जीवन की उत्पत्ति धरती पर पाये जाने वाले रसायनों से हुई, इस मान्यता पर जोर भले ही दिया जाता हो पर बात वस्तुतः ऐसी है नहीं। एक कोशी द्विकोशी जीव वनस्पति वर्ग के घटक इस प्रकार उत्पन्न होने की बात एक सीमा तक समझ में आती है। पर मनुष्य जैसे सुविकसित संरचना वाले प्राणी में इसी प्रकार सड़ी घास या पानी के संयोग से उत्पन्न हो सकते हैं यह कथन सहज ही गले नहीं उतरता। फिर एक जाति के जीव दूसरी जाति में बदल जाते हैं यह कथन सब प्राणियों के सम्बन्ध में लागू नहीं होता।
सड़न से उत्पन्न कृमि कीटकों की भी अपनी-अपनी प्रजातियाँ भी अपना वंशानुक्रम बनाये रहते हैं। तितलियां और मछलियां भी अपनी पूर्वज परम्परा को धारण किये रहती हैं। वे विशेष परिस्थितियों में ही अपने काय कलेवर में थोड़ा बहुत अन्तर करती हैं और फिर उसे दृढ़तापूर्वक बनाये रहती हैं। आये दिन बदलाव नहीं लातीं। पीढ़ियों तक अभ्यस्त वातावरण को निर्वाह करने का अपना ढाँचा एवं स्वभाव अपनाये रहती हैं।
यह कथन भी सही नहीं है कि एक प्राणी विकास क्रम के अनुसार अधिक बुद्धिमान और कार्य कलेवर विकसित करता रहता है यदि ऐसा होता तो सृष्टि के आदि से ही प्राणी जिस रूप में चले आ रहे हैं वे वैसे न बने रहते। देखा जाता है कि हाथी, घोड़े, ऊँट, बैल आदि आरम्भ में जैसे थे वैसे ही अब भी बने हुए हैं। क्षेत्रीय जलवायु के कारण ही उनके स्वभाव और आकृति में यत्किंचित् अन्तर आता है। पर वह भी अपने क्षेत्र में निपुण हो जाते हैं। फिर उनकी प्रजातियाँ भी निश्चित हो जाती हैं।
पदार्थों में से कोई ऐसा नहीं है जो सड़न द्वारा उत्पन्न होने वाले कृमि कीटकों के अतिरिक्त किसी बुद्धिमान प्राणी को जन्म दे सके। प्रकृति की विलक्षणता तो बहुत है पर वह ऐसी नहीं कि विकसित चेतना का सृजन कर सके। यदि ऐसा होता तो उन सभी ग्रह पिण्डों में जीवधारी पाये जाते जिनमें तापमान और आहार, आवास की गुंजाइश है। ऐसे ग्रह तो अपने सौर मण्डल में ही कई हैं। फिर समस्त ब्रह्मांड में ऐसी स्थिति अरबों-खरबों में हो सकती थी। पर वैसा है नहीं। इससे प्रकट है कि प्राणियों का उत्पादन एवं विकास उस प्रकार नहीं हुआ है जैसा कि कहा और समझा जाता है।
अब वैज्ञानिकों का एक बड़ा वर्ग इस तथ्य को स्वीकार करने लगा है कि पदार्थ की भाँति ही चेतना प्रवाह भी अनादि काल से इस ब्रह्मांड में मौजूद है और वह कारणवश एक से दूसरे ग्रह पिण्ड पर पहुँचता रहता है। वहाँ की परिस्थितियाँ जैसी होती उसी के अनुरूप अपने मूलभूत वर्ग की रक्षा करते हुए कलेवर का सुजन कर लेता है।
पृथ्वी पर हर दिन आकाश से अगणित उल्काएँ (प्रति दो मिनट दो करोड़ की संख्या में) बरसती हैं। उनमें से कुछ तो वायुमण्डल में प्रवेश करते ही जल जाती हैं। जो साबुत स्थिति में धरातल तक आ जाती हैं उनका विश्लेषण करने पर पाया गया है कि उनमें पृथ्वी पर पाये जाने वाले खनिज एवं रसायन तो हैं ही साथ ही विभिन्न प्रकार के जीवन तत्व भी हैं जो उपयुक्त परिस्थितियों में विकसित होकर शरीरधारी बन सकती है। इन तथ्यों के आधार पर यह माना जा सकता है कि किसी बुद्धिमान ग्रह का जीवन पृथ्वी पर उतरा होगा और उसने अपने स्वरूप के अनुसार कलेवर धारण किया। बीज के अनुरूप अंकुर और वृक्ष बनते गये होंगे। विभिन्न प्राणियों की सृष्टि होती गई होगी।
प्राणियों में जन्मजात रूप में पाये जाने वाले विभिन्न कौशलों से भरपूर स्थिति में होना आनुवाँशिक स्वभाव धारण किये रहना इस तथ्य को प्रकट करता है कि जीवन कृत्रिम नहीं मौलिक है और वह सनातन काल से नियत निर्धारित विधा के अनुरूप विकसित होता चला आया है। रसायनों के संयोग से किसी प्रयोगशाला में कोई मौलिक प्राणी नहीं बन सका इससे भी चेतना की मौलिकता सिद्ध होती है।