जीता कौन?

June 1986

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एक प्रकार का संघर्ष चल रहा था- दार्शनिक सन्त सुकरात और सत्ता सम्पन्नों के बीच। दोनों का कहना था कि सामने वाला उचित बात स्वीकार नहीं कर रहा है।

सुकरात सन्त थे, दार्शनिक थे। वे लोगों को आध्यात्मिक जीवन का उपदेश देते, नैतिक दर्शन समझाते वहाँ तक किसी को कोई विरोध नहीं था। परन्तु वे अपने क्षेत्र से बाहर की बात करने लगे। कहने लगे “सूर्य नहीं घूमता, पृथ्वी घूमती है। यह अनर्गल बात सत्ता सम्पन्नों को अखरी। उन्होंने सुकरात को सूचित किया कि ऐसे भ्रम न फैलायें, लोगों को नेक जीवन जीने का उपदेश भी दिया करें। सुकरात को यह सूचना मिली तो उन्होंने कहा “मैं कोई भ्रम नहीं फैला रहा हूँ, भ्रम दूर कर रहा हूँ। जिनकी समझ में बात नहीं आ रही है, उनकी बुद्धि विकसित होने पर वे भी समझने लगेंगे।

सत्तावानों को यह बात और भी बुरी लगी। उन्हें अविकसित बुद्धि का ठहराया जाय, यह तो सीधे शालीनता की मर्यादा भंग करना माना जायगा, उन्होंने मान लिया कि सन्त का अहंकार बढ़ गया है, उन्हें अनर्गल प्रचार से बलपूर्वक रोकना होगा।

दोनों पक्षों के अपनी बात मनवाने के लिए चले पड़े। “सन्त स्वभावतः सामने वाले की समझ बढ़ने का अवसर और समय देते हैं। उन्होंने सोचा तमाम लोग समझने लगेंगे तो इनकी भी समझ में आ जायेगा कि कुछ सत्य है तभी तो सब मान रहे हैं।”

सुकरात न माने तो सत्ताधीशों ने घोषणा करवा दी “सन्त अपने स्तर से गिर गये हैं, भ्रम फैलाने लगे हैं, उनकी बात कोई न माने। पर वह क्रम रुका नहीं। जनता और सन्त का संपर्क तोड़ना आवश्यक समझकर उन्होंने सुकरात को जेल में डाल दिया।

पर फिर भी बात बनी नहीं। “सुकरात का कथन है” इसी आधार पर बात फैलती रही। भ्रम फैलने से रोकना जरूरी था। सुकरात से कहा गया अपनी बात वापस लो। पर वे न माने। अन्तिम अस्त्र के रूप में कहा गया “लिखकर दो कि पृथ्वी नहीं घूमती, अन्यथा भ्रम फैलाने के अपराध में मृत्युदंड भोगना होगा।

सुकरात के समर्थकों , विचारकों में खलबली मच गयी। विचार विमर्श हुआ। सोचा गया कि नासमझ तो समझेंगे नहीं, समझदार को ही समझाने का प्रयास किया जाय। सब सुकरात से मिले, कहा “आप समाज की मूल्यवान संपत्ति हैं। समाज को हानि से बचाने के लिए आप लिख दीजिए कि पृथ्वी नहीं घूमती।

सुकरात बोले “आपके कहने से लिख तो दूँ, पर मेरे लिखने के बावजूद भी वह घूमती ही है मेरे लिखने से वह रुकेगी थोड़े ही? विचारकों, शिष्यों ने कहा “पृथ्वी घूमती है, घूमती रहेगी। जिनकी समझ में बात आज नहीं आ रही है- वह कल आ जायेगी। परन्तु यदि आप हमारे हाथों से चले गये तो फिर कहां मिलेंगे? इसलिए बात मान लीजिए न!” सुकरात एक क्षण मौन रहे फिर बोले “मैंने रात एक स्वप्न देखा। एक व्यक्ति रेगिस्तान में प्यास से मरने की स्थिति में पहुँच गया। उसे एक घेरे में जल दीखा, वहाँ एक राक्षस भी था मनुष्य ने पानी पीना चाहा। राक्षस बोला “मैं घेरे से बाहर नहीं आ सकता, अन्दर आने वालों को खाकर भूख मिटाता हूँ। तुम पानी तो पी सकते हो, पर मैं तुम्हें खा जाऊँगा। वह व्यक्ति अन्दर घुसने लगा, किसी ने रोका कि “क्यों मौत के मुँह में जाता है। वह बोला यहाँ से आगे बढूँगा तो प्यास से छटपटा कर मर जाऊँगा। क्यों न तृप्त होकर मरूँ?”

इतना सुनाकर सन्त ने पूछा “तुम सब क्या सोचते हो, उस व्यक्ति ने ठीक किया या गलत? सभी ने कहा “उस व्यक्ति का निर्णय ठीक ही था।”

सुकरात मुस्कराये, बोले “उस व्यक्ति की जगह मुझे देखो। मैंने हमेशा सत्य का पान किया है, मुझे उसी से तुष्टि मिलती है। सत्य सुधा का पान करने से मेरा शरीर नष्ट कर दिया जायगा, पर उसका पान न करने से अन्दर वाला सन्त मर जायगा। बोलो तृप्त होकर मरूँ या तड़प-तड़पकर? सन्त मौन रह गये। गले रुंध गये, नेत्र बह उठे......। सुकरात ने जहर का प्याला पिया, झगड़ा शान्त हो गया। पर जीता कौन?

उत्तर आसान नहीं। ईश्वर बड़ा कौतुकी है। तत्काल को महत्व देने वाले को तत्काल जिता दिया, स्थायित्व को महत्व देने वाले को स्थाई जीत दे दी.......।


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