धर्म गाथाओं के साथ इतिहास न जोड़ें

June 1986

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देवताओं, अवतारों और ऋषियों का जो स्वरूप विभिन्न धर्मों में बताया गया है। उसके प्रेरक अंश जन-साधारण को दिशा, प्रेरणा और शक्ति देते हैं। इसलिए उनकी जीवनचर्या पर ऐतिहासिक खोज की आवश्यकता नहीं समझी जाती। यदि पुराणों को इतिहास के रूप में खोजना आरम्भ किया जाय तो उनके कथन और शिक्षण से जो लाभ उठाया जाता रहा है और जो उठाया जायेगा, उसकी सम्भावना ही हाथ से चली जायगी। ऐसे ऐतिहासिक तथ्य जो धर्मश्रद्धा तथा उनके प्रतिपादकों प्रचारकों के अस्तित्व को ही संदिग्ध बना देती है, परिणामों की दृष्टि से हानिकारक ही सिद्ध होगी।

प्रहलाद, हरिश्चंद्र , शिवि, दधीचि, भागीरथ आदि की कथाओं को यदि काल्पनिक या संदिग्ध कहा जाय तो हो सकता है कि हम जानकारी की दृष्टि से तथ्यों के समीप जा पहुँचें। पर उन प्रभावों से कोसों दूर हट जायेंगे जिनके कारण लोक-मानस को उच्चस्तरीय दिशा-धारा मिलती है। आदर्श के प्रति निष्ठा जगती है। इसलिए ऐसी खोजों को उपयोगी कम और अनुपयोगी अधिक माना जाता है।

महात्मा गाँधी ने अनासिक्त योग की भूमिका में कृष्ण को ऐतिहासिक पुरुष नहीं माना है। इसी प्रकार भगवान राम के सम्बन्ध में भारत के तथा विदेशों के कितने ही प्रतिपादकों ने राम चरित्र के बारे में इतनी भिन्नताएँ प्रस्तुत की हैं कि उन सबको मिलाकर पढ़ने पर तथ्यों के सम्बन्ध में किसी निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन होता है।

देवताओं और ऋषियों की कथा गाथाओं के सम्बन्ध में से इतिहास पुराणों में इतनी भिन्नताएँ हैं कि उनकी प्रामाणिकता मानने पर हम भारतीय धर्म परम्पराओं और संस्कृति के आधारों से ही पीछे हटने को विवश होते हैं। ऐसी दशा में ‘गढ़े मुर्दे न उखाड़ने’ वाली युक्ति ही सार्थक प्रतीत होती है। पुराण प्रतिपादनों का एक ही लाभ है कि उनमें मनुष्य की उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, श्रेष्ठता, गरिमा एवं सदाशयता को प्रोत्साहित करने वाले जितने अंश हैं उन्हें श्रद्धापूर्वक अंगीकार किया जाय। इसी में भलाई है। यदि कोई तर्कों पर अपनी मान्यताओं को प्रतिष्ठित करना चाहे तो यह सिद्ध करना भी कठिन हो जायगा कि वस्तुतः हमारा पिता वही है जिसका उल्लेख करते हैं या कोई और। इसे तो केवल माता ही जानती होगी। कई बार तो माताओं के लिए भी उस तथ्य को कहना और समझना कठिन होता है। सत्यकाम जावाल की माता अपने पुत्र को उसके असली पिता का नाम बताने में असमर्थ रही थी।

ऐतिहासिक खोजों एवं पुरातत्व शोधों के लिए अनेक विषय खाली पड़े हैं हम उन्हीं को हाथ में लेना चाहिए। मथुरा कृष्णकालीन है या नहीं, राम इसी अयोध्या में जन्मे थे। इन विषयों पर खोज-बीन की दृष्टि से किया गया परिश्रम परिणाम की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध नहीं होता।

ईसा मसीह को ही लें। कहा जाता है कि उनके धर्म के मानने वाले लगभग 230 करोड़ हैं। वे न तो केवल ईसाई धर्म की मान्यताओं पर विश्वास करते हैं। वह क्राइस्ट के पहाड़ धर्मोपदेशों और उनके क्रूस बोधन को भी सही मानते हैं। पर तार्किकों और शोधकर्ताओं इस पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।

विद्वान इतिहास वेत्ता ए. कैवर कैसर ने अपने शोध निष्कर्षों में ईसा को ऐतिहासिक नहीं काल्पनिक माना है। मैनवेस्टर विश्व-विद्यालय के जान पोले ने अपने ग्रन्थ “दि सैक्रेड मशरूम एण्ड दि क्रास” में लिखा है कि पुराने समय में एक गुप्त सम्प्रदाय का संकेत चिन्ह था ‘जीसस’ बहुत समय बाद उस सांकेतिक भाषा चिन्ह को ही मनुष्य मान लिया गया और उसका चरित्र गढ़ लिया गया।

जर्मन भाषा के प्रोफेसर जी. ए. वेल्स ने अपनी पुस्तक “दि हिस्टॉरिकल इवीडेन्स फॉर जीसस” में कहा है कि ईसा ऐतिहासिक पुरुष नहीं है। सेन्टपाल के ईसा सम्बन्धी विचारों का विस्तार किया पर उनने भी अपने लेखों में ईसा के माता-पिता, जन्मस्थान, मरण आदि के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा और न उनके चमत्कारों के सम्बन्ध में कुछ लिखा है। सिर्फ अपने कथन को स्वप्न में मिले आभास के आधार पर कहा गया बताया।

ईसाई धर्म गाथाओं में मार्क का गोस्पिल और मेथ्यू , ल्यूका, आदि के गाथा प्रकरणों को आपस में मिलाकर देखने में इतना तक पता नहीं चलता कि ईसा के जन्म की वास्तविक तिथि क्या है। उनके कथनों में भारी अन्तर है। उनकी वंश परम्परा के सम्बन्ध में भी अन्तर है। इसी प्रकार ईसा के अन्तिम भोज दिये जाने के समय में भी इतना अधिक अन्तर है कि कहा नहीं जा सकता कि वह कब हुआ था और हुआ भी था या नहीं।

इतिहासकार तैकिल्सु और क्लाडियस के ईसा सम्बन्धी उल्लेख में इतना अन्तर है कि उनके आधार पर किसी सही निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन है। यहूदी इतिहासकार क्रेस्तुतस का कथन उपरोक्त दोनों से भिन्न है।

विद्वान ए. फेवर कैसर ने अपनी पुस्तक “जीसस डाइड इन कश्मीर” में ऐसे घटनाक्रम का तारतम्य बिठाया है जिससे प्रतीत है कि ईसा का अधिकाँश जीवन भारत में बीता। वे तेरह वर्ष की उम्र में एक काफिले के साथ भारत आ गये और विभिन्न शिक्षा केन्द्रों में ब्रह्मविद्या तथा बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन करते रहे। इसके बाद के कुछ समय के लिए मरुत्सलेम गये। बाद में वे अपनी माता मेरी के साथ भारत लौटे और कश्मीर में उनकी मृत्यु हो गई। श्रीनगर क्षेत्र के रोजावेल स्थान में बनी एक कब्र को ईसा की कब्र बताया जाता है।

इन प्रतिपादनों को एक साथ मिलाकर पढ़ने पर प्रतीत होता है कि वे एक दूसरे को काटते हैं। इसलिए उनमें से किसी को भी प्रामाणिक नहीं माना जा सका।

यदि उस धर्म के मूल संस्थापक का व्यक्तित्व और कथन अप्रामाणिक ठहरता है तो उस मत का अवलम्बन करने वाले 200 करोड़ व्यक्तियों की श्रद्धा को भ्रान्त ठहराना पड़ेगा और उस समुदाय के धर्म श्रद्धा ने जो अनेकों उपयोगी कार्य जिस तत्परता के साथ किये हैं उनके आधार पर प्रश्न चिन्ह लगा।

यही बात अन्य धर्मों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। देवता, अवतार, ऋषि, धर्म संस्थापक, शास्त्रकार सभी इस सन्देह की चपेट में आते हैं। इससे तो वे विद्वान अधिक व्यवहारवादी प्रतीत होते हैं जो इन्हें प्रागैतिहासिक कहकर दलदल में फँसने से अपना हाथ खींच लेते हैं।

इतिहास के शोधकर्ता जिन आधारों को अपनाते हैं वे सही ही हैं, उनकी काट करने वाले दूसरे प्रमाण प्रस्तुत न किये जा सकें ऐसी बात भी नहीं है। जो सामने है जिसके सम्बन्ध में प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर कुछ कहा जा सकता है। इतनी बात दूसरी है पर जब से प्रामाणिक इतिहास का लेखन कार्य संकलन आरम्भ हुआ है। उससे बहुत पहले की वे पौराणिक गाथाएँ हैं जिन्हें धर्म धारणाओं का आधार माना जाता है। पुरातन इतिहास लेखकों को भी आज जैसी यातायात या अन्वेषण की सुविधा नहीं थी। इसलिए उन्होंने भी जहाँ-तहाँ से सुनकर ही उथली दृष्टि से लेखन कार्य किया होगा। उन्हें यह विदित कहाँ होगा कि भविष्य में उनके कथन पर इतनी बारीकी से विवेचन किया जायगा।

हमें धार्मिकता का स्पर्श करने वाले प्रतिपादनों को, मान्यताओं को ही उपयोगिता अनुपयोगिता की कसौटी पर कसना चाहिए। इसके साथ इतिहास को नहीं जोड़ना चाहिए।


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