गंध शक्ति का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान

July 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य जितना भी कुछ इस जीवन में जानता-सीखता है, उसमें नेत्र और कान दोनों ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ज्ञानार्जन का 90 प्रतिशत भाग नेत्रों के हिस्से में आता है। इसी प्रकार कान भी वातावरण से अनुकूल प्रेरणाएँ ग्रहण कर मस्तिष्क पटल में ज्ञान-भण्डार संचित करते हैं। इन दो के अतिरिक्त नासिका भी एक महत्वपूर्ण इन्द्रिय है जिसका प्रायः मनुष्य उपयोग तो अधिक नहीं करता परन्तु घ्राणशक्ति के लिए उत्तरदायी ज्ञान तन्तु जितनी महत्वपूर्ण भूमिका उसके जीवन में निभाते हैं, उसकी उसे अधिक जानकारी नहीं है। वैज्ञानिकों की विकासवादी मान्यता के अनुसार भी यह धारणा बन गयी है घ्राणशक्ति मात्र पशु-पक्षी जगत के लिये जरूरी है।

पिछले दिनों “ऑस्फ्रेजियोलॉजी” नाम से एक नयी विधा विकसित हुई है। इसे घ्राण की तन्मात्रा का विज्ञान माना गया है जिसमें ज्ञान तन्तुओं द्वारा मस्तिष्क को उत्तेजन पहुँचाया जाता है। मनुष्य के अग्र व मध्य मस्तिष्क की केन्द्र स्थली “हिप्पोकेम्पस” कहलाती है। इसका सम्बन्ध नासिका के ऊपरी भाग स्थित एक छलनी नुमा हड्डी की प्लेट से गुजरने वाले स्नायु रज्जुओं के माध्यम से ज्ञान तन्तुओं से होता है जो सुगन्ध व दुर्गन्ध में अन्तर की जानकारी को मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं।

स्थूल दृष्टि से पशुओं में यह भाग अधिक विकसित होता है जबकि मनुष्यों में यह सिकुड़ा हुआ बना रहता है। फिर भी सूक्ष्म विश्लेषण की दृष्टि से मानव नासिका लगभग दस लाख से भी अधिक प्रकार की गन्धों को पकड़ने में समर्थ है। मनुष्य ईथर की गंध की सघनता को 603×10–5 ग्राम मॉलीक्यूल्स प्रति लीटर पकड़ सकता है। यह विशिष्टता अपने आप में अद्भुत है।

इसके अतिरिक्त जीवन को स्थायित्व देने वाला अमृत तत्व श्वास द्वारा ही प्राप्त होता है। प्राणवायु को ग्रहण करने, फेफड़ों तक पहुँचाने तथा जीवन धारण किये रहने का कार्य नासिका ही सम्पन्न करती है। श्वास चलना बन्द होते ही मृत्यु सामने आ खड़ी होती है और जीवन नाटिका का यवनिकापात हो जाता है। यह तो नासिका द्वारा सम्पन्न की जाने वाली श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया से सम्बन्धित बात हुई। ज्ञानेन्द्रियों के रूप में नासिका गन्ध शक्ति ग्रहण करने वाली इन्द्रिय है, और यह एक आश्चर्य की बात है कि छोटे कृमि कीटकों से लेकर पशु वर्ग के जीवधारियों तक में कई का जीवन प्रवाह गन्ध शक्ति पर ही निर्भर होता है। नेत्र और कान की अपेक्षा वे अपनी गन्ध शक्ति पर ही ज्यादा निर्भर करते हैं।

मनुष्य के लिए भी घ्राण शक्ति का कम महत्व नहीं है। यदि इस शक्ति को विकसित किया जा सके तो न केवल शारीरिक और मानसिक शक्ति का विकास किया जा सकता है, वरन् प्रचुर मात्रा में आत्मबल अर्जित किया जा सकता है। योग साधना में स्वर विधा को इतना अधिक महत्व इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए दिया गया है। प्राणायाम अभ्यास द्वारा मनुष्य भी अपनी दिव्य घ्राण शक्ति को विकसित करके अतीन्द्रिय क्षमताओं के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ सकता है।

मनुष्य भले ही अपनी दैनिक क्रिया-कलापों में घ्राण शक्ति का उपयोग सुगन्ध और दुर्गन्ध लेने के लिए ही करता हो किन्तु कई प्राणी इसके सहारे अपना जीवन व्यापार चलाते हैं, आवश्यकता देखकर प्रकृति ने उन्हें यह शक्ति सम्पदा मुक्तहस्त से बाँटी भी है। उदाहरणों के लिए कुत्ते को ही लिया जाय वह केवल सूंघकर ही अपने शत्रु या मित्र की पहचान कर लेता है। कौन व्यक्ति मालिक के घर में चोरी के इरादे से घुस रहा है और कौन यहाँ का पूर्ण परिचित है, पहले से ही आता जाता है, इन बातों का विश्लेषण कुत्ता घ्राण शक्ति के द्वारा ही करता है।

घ्राण शक्ति के विकास की दृष्टि से कुत्ता सम्भवतः अन्य सभी प्राणियों से बाजी मार ले जाता है। यही कारण है कि अपराधी द्वारा अपराध स्थल पर कोई चिह्न न छोड़े जाने के बावजूद भी वह उस स्थान पर फैल गई गन्ध के आधार पर ही मीलों दूर पहुँच गये या हजारों लोगों की भीड़ में खड़े अपराधी को भी पहचान लेता है।

सुरक्षा अभियानों में जहाँ मनुष्य जासूस किसी वस्तु की गन्ध तक नहीं ले पाए, कुत्तों ने भारी मात्रा में शास्त्रास्त्र बरामद कराए। एक बार इसी तरह ‘जे’ नामक एक जासूस कुत्ता शस्त्रों का पता लगाने के लिए एक फार्म की तलाशी ले रहा था। उसके साथ काम कर रहे अन्य लोगों ने फार्म का चप्पा-चप्पा छान मारा परन्तु कहीं कुछ पता नहीं चला। जे अचानक एक पेड़ के पास रुका और वहाँ डटा रहा। पुलिस ने पेड़ के ऊपर चढ़कर देखा तो वहाँ पिस्तौलों का एक बक्सा मिला।

कुत्ते तो अपनी अद्वितीय गन्ध शक्ति के लिए विख्यात हैं ही, अन्य प्राणियों में भी अद्भुत घ्राण शक्ति होती है। चींटियां किसी फर्श या दीवार पर कतारबद्ध होकर चलती है। किसी कारणवश कोई चींटी पिछड़ जाती है या अपने दल से भटक कर किसी दूसरे वर्ग में मिल जाती है तो वे सूंघकर ही पता लगाती है कि सही रास्ता कौन-सा है या अपना दल कहाँ है?

मकरन्द पीकर मधुमक्खियाँ जब वापस अपने छत्ते पर पहुँचती हैं और उसी स्थान पर और दूसरे छत्ते लगे हों तो भी उन्हें अपना छत्ता पहचानने में कोई दिक्कत नहीं होती। मक्खियों की शक्ल सूरत तो एक सी होती है। फिर यह पहचान कैसे होती है कि किसका घर कहाँ है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए जीव विज्ञानी बताते हैं कि गन्ध ही उनकी पहचान का प्रमुख आधार होता है। हर छत्ते की अपनी एक स्वतन्त्र गन्ध होती है। रानी मधुमक्खी की लार ग्रन्थियों से एक गंधयुक्त स्राव निकलता है। इस गन्ध को सभी मधुमक्खियाँ पहचानती हैं और उसी के आधार पर वे अपने छत्ते को पहचान लेती हैं।

मधुमक्खियों की तरह दीमकों के छत्ते में भी एक रानी दीमक होती है और शेष बाँदिया। रानी दीमक जब अण्डे देती है तो उन अण्डों को पालना और रानी के लिए भोजन की व्यवस्था करना बाँदियों का काम होता है। रूप और आकार में रानी भी अन्य दीमकों के समान ही होती है। उसके शरीर में केवल एक विशेष प्रकार की गन्ध निकलती है। उस गन्ध के आधार पर ही दीमकें रानी को पहचानती हैं और उसे विशेष सम्मान तथा विशेष सुविधाएँ प्रदान करती हैं।

और तो और मधु मक्खियों तथा दीमकों में रानियों की प्रजनन क्षमता भी उनके भीतर विद्यमान विशिष्ट गन्ध उत्पादन की क्षमता से ही उत्पन्न होती है। प्रो. फार्लवान फ्रिश ने इस रस का पता लगाते हुए इसे रानी रस (क्वनी सब्सटैन्स) कहा है। इसका विश्लेषण करने पर पाया गया कि रानी रस में ट्रांस डिसेनोइक एसिड और लियोनीन की प्रधानता होती है, जिनसे एक मादक गन्ध उत्पन्न होती है। यह गन्ध रानी की अपनी विशिष्ट पहचान तो बनाती ही है, उसमें निरन्तर अण्डे उत्पन्न करते रहने की स्थिति भी पैदा करती है। इस गन्ध की मोहक तीव्रता ही बाँदी मक्खियों में प्रणय संवेदना उत्पन्न करती है।

छोटे जीवों का क्रिया व्यापार अधिकाँशतः उनकी घ्राण शक्ति के सहारे ही चलता है। जर्मनी की साइकोफिजियोलाजी प्रयोगशाला, जो स्ट्रासबर्ग में स्थित है के निर्देशक डा. फिलिप कोपार्टस ने दीर्घकाल के प्रयोगों और अध्ययनों के बाद इस निष्कर्ष को प्रतिपादित करते हुए कहा है कि इन प्राणियों की चेतना आँखों की अपेक्षा नासिका के माध्यम से अधिक ज्ञान संवर्धन करती है तथा उसी के सहारे अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करती हैं। वे गन्ध के आधार पर एक दूसरे की शारीरिक और मानसिक स्थिति का परिचयात्मक आदान-प्रदान करती है।

केवल ये छोटे-छोटे कीट पतंग ही नहीं अन्य प्राणी भी गंध शक्ति के आधार पर अपने कई प्रयोजन सिद्ध करते हैं। उदाहरण के लिए लोबो जाति के भेड़िये यह जानते हैं कि शिकारी कुत्ते गन्ध के आधार पर ही उनका पीछा करते हैं। इसलिए जब कभी शिकारी कुत्तों से उनका पाला पड़ जाता है वे अपने भागने का रास्ता इस प्रकार उलटा सीधा करते हैं कि कुत्ते भूल-भुलैया में फँस जाते हैं और उन्हें रास्ता पहचानने में इतनी देर हो जाती है कि लोबो भेड़िये आसानी से बचकर भाग निकलते हैं।

राल बैरोजा की लकड़ी जलाकर जहाँ उसका कोयला तैयार किया जाता है वहाँ की गन्ध में भेड़िये की गन्ध खो जाती है। लोबो भेड़िये इस तथ्य को जानते हैं और जब कभी शिकारी कुत्ते उनके पीछे पड़ते हैं और ऐसा स्थान कहीं आस-पास ही हुआ तो वे भूल-भुलैया रचाने के स्थान पर उन्हीं स्थानों में दौड़े जाते हैं। तब वे अपने आपको अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित अनुभव करते हैं और कई बार ऐसी स्थिति में कुत्तों पर ही आक्रमण कर देते हैं।

चूहे भी गन्ध के आधार पर बिल का रास्ता ढूँढ़ता है, मित्र और शत्रु को पहचानता है तथा कौन-सी वस्तु खाद्य है और कौन-सी अखाद्य इसका विश्लेषण करता है। प्रयोगशाला में चूहों की घ्राणेंद्रियां शल्य क्रिया द्वारा निकाल दी गईं तो देखा गया कि वे एक प्रकार से विक्षिप्त जैसे होते चले गये। उनके लिए अपने पराये का अन्तर कर पाना भी असम्भव सा हो गया।

कैनबरा के कामनवेल्थ एण्ड इण्डस्ट्रियल रिसर्च आर्गनाइजेशन की एनाटोपिज शाखा के वैज्ञानिकों ने कुछ कृमि-कीटकों के शरीर से निकलने वाले रसों का विश्लेषण कर यह पता लगाया है कि उनकी अधिकाँश हलचलें इन द्रवों के गन्ध के आधार पर ही चलती हैं। विशेषतः प्रजनन कार्य तो इन्हीं गन्धों पर आधारित होता है। फ्राँस के कीट विज्ञानी ई. ओ. विल्सन तथा प्रो. हैनरी फ्रावे भी अपने परीक्षण प्रयोगों से इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि कृमि कीटकों के बीच संवाद और सन्देशों का संचार उनके शरीरों से समय-समय पर उठने वाले विभिन्न रसायनों की गन्ध पर ही निर्भर रहता है।

प्रकृति ने अपनी सभी सन्ततियों के लिए गन्ध शक्ति को आदान-प्रदान और ज्ञान सम्वेदना के अनुभव का प्रमुख आधार बनाकर प्रस्तुत किया है। उसका अपना महत्त्व है। कीट वर्ग पर तो उसी का अधिकार है पशुओं को भी इससे बड़ी सहायता मिलती है। इस प्रकार सृष्टि के अधिकांश प्राणी गन्ध शक्ति का उपयोग अपनी जीवन यात्रा को सफलतापूर्वक पूरी करने में करते हैं।

ऐसी बात नहीं है कि मनुष्य के लिए प्रकृति ने कोई पक्षपात बरता है। सही बात तो यह है कि मनुष्य ने ही अपनी घ्राण शक्ति की उपेक्षा कर उसे निर्बल बना दिया है। उससे इतना लाभ वह नहीं उठा पाता जितना कि उठाया जा सकता है। यों धूप, दीप, पुष्प, चन्दन का देवपूजा में और प्राणायाम विभिन्न प्रयोगों द्वारा उस शक्ति का प्राण शक्ति को विकसित करने के लिए भी अभ्यास किया जा सकता है, हम उसका वह महत्व जानते हैं। प्राचीन काल में योग साधना द्वारा गन्ध शक्ति का विभिन्न प्रयोजनों के लिए उपयोग करने हेतु जो उपयोग होता था, उसे पुनर्जीवित कर निष्क्रिय समझे जानी वाली इस सामर्थ्य से भी अतीन्द्रिय शक्तियों को जगाया जा सकना सम्भव है। घ्राण एवं प्राण दोनों ही कैसे सुनियोजित किये जायँ, योगविज्ञान इसका सही मार्गदर्शन भी देता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118