बिगड़ती परिस्थितियों का एक मात्र उपचार

June 1986

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यज्ञ पुरुष के अन्याय चेतन सत्ताओं की तरह दो पक्ष माने गये हैं। एक कलेवर दूसरा प्राण। दोनों के संयोग से ही एक पूर्णता बनती है। इनमें से एक के विलग हो जाने पर दूसरा पक्ष महत्वहीन बन जाता है।

यज्ञ का कलेवर है अग्निहोत्र- हवन। प्राण है, परमार्थ, समर्पण। विचारणा और क्रिया का संयोग ही पूर्णता के रूप में विकसित होता है और अभीष्ट की पूर्ति करता है।

अग्निहोत्र प्रतीक है और परमार्थ उसकी मूल सत्ता। अग्नि तो चूल्हे में भी जलती है। उसके अलग से भट्टी में जलाकर यजन शाकल्प डाला और जलाया जा सकता है। फिर होत्र के संयम, नियम पुरोहित के स्तर एवं मन्त्रोच्चारण, कर्मकाण्डों के सुविस्तृत समुच्चय की क्या आवश्यकता रहती है। पदार्थ को वायुभूत बनाकर उसे अन्तरिक्ष में सुविस्तृत बनाने और वातावरण को ऊर्जामय बनाने का प्रयोजन तभी पूरा होता है जब विधिवत् उसे सम्पन्न किया जाय। इसलिए है तो अग्निहोत्र भी आवश्यक। पर उससे भी अधिक आवश्यक है कर्ताओं, आयोजकों की सेवा भावना। उसी आधार पर अदृश्य चेतन जगत में सद्भावनाओं का संचार होता है। अन्यथा केवल वायु प्रदूषण का परिशोधन होने भर का प्रयोजन पूरा होता है।

कार्य दोनों ही आवश्यक हैं। वायुमण्डल संशोधन के लिए अग्निहोत्र और वातावरण परिमार्जन के लिए यज्ञ। इन दोनों का समन्वय ही समग्र उद्देश्य की पूर्ति करता है। इन दिनों कारखानों, रेल मोटर जैसे वाहनों से निकलने वाला धुँआ, लोगों के स्वास्थ्य को बुरी तरह बिगाड़ रहा है। जमीन को खनिज, कोयला, तेल आदि निकालने के लिए पोला किया जा रहा है, जिससे आये दिन भूकम्प आते और ज्वालामुखी फटते हैं। इतना ही नहीं कीटनाशक दवाओं और कारखानों के विषैले रसायनों से मिश्रित नदी नालों में जाता है। विषैले बादल बरसते हैं। अणु आयुधों का परीक्षण विकिरण का विस्तार करता है। यह सभी विडम्बनाएँ मिलाकर मनुष्य, पशुओं को रोगी बनाती और वनस्पतियों को क्रमशः विषैला करती जा रही हैं। फलतः नये-नये किस्म के रोग फैलते और मन्दबुद्धि, अविकसित बच्चे पैदा होते हैं। नये-नये प्रकार के रोग कीटाणु पैदा होते और संकट उत्पन्न करते हैं। इनके निवारण का संयुक्त उपचार सामूहिक मन्त्रोच्चार मिश्रित अग्निहोत्र है। उसे भौतिक जगत के बिगड़ते हुए सन्तुलन को बनाने का अचूक उपाय समझा जा सकता है।

इसलिए हर स्थान की स्थानीय विपत्तियों का निवारण करने के लिए जगह-जगह अग्निहोत्रों की व्यवस्था की गई है। प्रज्ञा परिजनों से कहा गया है कि वे अपने-अपने जन्म दिवसोत्सव मनायें। जिससे उनके घर परिवार की, गाँव क्षेत्र की विषाक्तता दूर हो।

साथ ही यह भी कहा गया है कि युग सन्धि के इन विपत्ति भरे वर्षों में हर गाँव में एक छोटा सामूहिक यज्ञ हो। प्रयोजन है पाँच वेदी वाले यज्ञ से। इसमें सभी प्राण प्रतिभा सम्पन्न लोगों को सम्मिलित होना चाहिए। आवश्यक नहीं कि सभी आहुतियाँ दें और वेदियों पर बैठें। सह मंत्रोच्चारण एवं पूर्णाहुति देवपूजन आदि में सम्मिलित रहने, भस्म धारण, घृत अवघ्राण, मार्जन जल सिंचन, परिक्रमा करना भी अग्निहोत्र में सम्मिलित होता है। भले ही वेदियों पर कम व्यक्ति ही बैठें। पांच वेदियों पर चारों ओर एक-एक व्यक्तियों को यजन के लिए बीस व्यक्ति बिठाने से भी काम चल सकता है।

यज्ञ शब्द पुण्य, परमार्थ त्याग बलिदान, सेवा आदि के अर्थ में आता है। यही अग्निहोत्र का प्राण है। गणना में 29 स्थानों पर यज्ञ शब्द आया है। उसका उपयोग परमार्थ प्रयोजन के लिए हुआ है। यज्ञकर्ताओं को, होता, यज्ञमानो और संयोजकों को अग्निहोत्र के साथ ही सत्प्रवृत्ति संवर्धन का ऐसा कार्य भी हाथ में लेना चाहिए, ऐसे पथ पर कदम बढ़ाना चाहिए जिससे लोकमानस का परिष्कार एवं पुण्य परम्पराओं का प्रचलन होता हो।

त्याग के साथ परमार्थ जुड़ा हुआ है। इसलिए व्यक्तिगत यज्ञों में अपने दोष-दुर्गुणों में से कम से कम एक का परित्याग और सद्गुणों में से एक का अभिवर्धन करना चाहिए। यह बन पड़े तो समझना चाहिए कि यजन कर्म को प्राणवान भी बनाया गया मात्र शाकल्प हो जाय तो समझना चाहिए कि अग्निहोत्र का क्रिया कलाप भर सम्पन्न हुआ। यदि उसके साथ सत्प्रवृत्ति संवर्धन का प्रयास भी चला तो समझना चाहिए कि अग्निहोत्र के साथ उसके प्राण यज्ञ प्रयोजन का भी समावेश हो गया और उसकी स्थिति जीवन्त जैसी बन गई।

परमार्थ क्या होना चाहिए? यों असमर्थ को दान एवं लोकसेवियों को दक्षिणा देना भी परमार्थ है, पर आज की स्थिति में वातावरण में प्रदूषण भरने वाला आस्था संकट ही है। जन मानस में लोभ, मोह और अहंकार अत्यधिक भर गया है। मर्यादाओं के उल्लंघन में हर कोई शूरवीर बनता है। इन्हीं बढ़ती हुई अनास्थाओं ने सूक्ष्म जगत में दुर्बुद्धि का दुष्प्रवृत्तियों का घटाटोप भर दिया जाता है। इसका शमन करना, सामयिक पुण्य परमार्थ है। जन साधारण को सद्बुद्धि प्रदान करने वाली प्रेरणाएँ भर देना, यही है इन दिनों सबसे बड़ा परमार्थ। चिन्तन से चरित्र, चरित्र से व्यवहार- व्यवहार से वातावरण बनने की बात स्पष्ट है। अस्तु लोकचिन्तन में सदाशयता का अनुपात अधिकाधिक भरने के लिए विचार क्रान्ति का- प्रज्ञा विस्तार का कार्यक्रम हाथ में लेना चाहिए। समस्त समस्याओं का यह एक ही हल है। यज्ञों के अनेक स्वरूप हैं। इनमें से इन दिनों हमें ज्ञानयज्ञ को ही प्राथमिकता देनी चाहिए और इसके लिए जितना कुछ न्यूनाधिक बन पड़े उसे करना चाहिए। इस संदर्भ में झोला पुस्तकालय के निमित्त प्रयास करना ऐसा है जिसे युग धर्म एवं आपत्तिकालीन अनिवार्य सेवा कार्य कहा जा सकता है। याज्ञिकों को- यज्ञ प्रेमियों को युग साहित्य पढ़ने पढ़ाने के लिए समयदान, अंशदान लगाने के लिए व्रतशील होना चाहिए। इसकी कार्य पद्धति बनाने और संकल्पपूर्वक उसे चलाने का साहसिक कदम बढ़ाना चाहिए। अदृश्य जगत का चेतनात्मक वातावरण उसी उपाय से परिशोधित किया जा सकता है। यही प्रक्रिया यज्ञ आयोजनों के साथ जोड़ रखनी चाहिए। प्रज्ञा अभियान के आयोजनों के साथ जुड़े हुए विभिन्न दृश्य-श्रव्य क्रिया-कलाप इसी प्रयोजन की पूर्ति करते हैं।

चेतनात्मक वातावरण का परिशोधन साधनात्मक कृत्यों की भी माँग करता है। इन दिनों 240 करोड़ प्रतिदिन का गायत्री जप और 240 लाख गायत्री चालीसा पाठ का भी व्यापक कार्यक्रम चलाया गया है। इनकी संख्या में और भी जितना अधिक अभिवर्धन हो सके करना एवं कराना चाहिए। यह साधना जितनी बढ़ेगी उतना ही अदृश्य वातावरण में दैवी तत्वों का अभिवर्धन होगा।

इन दिनों प्रज्ञा प्रशिक्षण की विश्व विद्यालय स्तर की योजना हाथ में ली गई है। इसके लिए सभी समर्थ शाखाओं एवं स्वाध्याय मण्डलों को अपने-अपने यहाँ एक विद्यालय की स्थापना करनी चाहिए जिसमें कम से कम दस प्रज्ञा प्रचारक प्रशिक्षण प्राप्त करें। प्रशिक्षण के उपरान्त वे न्यूनाधिक मात्रा में जो गतिविधियाँ अपनायेंगे उनसे चेतनात्मक वातावरण का स्तर ऊँचा उठाने में असाधारण सहायता मिलेगी।

जहाँ भी यज्ञ आयोजन हों वहाँ उसमें भाग लेने वालों, सहयोग देने वालों में से प्रत्येक को प्रेरणा दी जानी चाहिए कि वे उस प्रयोजन के लिए जितना सम्भव हो उतना करने का प्रयत्न करें।

यज्ञ की देव-दक्षिणा में यही समयदान, अंशदान प्रत्येक भावनाशील को करना चाहिए और निश्चय को दृढ़तापूर्वक निबाहना चाहिए।

यज्ञ के अवसर पर यदि जीप टोलियों का पैट्रोल खर्च देने के उपरान्त कुछ बनता है तो उसे पड़े बाबाजियों को बिखेरने की अपेक्षा यह हजार गुना उत्तम है कि शास्त्र को समर्थ बनाने के लिए जिन प्रचार उपकरणों की व्यवस्था करने के लिए कहा जाता रहा है उसे जुटाने में वह पैसा लगा दिया जाय। हर समर्थ शाखा के पास प्रज्ञा प्रशिक्षण सिखाने के लिए साहित्य तथा संगीत साधन होने ही चाहिए। शिक्षितों के लिए प्रज्ञा पुस्तकालय, अशिक्षितों के लिए टेप रिकार्डर, स्लाइड प्रोजेक्टर, लाउडस्पीकर का प्रबन्ध किया जाय। इन सब साधनों की जहाँ भी व्यवस्था है समझना चाहिए कि वहाँ प्राणवान प्रज्ञापीठ बनकर खड़ी हो गई। यों निष्प्राण ईंट चूने की इमारतें तो प्रज्ञापीठ के साथ से बनी खड़ी है जहाँ आरती, बुहारी भर की चिन्ह पूजा हो जाती है। भले ही निजी इमारत न हो पर प्रचार उपकरणों का सरंजाम यदि जुटा लिया गया है तो समझना चाहिए कि इमारत का अभाव कुछ खटकने वाला नहीं है। चलती फिरती प्रज्ञापीठ की आत्मा भी उस प्रयोजन की पूर्ति कर सकती है जिसके लिए प्रज्ञापीठें बनाई गई थीं।

यह भी हो सकता है कि गाँव के निकट ही कोई पुराना देवालय धर्मशाला आदि हो तो उसका जीर्णोद्धार करके वहाँ व्यायामशाला एवं स्कूली छात्रों के लिए संस्कार प्रशिक्षण का प्रबन्ध कर लिया जाय।

उपरोक्त कार्यों में से जो भी कृत्य करना हो तो एक वेदी या पाँच वेदी वाले यज्ञ आयोजनों के साथ शुभारम्भ किया जाय।

अग्निहोत्र खर्चीले हों यह आवश्यक नहीं। अपने यज्ञों में अन्न नहीं जलाया जाता। वनस्पतियों का ही प्रयोग होता है, पर यदि उसमें भी कमी पड़ती दीखे उतना प्रबन्ध न हो सके तो घी और गुड की बतासे जितने आकार की गोलियां बना लेनी चाहिए और उन्हीं की आहुतियाँ देते रहना चाहिए। यह सबसे सस्ता माध्यम है। एक रुपये में प्रायः 240 आहुतियाँ हो सकती हैं। कुण्ड खोदने की अपेक्षा वेदियाँ बनाने का उपक्रम इसीलिए किया गया है कि लोगों को अधिक भाग-दौड़ का, अधिक साधन जुटाने का झंझट न उठाना पड़े। बाँस के खम्भे। पत्र-पल्लवों की सज्जा। पीली मिट्टी या बालू की वेदी। लीप-पोतकर उस पर रंग-बिरंगे चौक पूर दिये जायँ तो इतने भर से यह कार्य सम्पन्न हो जाता है जिसके लिए भारी भाग-दौड़ करने और पैसा खर्चने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

शतपथ ब्राह्मण में जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद आता है। जिसमें जनक पूछते हैं कि जिसके पास यज्ञ के साधन नहीं हैं। वे उस आवश्यक धर्म कृत्य का निर्वाह कैसे करें। इस प्रश्न के उत्तर में याज्ञवल्क्य अपेक्षाकृत अधिक सस्ती और सुगम वस्तुएँ बताते चले गये हैं और अन्त में यहाँ तक उतर आये हैं कि मात्र समिधा के टुकड़े लेकर उन्हीं को शाकल्प मान लिया जाय और अग्निहोत्र कर लिया जाय, किन्तु उसकी उपेक्षा किसी भी स्थिति में न की जाय। शरीर को भोजन देने की तरह आत्मा के परिपोषण के लिए यज्ञ कर्म का दिनचर्या में सम्मिलित रहना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। उसमें भूल करना धर्म कर्तव्य की अवहेलना है।

इन दिनों समय का अभाव, पैसे का अभाव, साधनों का अभाव सर्वविदित है। खाद्य-पदार्थों की कमी और उन्हें जलाने या तार्किक लोगों द्वारा कटु आलोचना होने की बात स्पष्ट है। इसलिए बहुत सोच विचार के उपरान्त वह रास्ता ढूंढ़ निकाला है जिसमें शास्त्र मर्यादा का निर्वाह एवं युग अनुष्ठान का निर्वाह भी भली प्रकार सम्पन्न हो सके और भागदौड़ पैसे की कमी, कटू आलोचना आदि के झंझटों से बचा जा सके।

हीरक जयन्ती के उपलक्ष में एक लाख यज्ञों का जो संकल्प है वह मात्र अग्निहोत्र नहीं है और न किसी निहित स्वार्थी की प्रवंचना है वरन् उसके साथ-साथ इतने अधिक कार्यक्रमों का समावेश है जिसे पुण्य परमार्थ ही नहीं युग परिवर्तन का वातावरण विनिर्मित करने की दृष्टि से अतीव उपयोगी भी कहा जा सकता है। हर यज्ञ आयोजन के साथ ऐसी वनस्पति वाटिका लगाने का भी प्रावधान है जो न केवल वायुमण्डल को शुद्धि करे वरन् भविष्य में यज्ञ सामग्री बनाने के भी काम आ सके।

उपयोगिता और आवश्यकता समझी जानी चाहिए और वायुमण्डल तथा वातावरण संशोधन की दृष्टि से उपरोक्त कार्यक्रमों को पूरा करने की उमंग जागनी चाहिए।


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