इक्कीसवीं सदी की परिणति

June 1986

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इक्कीसवीं सदी निकट आ रही है। उसमें अब मात्र 20 वर्ष शेष रह गये हैं। उस संदर्भ में मूर्धन्य मनीषियों से लेकर गवई गँवारों तक अनेकानेक ‘चर्चाएँ चलने लगी हैं। राजनेता और समाजशास्त्री एवं अर्थशास्त्री अपने-अपने अनुमान लगा रहे हैं। इनमें से बहुतों के पीछे ऐसे तर्क और तथ्य भी हैं जिन्हें अनदेखा, अनसुना नहीं किया जा सकता और न झुठलाया जा सकता है। हर प्रतिपादन में ऐसे तथ्य किसी न किसी मात्रा में रहते हैं जिन पर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है।

भविष्य वक्ताओं में से जिन पर विश्वास किया जा सकता है, उनकी धारणाएँ इस सम्बन्ध में ऐसी हैं, जिनके सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा और सुना गया है। ईसाई धर्म में सेविंथ टाइम, मुस्लिम धर्म में चौदहवीं सदी और भविष्य पुराण में जिस काल को भयानक विपत्तियों, विभीषिकाओं से भरा हुआ बताया गया है, वह बीसवीं सदी का वह अन्तिम छोर है, जिसमें हम सब इन दिनों जीवन यापन कर रहे हैं।

जनसंख्या विस्फोट, दुर्भिक्ष, प्रदूषण, विकिरण, प्रकृति प्रकोप, अणु आयुध अन्तरिक्ष अधिकार जैसे कितने ही प्रसंग ऐसे हैं जो डरावने भविष्य की भयंकर तस्वीर उपस्थित करते हैं। लगता है कि अगली पीढ़ी को जीवनयापन उससे कहीं अधिक कठिन पड़ेगा जैसा कि अब है। हो सकता है कि उस दबाव में वर्तमान ही नहीं भावी पीढ़ी का भी कचूमर निकल जाय।

इसके ठीक विपरीत ऐसी आशा बाँधने वालों की भी कमी नहीं, जो भविष्य को आशा, उल्लास, प्रगति और समृद्धि से भरा पूरा बताते हैं। इनमें वैज्ञानिकों की मंडली अग्रणी है, जो विनाश के सरंजामों की समस्या को अत्यधिक महत्व देते हैं। उन्हें छोड़कर ऐसा एक वर्ग भी है जो कहता है कि विज्ञान की सहायता से इतने अधिक सुविधा साधन उत्पन्न कर लिए जायेंगे कि स्वल्प श्रम और धन खर्च करके ही विपुल सुविधा साधन उपलब्ध किये जा सकेंगे। फलतः लोग सुख चैन की जिन्दगी व्यतीत करेंगे। उनके कथन का आधार यह है कि अभाव स्वाभाविक उत्पादन का हो सकता है किन्तु उसके स्थान पर इतने कृत्रिम उपार्जन हस्तगत हो चलेंगे, जिनके सहारे मानवी आवश्यकताओं की सरलता पूर्वक पूर्ति हो।

इन दिनों बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या सबसे विकट है। पिछड़ापन संसार के दो तिहाई भाग पर छाया हुआ है। यह वह वर्ग है जो बिना, आगा पीछा सोचे अन्धाधुन्ध सन्तानोत्पादन करता है। फलतः प्रगति के लिए किये गये प्रयास पिछड़ जाते हैं और प्रजनन की घुड़-दौड़ कहीं आगे बढ़ जाती है। किन्तु अगले दिनों यह स्थिति न रहेगी। विज्ञान, प्रतिगामिता को पछाड़ेगा और अशिक्षा के अभिशाप से मनुष्य जाति को उबारेगा। लोग समझेंगे कि अनावश्यक प्रजनन जन्मदात्री के लिए एक प्रकार का प्राण लेवा संकट है। पिता के लिए- परिवार के लिए गरीबी को द्रुतगति से बढ़ाने वाला अभिशाप है। समूचे समाज पर तो वह देशद्रोह, समाजद्रोह की तरह विपत्ति बनकर उतरता है। विशेषतया इन परिस्थितियों में जिनमें कि अभाव और दरिद्र के दो पाटों में फँसा हुआ समाज बेतरह दम तोड़ रहा है। इस बुद्धि संगत विचारणा को अपनाने के लिए बाधित मनुष्य अपनी राह बदलेगा और प्रजनन की दर घटेगी। यह बदलाव बुद्धिपूर्वक न हो सका तो प्रकृति प्रकोपों के हण्टर चमड़ी उखाड़ लेंगे और विनाश के गर्त में गिरने की सम्भावना को रोकथाम के शिकंजे में कसेंगे।

अर्थशास्त्री कहते हैं कि अन्न वस्त्र की समस्या को ऐसे साधनों से हल किया जा सकेगा जिनका प्रयोग करने की अभी आवश्यकता नहीं पड़ी है। घास से आहार और भूसे से वस्त्र बनाये जा सकेंगे बहुमंजिली इमारतें बनाकर आवास व्यवस्था को इस सीमा तक बढ़ाया जा सकेगा जिसमें अबकी अपेक्षा इन चौगुने मनुष्य भी समा सकें। शिक्षा शास्त्री कहते हैं कि पढ़ने पढ़ाने के लिए स्कूलों अध्यापकों की आवश्यकता न पड़ेगी यह कार्य घर बैठे रेडियो, टेलीविजन के माध्यम से सम्पन्न हो जाया करेगा, जैसाकि इन दिनों खुले विश्व-विद्यालयों के माध्यम से हो रहा है।

भूगर्भ शास्त्री कहते हैं कि पृथ्वी की सह्य तापमान वाली परत के नीचे ऐसी सुरंगें बनाई जा सकेंगी जिनमें बिजली से चलने वाली रेलें यातायात एवं परिवहन की समस्या हल कर सकें। ऊर्जा की बढ़ती आवश्यकता हेतु सौर बैटरियां बार-बार चार्ज करते रहने से उतनी गर्मी उपलब्ध की जा सकेगी जिससे मनुष्य की दैनिक आवश्यकता तथा कल-कारखानों के लिए बिजली पैदा की जा सकेगी। कचरे को खाद के रूप में सड़ा कर उससे उर्वरता बढ़ाई जा सकेगी और शासन तन्त्र में साम्यवादी स्तर का ऐसा हेर-फेर होगा जिसमें ललचाने, अपराध करने पर उतारू होने की गुंजाइश ही न रहे। जब पैसा किसी के पास ही न होगा, जब वस्तु और श्रम का परिवर्तन होने लगेगा तो चोरी कोई किस चीज की करेगा? ईर्ष्या और प्रतिशोध उत्पन्न करने वाली वर्तमान विद्या ही जब बदल जायगी तो पुलिस कचहरी, जेल पर होने वाला विपुल खर्च सहज ही समाप्त हो जायेगा।

इतने पर भी एक समस्या ऐसी है जो प्रतिगामी और प्रगतिशील हर किसी को उलझन में डाले हुए है कि धरती का बढ़ता भार और हवा में कार्बन का अनुपात बढ़ने से मनुष्य आक्सीजन कहाँ से प्राप्त कर सकेगा? उस अभिवृद्धि में पेड़ों और जंगलों का तो सफाया ही होकर रहेगा। ऐसे दम से दम घुटने के प्राणघाती संकट से कैसे बचा जा सकेगा?

सीमित समुदाय के बीच ही मैत्री, सद्भावना, स्नेह, सौजन्य जैसे गुणों का निर्वाह हो सकता है। पर जब टिड्डी दल की तरह मनुष्य की भीड़ में पारस्परिक पहचान तक कठिन हो जायेगी तो सौजन्य का निर्वाह किस प्रकार, किसके साथ बन पड़ेगा। टिड्डी दल के बीच कौन पतंगा अपनी मैत्री निभा पाता है?

इक्कीसवीं शताब्दी कैसी होगी? इस संदर्भ में यों निश्चित रूप से तो कुछ नहीं कहा जा सकता है कि वह विनाश को साथ लेकर आ रही है या विकास को। पर इतना अवश्य है कि यह परिस्थिति मानवी सभ्यता के सम्मुख इस रूप में प्रस्तुत कभी नहीं हुई थी। भूतकाल की किसी समस्या और समाधान के साथ आज के समय की नाप-तौल नहीं हो सकती, जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि इक्कीसवीं सदी में किस स्तर की कितनी जटिल समस्याएँ उत्पन्न होंगी और किसी अवगत, अनुभव के आधार पर उनका किस प्रकार हल निकल सकेगा।

दीपक के नीचे अँधेरा भी होता है। तथाकथित बहुमुखी प्रगति के साथ इन दिनों भी जटिलताओं और समस्याओं के अम्बार उबल रहे हैं। अगले दिनों की परिस्थितियों का ताना-बाना इतना उलझा हुआ होगा कि उसका हल निकलना तो दूर, यह कल्पना करना अभी तो कठिन प्रतीत होता है कि उसका स्वरूप क्या होगा और उसे सुलझाया कैसे जा सकेगा?

बढ़ता हुआ बुद्धिवाद, विज्ञान, अर्थशास्त्र, चिन्तन, चरित्र और व्यवहार सब मिलकर एक ऐसा घोटाला बनते जा रहे हैं कि उनकी परिणति के सम्बन्ध में कुछ ठीक से कह सकना कठिन है। फिर भी हमें मनुष्य से आशा करनी चाहिए कि अनेकों संकटों के बीच गुजरते हुए उसने वर्तमान स्थिति तक पहुँच पाने में सफलता प्राप्त की है तो यह आशा भी करनी चाहिए कि वह भविष्य की डरावनी विभीषिकाओं को भी पार करके रहेगा।


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