सूक्ष्म शरीर का दिव्यीकरण

June 1986

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पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पदार्थों को ऊपर से नीचे की ओर खींचती है। पर साथ ही प्रकृति का दूसरा नियम भी काम करता है। ऊर्जा द्वारा पदार्थ से हलकापन उत्पन्न करके उसे नीचे से ऊपर को उड़ाना। वर्षा की बूँदें बादलों से जमीन पर गिरती है। वृक्षों की टहनियाँ भी टूटकर नीचे गिरती हैं। किन्तु साथ ही यह भी देखा जाता है कि उबलता हुआ पानी भाप बनकर ऊपर उड़ता है। ग्रीष्म ऋतु में हवा नीचे से ऊपर उठती है और आँधी चक्रवात के रूप में धूलिकणों को ऊपर की ओर उड़ा ले जाती है। मनुष्य के उत्थान-पतन का भी यही क्रम है। लोक प्रचलन में सम्मिलित पतन पराभव का साथी बनकर मनुष्य अपने अस्तित्व को भी निकृष्ट बनाता है। दुर्जन के कुसंग में दुर्गुण सीखता है। कुबुद्धि अपनाता और कुकर्म करता है। किन्तु सदा ऐसा ही नहीं होता। सज्जनों की प्राण ऊर्जा के सान्निध्य में आकर मनुष्य ऊँचा भी उठता है। उत्कृष्टता अपनाता और समुन्नत स्तर पर विकसित होता है। मनुष्य पशुता की ओर भी चल सकता है और देवत्व की दिशा में भी अग्रसर हो सकता है।

सूक्ष्म शरीर मनुष्य का मध्यवर्ती संस्थान है। उसके लिए भौतिक क्षेत्र में उलझे रहने की भी सम्भावना है और ऊँचे उठकर देव समाज में सम्मिलित होने की भी।

शरीर जड़ है। उसके संचालन में मस्तिष्कीय क्षमता ही कार्य करती है। चेतना को भौतिक जगत की आकर्षण शक्ति भी अधोगामी बना सकती है और ऊर्जा के साथ लिपटकर उसकी लपटें गगनचुम्बी भी हो सकती हैं।

वासना, तृष्णा और अहन्ता का गुरुत्वाकर्षण इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध होकर ऐसी गतिविधियां भी अपना सकता है जो अपने बहिरंग और अंतरंग जीवन में निकृष्टता की भरमार कर दे और ऐसा भी सम्भव है कि संयम, आदर्श, एवं उदार साहस अपना कर ऊँचा उठे। सज्जनतायुक्त महामानवों के साथ घनिष्ठता स्थापित करके ऊंचा उठे। साथ ही यह भी सम्भव है कि पिछड़ों को बढ़ाने, पतितों को उठाने एवं असमर्थों को सहारा देकर अपनी गरिमा को सार्थक समुन्नत करे। श्रेष्ठता का मार्ग ऐसा है जिसे अपनाकर व्यक्ति स्वयं भी ऊँचा उठता और दूसरों को भी उत्कर्ष की दिशा में अग्रसर करता है। नीचे गिरना या ऊपर उठना, यह मनुष्य के अपने चयन एवं विवेक पर निर्भर है।

सूक्ष्म शरीर मेरुदण्ड के समान है। उसे मध्यवर्ती भी कह सकते हैं। उसका उपयोग दुर्बल व्यक्ति समर्थों का सहारा लेकर ऊपर उठाने के लिए भी कर सकते हैं जबकि समर्थ व्यक्ति हेय वातावरण में रहकर अपनी गरिमा भी गँवा सकते हैं। शबरी जगद्वंद्य बनी और मेनका विश्वामित्र के अधःपतन का कारण बनी। दिशा अपनाने में मनुष्य का स्वेच्छा चयन ही प्रधान है।

शक्तिवान उदार दानवीरों की तरह अपनी संचित तप साधना को अल्प प्राण वाले किन्तु व्रतशील लोगों को प्रदान करते और उनके माध्यम से संसार का हित साधन करते हैं। सद्भावनाओं और सत् प्रवृत्तियों को उकसाते हैं। यह सदुपयोग है। समर्थता का दुरुपयोग भी होता है। रावण और दुर्योधन का समूचा परिकर कुमार्गगामी हो गया था। उनकी निजी अशक्तता के दबाव में विरोध तक की गुंजाइश उनमें नहीं रही थी। उसे सज्जनता या उदारता का मार्ग कहा जा सकता है कि व्यक्ति अपनी वरिष्ठता की लगाम सम्भाले रहे और उसे केवल उत्कर्ष के निमित्त प्रयुक्त करे। यों कोई चाहे तो पतन और पराभव का मार्ग भी खुला हुआ है। यह व्यावहारिक कार्यक्षेत्र की चर्चा है।

उच्चस्तरीय प्रयोगों में सूक्ष्म शरीर की गतिविधियाँ संचय करने के लिए वरिष्ठता की दिशा में प्रयुक्त करने के लिए होती हैं। चमत्कार दिखाने और सिद्धियों की खिलवाड़ करने सूक्ष्म शरीर मदारी बाजीगर स्तर की भूमिका निभाता है। उस खिलवाड़ में अपने पूर्व उपार्जन को भी गँवा बैठता है। चापलूसों और जेबकटों से घिर जाता है और उनको अनुचित लाभ पहुँचाने का चस्का लगाकर अपनी वरिष्ठता को गँवाता चला जाता है।

सूक्ष्म शरीर को अधिक बलिष्ठ बनाना चाहिए ताकि उससे अधिक महत्वपूर्ण कार्य सध सकें। गधा कम और हाथी अधिक बोझ उठाता है। सामान्य मध्यवर्ती स्थिति में व्यक्ति विशेष की सामान्य सहायताएँ ही बन पड़ती हैं पर यदि शारीरिक तपश्चर्या और मानसिक योग साधना द्वारा सूक्ष्म शरीर को अधिक समुन्नत बनाया जा सके तो अपने को देवोपम बनते हुए ईश्वर का अनुग्रह पात्र बना जा सकता है और उसके निकटतम स्तर तक पहुँच सकता है।

ऐसी स्थिति तक पहुँचा हुआ साधन व्यक्ति विशेष की सामान्य लौकिक सहायताएँ ही करने में समर्थ नहीं होता वरन् व्यापक प्रवाह और वातावरण को भी बदलने, एवं सुधारने में समर्थ हो सकता है। उसकी परिधि बड़ी होती है इसलिए अपने क्रिया-कलापों को सीमित न रखकर व्यापक भी बना सकता है।

आवरण आवश्यकतानुसार सभी को धारण करना पड़ता है ईश्वर की मूलभूत सत्ता विश्व व्यवस्था में लगी रहती है। ब्रह्मांड का जड़ कलेवर कल्पनातीत विस्तार का है। फिर प्राणी परिकर का भी स्वरूप बुद्धि के लिए अगम्य है। पृथ्वी पर दृश्य और अदृश्य अगणित प्राणि प्रजातियाँ हैं। फिर पृथ्वी जैसे जीवनधारी पिण्ड इस ब्रह्मांड में अनेकों हैं। उन सब प्राणियों के कर्म विधान की साज सम्भाल भी ईश्वर के हाथ में है। इतना विस्तार सम्भालने में ही ईश्वर की मूल सत्ता संलग्न रहती है। उसके लिए यह सम्भव नहीं कि मनःस्थितियों एवं परिस्थितियों का सन्तुलन बिठाने में भी लगा रहे। यह कार्य उन देवमानवों का है जो ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करके उसी की क्षमताओं को उपार्जित कर सके हैं। लौक-लोकाचार को गड़बड़ाती हुई परिस्थितियों को यह देव मानव ही सम्भालते हैं। उनकी शक्ति एवं नियुक्ति का यही उपयोग होता है।

मलीनता उत्पन्न होते रहना स्वाभाविक है। मनुष्य शरीर के हर भाग से विकृतियाँ निकलती हैं। वायु मंडल भी कूड़ा-करकट बिखेरता रहता है। इसे स्वच्छ करने में समय भी लगता है और सामर्थ्य भी। देव मानव इसी दायित्व को समझते हैं। जहाँ कहीं टूट-फूट होती है उसे सम्भालने के लिए वे यथा समय यथा स्थान जा पहुंचते हैं और अव्यवस्था को व्यवस्था में बदलते हैं।

कहने को हर श्रेष्ठ काम ईश्वर करता है। उसी की इच्छा से सब कुछ होता रहता है। पर यह कथन आँशिक सत्य है। यह कार्य देवमानवों का है। अपना अपना कार्य क्षेत्र उन्हें ही सम्भालना पड़ता है। किसी शासन की व्यवस्था उसके अफसर ही संभालते हैं। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर को ईश्वरीय चेतना के साथ लपेटकर उच्च स्तरीय देवमानव वही करते रहते हैं जिसे ईश्वर की इच्छा या कृपा कहा जाता है। कार्य कोई भी अफसर करे, उसे शासन का निर्देश समझा जाता है। इसी प्रकाश देव मानवों की सुधार एवं सन्तुलन प्रक्रिया ईश्वर की इच्छा या आज्ञा मानी जाती है।

बिगाड़ना शैतान का काम है। प्राणि की जन्मजात निकृष्टता एवं हेय वातावरण को सम्भालना ईश्वर का काम है। देव मानवों का जो अग्नि में ईंधन की तरह आत्म समर्पण करते हुए तद्रूप हो चुके हैं, सालोक्य, सामीप्य, सान्निध्य एवं सारूप्य की मोक्ष स्थिति के अधिकारी बन चुके हैं, इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए ही सूक्ष्म शरीर को दिव्य स्वरूप में परिवर्तित कर लेना माना जाता है।


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