भोजन के साथ श्रद्धा और आनन्द जुड़ा रखें

June 1986

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खाने को तो जीवित रहने वाले प्राणी सभी खाते हैं पर उनमें बिरले ही ऐसे हैं जो उसके गुण दोष देखते और सऊर सलीकों के साथ खाते हैं। आमतौर से विभिन्न प्रकार के स्वादों के जायके लेने के लिए थाली में अनेक कटोरियाँ, टपालियाँ सजाई जाती हैं और एक-एक ग्रास सबका स्वाद लेते हुए खाया जाता है। यह बुरी आदत है। एक हाड़ी में चावल, चना, नमक, चीनी आदि डालकर पकाई जाय तो वह नियत समय पर पक नहीं पावेगी। उसमें से कुछ कच्चा रह जायगा कुछ पक्का स्वाद और गुणों की विचित्रता भी उसके परिपाक को बिगाड़ कर रख देगी। इससे खाने वाला स्वाद का जायका भले ही उठाले पर उसके पालन में- रस बनने में तो भारी कठिनाई पड़ेगी व्यंजनों के भरे थाल एक प्रकार से पेट खराब करने और स्वास्थ्य बिगाड़ने का आमन्त्रण है।

अच्छा यही है कि एक समय में एक सूखी और एक गीली वस्तु का ही उपयोग किया जाय। मसाले कम से कम डाले जायं और शक्कर के बिना काम चलता हो तो गुड़ या शहद काम में लाया जाय। हरी सब्जियाँ उबली हुई और फल तथा सलाद का सहकार रखा जाय। बस इस परिधि में भोजन का चयन करना चाहिए। मिष्ठान्न पकवान, अचार, आदि से परहेज रखा जाये तो ही अच्छा है। देखना यह है कि स्वास्थ्य बिगाड़ का स्वाद चखना या स्वाद का ध्यान रखते हुए स्वाद पर नियन्त्रण करना। दोनों कदम एक साथ नहीं उठ सकते। एक आगे रहता है। दूसरा पीछे। उत्तेजक स्वाद और सन्तुलित स्वास्थ्य एक साथ नहीं रह सकते।

खाने के समय उतावली करना बुरी आदत है। कहा जाता है कि रोटी को पिया जाय और पानी को खाया जाय। इसका तात्पर्य यह है कि अन्न हो या जल उसे मात्र पेट में ही नहीं मुँह में भी टिकने का समय मिलना चाहिए। भोजन भले ही दलिया खिचड़ी जैसा पतला हो रोटी-बाटी की पर ग्रास को दाँतों में इतना अधिक पीसना चाहिए कि उसे निगलने के लिए कुछ प्रयास न करना पड़े। मुँह के स्रावों का इतना समावेश हो जाय कि वह भीतर गले से नीचे कब खिसक गया इसका पता भी न चले। जल्दी-पल्दी में दो चार-बार उलट-पुलट कर पानी के सहारे निगल जाने का सीधा तात्पर्य यह है कि मुँह के बदले का काम भी पेट पर लाद देना और उसे दुहरी मेहनत करने के लिए बाधित करना। यही हुआ रोटी को पीना। पानी को पीना खाना का तात्पर्य है कि हर घूँट को मुँह में कुछ समय के लिए ठहरने देना, ताकि उसमें भी मुंह के स्रावों का समावेश हो जाय। जिनके लिए चम्मच से पानी सम्भव है वे वैसा करे अन्यथा घूँट मुँह में भरकर कुल्ला करने करने की तरह एक दो बार उसे मुंह में घुमाये और फिर पी ले।

भोजन के साथ श्रद्धा और आनन्द का समावेश होना भी उतना ही आवश्यक है। भोजन को पोषक औषधि एवं भगवान का प्रसाद माना जाय। इसी भाव से उसे ग्रहण किया जाय। औषधि रूप आहार हमारी दुर्बलता और रुग्णता को दूर करता है इसका भाव मन में भरे रखा जाय। जो आहार थाली में सामने आये हैं उसे भी भावनापूर्वक शिरोधार्य किया जाय। किसी वस्तु में रुचि हो या उसका स्वाद प्रिय न हो तो उठाकर अलग रखा जा सकता है। यह एक स्वाभाविक और सहज चयन हुआ। किसी वस्तु के मन में अनुरूप न होने पर चिढ़ जाना, बड़बड़ाना, या उठाकर फेंक देना। यह अन्न भगवान का प्रत्यक्ष निरादर है। बनाने में रोटी का कोई भाग कच्चा रह गया हो या जल गया हो तो उतना अंश बिना मुँह पर किसी प्रकार का तनाव लाये उसे हटाया जा सकता है। किन्तु अश्रद्धा या नाराजी किसी भी स्थिति में मन पर नहीं आने देना चाहिए। मन के कुपात्र में अमृतोपम भोजन भी विष तुल्य हो जाता है।

भोजन करते समय बात-चीत करनी पड़े तो उतनी ही करनी चाहिए जितनी नितान्त आवश्यक हो। ज्यादा बातें सुनते हुए भोजन करने से वह न ठीक तरह पिस पाता है और न उनका मनोरम स्वाद ही आता है।


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