए दिया है कि उनके द्वारा दैव के छोड़े हुये शेष कार्य को पूरा किया जाय।”