किसी जमाने में आयुर्वेद चिकित्सा विश्व में मूर्धन्य थी। यों क्षेत्रीय प्रचलनों में अन्य प्रकार के उपचार भी काम आते थे पर उनकी न इतनी प्रामाणिकता थी और न प्रतिक्रिया ही अनुकूल पड़ती थी।
आयुर्वेद में जड़ी बूटियों द्वारा उपचार करने की पद्घति को सुलभ, निर्दोष और अधिक फलप्रद मानते हुए उसे प्राथमिकता दी गई है। पर पीछे उसमें रस, भस्में भी सम्मिलित होती गईं और चमत्कारी प्रभाव की दृष्टि से उन्हें भी समुचित श्रेय सम्मान मिला।
जिन दिनों युद्धों की भरमार बढ़ चली थी उन दिनों आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा का भी आविष्कार एवं शानदार प्रयोग हुआ। युद्धों में तीर, तलवार, वरछे, छुरे, फरसे आदि का प्रयोग होता था। उनसे सैनिक घायल तो बहुत होते थे पर अंग कटने पर भी जीवित रहते थे। उनके अंगों में शस्त्र छिदे और हड्डियों में अस्त्र फँसे रहते थे। उन्हें निकालना एक कठिन एवं जटिल काम था। ऐसी दशा में शल्य चिकित्सा का विकास करके आयुर्वेद के माध्यम से आहतों एवं पीड़ितों की भारी सेवा हुई। इतिहास बताता है कि ईसा से छह शताब्दी पूर्व विद्वान आत्रेय, सुश्रुत आदि मनीषियों ने शल्य चिकित्सा का उच्चस्तरीय विकास किया था। तक्षशिला में इस प्रशिक्षण के लिए समुचित व्यवस्था थी। इस सन्दर्भ में अनेक विशेषज्ञों ने अपने-अपने अनुभवों के आधार पर अनेक ग्रन्थ भी लिखे थे। शल्य प्रयोजनों में काम आने वाले छोटे-बड़े उपकरणों की संख्या 180 तक पहुंच गई थी। शूची भेद चिकित्सा, (इन्जेक्शन) और धूम्र चिकित्सा (यज्ञोपचार) आदि आविष्कारों ने तो भारत की ख्याति संसार भर में पहुंचाई थी। इस विद्या का ज्ञान प्राप्त करने के लिए सुयोग्य छात्र आते थे और अपने-अपने प्रदेशों में स्वास्थ्य रक्षा की महती सेवा साधना करते थे। एक्युपंक्चर का शिक्षण तिब्बतियों व चीनी चिकित्सकों ने भारत में ही किया था।
किसी समय भारत दर्शन, अध्यात्म, साहित्य, कला, विज्ञान आदि की तरह ही आयुर्वेद का भी ऊँचा दर्जा था और वह चिरकाल तक चलता रहा। मानव जाति का इस आविष्कार से महानतम हित साधन हुआ।
समय चक्र बदला। मुसलमानी शासन स्थापित हुआ। उसके साथ तिब्बी चिकित्सा पद्धति का भी आगमन हुआ। उसे प्रोत्साहन मिला। यों उस पद्धति में भी अधिकांश प्रयोग और सिद्धान्त आयुर्वेद के ही सम्मिलित है। फिर भी छाप तो अलग से ही लगी थी। इसलिए शासकीय छत्र छाया में उसी को प्रधानता मिली। आयुर्वेद क्षेत्र में निराशा फैल चली। जहाँ सम्मान और पैसा अधिक मिले उधर ही ढुल जाने की मनुष्य की प्रवृत्ति है। इसलिए वैद्यों की अपेक्षा तबीवों का बोलबाला बढ़ता गया। फिर भी आयुर्वेद अपनी मौलिक विशेषताओं के कारण अपने पैर दृढ़तापूर्वक जमाये रहा। सम्पन्न लोगों के बीच न सही, देहाती और गरीब वर्ग में उसे यथावत् प्रश्रय मिलता रहा। सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि घरेलू चिकित्सा के रूप में आस-पास उगने वाली जड़ी-बूटियाँ और रसोई में काम आने वाले मसालों से ही वह लाभ मिल जाता था, जो ढेरों पैसा खर्च करने और बड़ों के दरवाजे पर सिर पटकते रहने पर भी नहीं मिल पाता यही वह विशेषता है जो अँग्रेजी शासन काल में अतिशय सम्मान पाने वाली एलोपैथी के व्यापक प्रभाव के सामने भी। आयुर्वेद पद्धति किसी प्रकार अपना अस्तित्व बनाये रही। सरकारी अस्पतालों में प्रायः ऐलोपैथी चिकित्सक और उनसे सम्बन्धित दवाओं की भरमार है। विदेशी सरकार के चले जाने पर भी पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति का प्रभाव अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। शहरों में सही- सम्पन्नों में न सही- देहाती गरीब क्षेत्र में इन दिनों भी आयुर्वेद से सम्बन्धित उपचार ही कार्यान्वित होते हैं।
समय का फेर और प्रभाव तो आयुर्वेद के पिछड़ जाने का एक बड़ा कारण है ही। राज्याश्रय में शासकों की पसन्दगी भी बड़ा काम करती है। उनके द्वारा दिया हुआ प्रोत्साहन भी अपना काम करता है। इस प्रकार तिब्बी के उपरान्त एलोपैथी को श्रेय सम्मान मिलता रहा तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि आयुर्वेद क्षेत्र का नेतृत्व करने वालों ने समय का सामना करने के लिए जिस तत्परता को बरता जाना चाहिए था, वह उनने बरती नहीं।
आयुर्वेद वस्तुतः जड़ी-बूटी (वनौषधि) प्रधान है। उनका सही और शुद्ध होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि वे सड़ी-गली हों, शकल से मिलती हुई कुछ के बदले कुछ को देने प्रयास चल पड़े तो प्रामाणिकता की रक्षा नहीं हो सकती और न उसका समुचित प्रतिफल ही दृष्टिगोचर हो सकता है। पंसारियों की दुकान पर मिलने वाली वनस्पतियाँ वर्षों पुरानी होती हैं जबकि उनका गुण मुश्किल से एक वर्ष की अवधि (तोड़े जाने के बाद) बीतने पर ही समाप्त हो जाता है। ऐसी दशा में गुण हीन वनौषधियों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे अपना समुचित प्रभाव उत्पन्न कर सकेंगी। एक ही शक्ल की कई वनस्पतियाँ होती हैं। ऐसी दशा में कठिनाई से मिलने वाली औषधियों के स्थान पर सस्ती चीजों को खपा देना भी ही दोष है जिसके कारण रोगी को लाभ से वंचित रहना पड़ता है और चिकित्सक को अपयश का भागी बनना पड़ता है। वनस्पतियों को प्रौढ़ावस्था में ही लिया जाना चाहिए ताकि उनके गुण और रस परिपक्व हो सकें। किन्तु देखा जाता है कि उखाड़ने वाले कच्ची-पक्की का ध्यान न करके वजन बढ़ाने के लिए जो भी खुरपी के नीचे आता है उसी को खोद लाते हैं। पंसारी भी उनकी छाँट धुलाई और सफाई नहीं करते। ऐसी दशा में यह जोखिम और भी बढ़ जाती है कि वे गुणहीन स्थिति में रहें और अपना समुचित प्रभाव न दिखा सकें।
औषधियों के गुणों का भूमि से भी भारी सम्बन्ध है। ठण्डे, गरम, पथरीले, रेतीले आदि क्षेत्रों की उत्पत्ति में भूमि के अनुसार गुण होते हैं। अस्तु आयुर्वेद विशेषज्ञों को वनस्पतियाँ संचय करते समय यह भी देखना चाहिए कि वह उत्पादन उपयुक्त क्षेत्र का है या नहीं। प्रयोग की अवधि बीत जाने पर तो वे कूड़ा-कचरा ही हो जाती है और फिर उनकी विशेषता समाप्त हो जाती है।
पुरानी औषधियों में से अनेकों दुर्लभ हो गई हैं या होती जा रही हैं। “फ्लोरा “ क्रमशः मिटता जा रहा है। नई कितनी ही ऐसी हैं जो अपना विशेष गुण प्रदर्शित करती हैं। इस संदर्भ में ऐसी प्रयोगशालाएँ और अनुसन्धान गतिविधियां आधुनिकतम परीक्षणों के साथ चलनी चाहिए जिससे वस्तुस्थिति की जानकारी मिलती रहे और आयुर्वेद अपनी पुरातन गरिमा बनाये रहने के साथ-साथ नवीन विशेषताओं की जानकारी भी अपने क्षेत्र में सम्मिलित कर सके। एक ऐसा ही प्रयोग गायत्री तीर्थ- ब्रह्मवर्चस् की वनौषधि अनुसन्धान प्रयोगशाला में चल रहा है। अगणित व्यक्ति ताजी औषधियों के प्रयोग से लाभान्वित हुए हैं एवं विज्ञान जगत भी इस ओर आकर्षित हो रहा है।