अभी कमी है देवि!

June 1986

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राजा भर्तृहरि ने वैराग्य दीक्षा ले ली। विशाल राजपाट, वैभव विलास, सुख सुविधाएं छोड़कर संन्यासी का बाना अपनाया।

पार्वती जी ने देखा सराहा “ वाह! कैसा प्रखर वैराग्य भाव उमड़ा, इतने विशाल वैभव को छोड़ दिया.........”। भगवती कोई प्रशस्ति पत्र दें, इससे पूर्व ही शिवजी बोल पड़े “ देवि! अभी कमी है, देखो!

पार्वती जी ने देखा सब कुछ त्यागने पर भी तीन वस्तुएँ आवश्यक समझकर भर्तृहरि ने साथ रख ली थीं-

1. जलपात्र, 2. तकिया और 3. हाथ का पंखा।

साधना चली, वैराग्य भाव और पुष्ट हुआ। क्रमशः वस्तुएँ छूटने लगीं। पहले पंखा छूटा हवा स्वतः मिलती है, दीवालों से घिरे होने पर ही तो कृत्रिम वायु प्रवाह पैदा करने के लिए पंखा चाहिए। दूसरे क्रम में तकिया निरर्थक लगने लगा। सिर के नीचे अपना हाथ लगाना पर्याप्त है तो तकिया क्यों लिए फिरे? तीसरे क्रम में जलपान भी निरर्थक लगने लगा। जगह-जगह निर्झर मिलते हैं, पीने के लिए अपने हाथ पात्र का आकार बना ही लेते हैं, फिर अलग से पात्र क्यों रखें। पात्र भी छोड़ दिया। पार्वती जी ने कुछ कहना चाहा, शिवजी ने पुनः “ कमी है” कहकर और देखने को कहा।

भर्तृहरि भिक्षा के लिए नियमित रूप से नगर गाँव में जाते। भिक्षा की सुविधा के लिए श्रद्धालुओं के निकट ही कहीं निवास की बात सोचते। वैराग्य भाव और परिपक्व हुआ। अपने अनुभव को मन हिताय समाज तक पहुँचाने के लिए “ वैराग्य शतक” लिखने लगे। श्मशान निवास, भोजन के लिए भिक्षार्थ भी जाना बन्द। कोई कुछ दे गया तो खा लिया अन्यथा निराहार ही साधना, चिन्तन, लेखन में तल्लीन रहने लगे।

एक बार ग्यारह दिन तक कोई आहार नहीं मिला। भर्तृहरि को शक्ति क्षीण होती अनुभव हुई। सोचा आहार न करने से शरीर असमय ही समाप्त हो जायगा, कार्य अधूरा रह जायगा। श्मशान भूमि में खोज की। पिण्ड-दान के क्रम में रखे गये आटे के पिण्ड मिल गये। एक पात्र में जल भी रखा था। चिता की अग्नि पर पिंडों के आटे की रोटी सेंकने लगे।

पार्वती जी से अब न रहा गया। बोलीं- “स्वामी! अब देखिए, विशाल साम्राज्य का अधिपति, सर्वस्व त्यागी किस निस्पृह भाव से पिण्डों के आटे की रोटी चिता पर सेंककर क्षुधा शान्त करने में तैयारी कर रहा है। ऐसा वैराग्य...........”

शिवजी पुनः बीच में ही बोल पड़े “देवि! अभी कमी है।” जगज्जननी अधीर हो उठीं। बोली “आपको क्या हुआ है? अब क्या कमी दीखती है?” शिवजी मुस्कराये बोले “देखना चाहती हो? तो आओ मेरे साथ।” दोनों उठे। वृद्ध ब्राह्मण ब्राह्मणी का स्वरूप बनाकर श्मशान भूमि में प्रकट हुए जहां भर्तृहरि चिता की अग्नि पर रोटी पकाकर, ग्यारह दिन की भूख मिटाने की तैयारी में थे, ब्राह्मण ने अपना भिक्षापात्र आगे कर दिया। भर्तृहरि ने भिक्षुक पर एक दृष्टि डाली और सहज भाव से रोटियां उसके पात्र में डाल दी। स्वयं जलपात्र लेकर पानी पीकर ही पेट की अग्नि को कम करने को तैयार हुए। ब्राह्मण वेशधारी शिव बोले- रोटी खाकर पानी कहां पीऊंगा? वह भी मिल जाता तो...........। भर्तृहरि ने जलपात्र भी उसे थमा दिया।

ब्राह्मणी वेश में पार्वती ने पति पर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली मानो पूछती हों, “अभी भी कुछ कमी है? शिवजी ने पुनः वही संकेत किया।

भर्तृहरि ने उनके हाव-भाव देखे, पूछा “आप नेत्रों की भाषा में क्या बात कर रहे हैं? ब्राह्मण बोले “यह कहती हैं कि तुमने इस बेचारे का सारा भोजन ले लिया, “इसे कष्ट होगा। अच्छा ऐसा करो आधा तुम वापस ले लो- हम आधे से काम चला लेंगे?” भर्तृहरि की भौहें टेढ़ी हुई, बोले “आप मुझे जानते नहीं। मैंने इतने बड़े साम्राज्य वैभव का मोह नहीं किया, इन रोटियों का मोह करूंगा?

शिवजी पात्र वहीं रखकर अंतर्ध्यान हो गये। पार्वती जी से बोले “ देखा देवि पदार्थों की आसक्ति तो नहीं रही पर, यश की आसक्ति अभी भी बनी हुई है। इसीलिए मैंने कहा था “अभी कमी है देवि!” पार्वती जी का समाधान हो गया।


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