अपरिग्रह का वास्तविक अर्थ

July 1983

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तीर्थांकुर भगवान महावीर उन दिनों राजगीर में अपना अपरिग्रह प्रवचन माला चलाते हुए चातुर्मास सम्पन्न कर रहे थे। उनके प्रभावी प्रतिपादन श्रोताओं के गले उतरते चले जा रहे थे। परिणाम स्वरूप चारों ओर सत्प्रवृत्ति विस्तार हेतु परमार्थ परायणता की भावना ही संव्याप्त थी। धनिकों और मध्यम वर्ग के अनेकों लोगों ने सत्प्रयोजनों हेतु अपनी सम्पदा दान कर दी। संचय और स्व की ही- सुख उपभोग मात्र की ही- विचारणा करने वाले उस समाज के लिए लिये यह एक असाधारण घटना थी। भगवान् का कहा हुआ हर वाक्य व्यवहार में उतरता चला जा रहा था।

उन दिनों भी कुछ ऐसा ही हुआ। जिनके पास धन था, उन्होंने सामान्य नागरिकों जैसा जीवनयापन कर शेष सत्प्रवृत्ति संवर्धन हेतु दान कर दिया। लोभजन्य अपराधों का तो समापन ही हो गया। बारी अब उनकी थी जिनके पास धन तो नहीं था, पर जन्मजात श्रम सम्पदा की तनिक भी कमी नहीं थी। उन्होंने श्रमदान भगवान के चरणों में अर्पित किया। शरीर यात्रा भर के लिए निजी उपार्जन करने के उपरान्त अपनी शेष समय श्रम-सम्पदा उन्होंने धर्मधारणा के व्यापक विस्तार हेतु नियोजित कर दी। इस श्रम-सम्पदा से प्रगति की अनेकानेक गतिविधियाँ चल पड़ीं।

प्रवचन माला जारी थी। नहीं आए थे तो मात्र एक ही धनाधिपति- राजगृही के सबसे समृद्ध गाथापति महाशतक। जन-सामान्य इसी ऊहापोह में था कि इस प्रवाह का क्या किंचित मात्र भी प्रभाव इस महाधनिक पर नहीं पड़ा। मानों उनके समाधान हेतु ही उस दिन एक किशोरी के संकल्प के रूप में तीर्थांकुर की प्रेरणा प्रस्फुटित हुई।

किशोरी मधूलिका के संकल्प लिया- “भगवान्! जब आयुष्य भी परिग्रह है, तो फिर लम्बी आयु तक जीकर मैं ही क्यों परिग्रह का पाप ओढूँ? मेरे पास और तो कुछ नहीं, मेरा आयुष्य दान स्वीकार कर लें। जीवन भर धर्म चेतना के प्रसार-विस्तार हेतु लगी रहूं- यही अभिलाषा है।”

जीवन दान के इस आत्म निवेदन को अर्हन्त ने स्वीकार किया। उसे महिला जागरण के कार्य को अहिर्निशि सम्पन्न करते रहने की साधना में प्राण-पण से जुटने को जब प्रभू ने कहा तो सारा राष्ट्र उस किशोरी के त्याग से झकझोर उठा। सामान्य गृहणियों का स्तर भी देवियों जैसा बनने लगा। मधूलिका के समर्पण से परिवारों में स्वर्गीय सुसंस्कारिता की हरीतिमा उगने- लहलहाने लगी।

महाशतक के घर आज वही आयुष्य दानी कुमारिका आयी था। उसके तेजस् ने धनपति के मन में सत्संग समागम तक पहुँचने के लिए उत्कंठा उत्पन्न कर दी। परिग्रह त्याग से ग्रहीता की तुलना में दानी अधिक लाभ में रहता है, यह उसने उपस्थित लोगों के परिवर्तित जीवन को देखकर प्रथम बार अनुभव किया। उसने भी अपना वैभव-कुबेर समान धनराशि श्रमण संघ हेतु समर्पित कर दी। नये बिहार बनने लगे। नये धर्म प्रचारकों के प्रवेश का अवरुद्ध द्वार खुला। शालीनता की बासन्ती सुरभि से वह सारा प्रदेश सुगन्धित हो उठा।

महाशतक की पत्नी स्वयं में बड़ी कृपण व कर्कश थी। वस्तुतः अभी तक उसी का प्रभाव उनकी उदारता में बाधक बनता रहा था। उसके असहयोग ने महाशतक के अपरिग्रह व्रत में कई व्यवधान डाले। एक दिन सामा से बाहर होने पर वह क्रुद्ध हो उठा। कटु वचनों के उपरान्त प्रताड़ना तक की नौबत आ गयी। दैवी संयोगवश उसी समय भगवाग उधर भिक्षाटन हेतु आ निकले। कलह का दृश्य देख दुःखी हो वे बोले- “महाशतक। अपरिग्रह का व्रत मत तोड़ो। तुम्हारे पास स्नेह सौजन्य और मधुर वचनों का भण्डार भरा पड़ा है। उसे क्यों रोकते हो? बाँटते क्यों नहीं। सौजन्य के प्रसाद से पत्नी को क्यों वंचित करते हो?” भगवान के इन शब्दों ने महाशतक की पत्नी पर जादू-सा असर डाला। अपरिग्रह की और भी परिमार्जित विवेचना सुन दोनों तीर्थांकुर के चरणों में गिर पड़े। भगवान अन्य सोयों को जगाने आगे चल दिए।


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