मानसिक परिष्कार और सुखी समुन्नत जीवन

July 1983

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साथियों के साथ अपने आदान-प्रदान, सहयोग समर्थन पर भी प्रसन्नता एवं प्रगति का बहुत कुछ आधार निर्भर रहता है। उस क्षेत्र की प्रतिकूलताओं के लिए आमतौर से दूसरों को दोष दिया जाता है किन्तु गम्भीरता पूर्वक खोजने से प्रतीत होता है कि अपनी ही कुरूपता दर्पण में भयावह होकर प्रतिबिम्बित हो रही है।

इस तथ्य को सिद्ध करने वाले अगणित प्रमाण उदाहरण यह बताते हैं कि सुखी और समुन्नत जीवनयापन के लिए मनःसंस्थान का परिष्कृत होना आवश्यक है। यह कार्य उतना कठिन नहीं जितना कि समझा जाता है। आत्मनिरीक्षण और सुधार परिवर्तन का क्रम चलता रहे तो हर कोई अपने चिन्तन को सुनियोजित एवं प्रभावोत्पादक बना सकता है।

इसके अतिरिक्त ऐसे वैज्ञानिक आध्यात्मिक उपाय उपचार भी हैं जो अपने-अपने ढंग से मानसिक क्षमता को सुविकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं। हमें दोनों ही क्षेत्रों के सफल प्रयोगों को गम्भीरता पूर्वक समझना चाहिए और उन्हें अपनाने के लिए दुराग्रह त्याग कर उत्साहपूर्वक तत्पर रहना चाहिए।

व्यक्तित्व का साथियों पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है इसके कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं। पार्मा इटली के पाइट्रो जुक्क्री ने अपने बालकों को धर्म सेवी बनाने के लिए आरम्भ से ही प्रयत्न किया। उसकी 7 सन्तानें थी। इनमें से 1 ईसाई पादरी, 3 बौद्ध भिक्षु और 3 धर्मोपदेशिका का काम करने लगे। सभी आजीवन ब्रह्मचारी रहे और धर्म सेवा में संलग्न रहे। यह उनके पिता की श्रद्धा और लगन और चेष्टा की ही परिणति थी। विनोबा की माँ मदालसा ने जिस तरह अपनी-अपनी सन्तानों को गढ़ा, उसका आधुनिक संस्करण इसे माना जा सकता है।

फ्रांस के फ्रेन्कीइस फाडक्वेट ने सन्तानें तो कई जनीं पर साथ ही उसने यह भी निश्चय रखा कि उसके सभी बालक धर्म परायण जीवन जियेंगे। इसी के लिए उसने आरम्भ से अन्त तक प्रयत्न किया। फलतः 2 विशप (बड़े पादरी) 1 प्रोष्ट (छोटा पादरी) बने और छहों कन्याओं ने नन्स (भिक्षुणियों) की दीक्षा लेकर धर्म परायण जीवन जिया।

सेन्टपाल अलावर्टा की धर्म सेविका कोराइलजानी ने अपने संपर्क में आने वाले प्रत्येक को धर्म सेवक बनाने का आग्रह किया और सफल रही। वह 4 पादरियों की बहिन- 4 भिक्षुणियों की माता, 6 पादरियों की नानी और 3 पादरियों की दीदी बनकर संसार से विदा हुई।

हाइना- जर्मनी का एक कलाकार हैनरिच टिचवेन अपने परिवारियों तथा सम्बन्धियों को कलाकारिता का चस्का लगाता रहा। उन्हें सिखाने और सफल बनाने में भी उसने पूरी-पूरी रुचि ली। फलतः उनका निजी परिवार तो जर्मनी के इतिहास में कलाकारों की खदान के नाम से प्रख्यात हुआ ही। उसके पड़ौसी सम्बन्धी भी पीछे न रहे। हैनरिच 7 प्रख्यात चित्रकारों का पिता 16 कलाकारों का दादा और 34 कलाकारों का परदादा था।

वेस्लेस (फ्राँस) का विक्टर चाओ सीनेन्ड एक ऐसे परिवार में जन्मा, पला और जिसमें सभी धर्म परायण लोग थे। उसने अपनी सन्तानों को भी उसी ढाँचे में ढाला। वह 4 पादरियों का भाई- 3 पादरियों का भतीजा और 4 पादरियों का पिता था। लान पम्प सेन्ट वेल्स के एक परिवार में जन्में पाँचों सगे भाई सन्त बने। उनके नाम पर बना पाँच सन्तों का गिरजा अभी भी प्रख्यात है। उसी गिरजे की भूमि पर वे पाँचों भाई- सेन्ट ग्वाइन, सेन्ट सीथो, सेन्ट सेलाइमन, सेन्ट ग्वाइनो, सेन्ट ग्वाई नीरो की समाधि बनी है। ट्यूक्सवटी का प्रसिद्ध चिकित्सक बैजामिन किटुज अपने व्यवसाय के प्रति अत्यन्त निष्ठावान था। उसने अपनी प्रत्येक सन्तान को चिकित्सक बनाने का लक्ष्य रखा, वैसा ही उत्साह बढ़ाया और वातावरण बनाया।

अमेरिकी चित्रकार चार्ल्स पीले अपनी कला में इतना तन्मय एवं सफल था कि उसका समूचा परिवार भी उसी ढाँचे में ढल गया, वह उस देश के प्रख्यात आठ चित्रकारों का पिता तथा दादा था।

एडम मोल्ट (डेनमार्क) का फेडरिक 22 सन्तानों का पिता था। उसने हर सन्तान के प्रति अपना कर्त्तव्य निवाहा और उन्हें गुणवान, चरित्रवान, प्रतिभावान बनाने में कोई कसर न रहने दी, फलतः उसकी सन्तानों में से 4 राजदूत, 2 सेनाध्यक्ष, 5 राज्य मन्त्री, तथा 11 महापौर, राज्यपाल जैसे उच्च पदों पर आसीन हुए।

शरीर अपना है। उसकी सचेतन और अचेतन गतिविधियों पर नियन्त्रण रख सकने की क्षमता यदि उपलब्ध कर ली जाय तो आत्म नियन्त्रण के आधार पर अपनी समूची क्षमता को अभीष्ट प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जा सकता है। जबकि सामान्यतः 70 प्रतिशत चिन्तन और क्रिया कलाप व्यर्थ निरर्थक ही नहीं जाता, अनर्थ सँजोने में भी लगा रहता है। साधने से मन सध जाता है। मन सध जाने से शरीर में ऐसी एक भी असत्य व्यस्तता शेष नहीं रहती जो प्रकारान्तर से अनेकानेक कष्ट संकटों का निमित्त कारण बनी रहे।

कैपटाउन के एक इंजीनियर वानवान्डे के बारे में कहा जाता है कि समय उनकी इच्छा से चलता था। ज्ञात नहीं रहस्य क्या था। किन्तु वे सोने जा रहे हों और आप कहें महोदय आप आठ बजे सो रहे हैं, पर जागिये आप ठीक बारह बजकर सात मिनट उनसठ सेकेंड पर। आप घड़ी लेकर बैठ जाइये क्या मजाल कि उनकी नींद एक भी सेकेंड आगे-पीछे टूटे। परीक्षण के लिए उन्हें कई दिनों तक किसी से न तो मिलने ही दिया गया और न घड़ी ही पास रखने दी गई। एक टूटी घड़ी रख कर उसकी चाभी घुमाकर 8 बजे का समय लगा दिया गया और उन्हें प्रातःकाल आठ बजे सोने को कहा गया तथा सायंकाल 8 बजे जगने का आग्रह किया गया। और तब भी जब उनकी नींद टूटी तो लोग आश्चर्यचकित रह गए कि ठीक 8 ही बजे थे। इस बायोलॉजी के नियमों पर आधारित ‘सर्केडियन रिदम’ का चक्र भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसमें भी समय की ऐसी सुनिश्चितता देखने में नहीं आती।

प्रगति की दिशा में पुरुषार्थ मात्र परिश्रम एवं साधन संचय का भी नहीं समझना चाहिए। उसका एक कारगर उपाय अचेतन मन से सहारे शरीर की विभिन्न क्षमताओं को समृद्ध बनाना भी है। हमें इस क्षेत्र का भी महत्व समझना चाहिए कि समग्र उत्कर्ष के लिए इन सम्भावनाओं को समझने कार्यान्वित करने की ओर जुड़ना चाहिए।

मास्को के निकट दूबना नामक स्थान पर किए जा रहे एक अनोखे प्रयोग का समाचार नावोत्सी न्यूज एजेन्सी ने “सोते समय अंग्रेजी पढ़ाने का प्रशिक्षण” शीर्षक से छापा है। आमतौर से जागृत अवस्था में पढ़ने वाले शिक्षार्थियों को पाठ याद न होने की शिकायत बनी रहती है। किन्तु इस प्रयोग में सोते-सोते ही 40 दिन में अंग्रेजी सिखाने का दावा किया गया है। इस परीक्षण में शिक्षार्थी को पहले गहरी नींद में सोने दिया जाता है। फिर उसके निकट भाषा-शिक्षण का टेप चालू कर दिया जाता है। अब तक किए गए इस प्रकार के प्रयोग बहुत सफल हुए हैं। स्वप्नावस्था में स्मृति संचय की यह एक बेमिसाल घटना है।

विश्व प्रसिद्ध अमेरिकी डा. पेनफील्ड ने मस्तिष्क के अग्रभाग में लगभग ढाई वर्ग इंच और 1/10 इंच मोटे एक ऐसे क्षेत्र का पता लगाया था, जहाँ दो काली पट्टियाँ हैं- जिन्हें टेम्पोरल कारटेक्स कहा जाता है। ये कनपटी के नीचे मस्तिष्क को चारों ओर छल्लानुमा घेरे हुए हैं। यही वे पट्टियाँ हैं जहाँ मानसिक विद्युत का प्रवेश होते ही अच्छी-बुरी स्मृतियाँ उभरती हैं। इसी में स्मृतियों के भण्डार भरे पड़े हैं। यदि इनमें विद्युत आवेश प्रवाहित किया जाये तो इतनी-सी पट्टी ही उस व्यक्ति के ज्ञात अज्ञात सारे रहस्यों को उगल सकती है। जिसे भयवश, लोक-लाज अथवा संकोचवश मनुष्य व्यक्त नहीं कर पाता। जो जन्म जन्मान्तरों से संस्कार रूप में मनुष्य के साथ संचित बने रहते हैं।

वैज्ञानिकों का कथन है कि मस्तिष्क की ये पट्टियाँ किसी केन्द्रक तत्व (न्यूक्लिक एलीमेन्ट) से बनी हैं। जब इनमें लहरें उठती हैं तो इनसे प्रभावित नलिका विहीन नसों (डक्टलेस ग्लैण्डस्) से एक प्रकार के हारमोन्स निकलते हैं। जो क्रोध, घृणा, काम-वासना, भय, ईर्ष्या, द्वेष, प्रेम, दया, करुणा, उदारता, सहिष्णुता आदि भावों के जनक कहे जाते हैं। हारमोन्स के कारण ही मनुष्य स्वस्थ या रोगी बनता है, यदि अच्छे गुण होते हैं तो अच्छे हारमोन्स और बुरे गुण तो बुरे हारमोन्स के द्योतक हैं। अच्छे हारमोन्स का सीक्रिशन स्निग्धता, हल्कापन, प्रसन्नता, प्रफुल्लता, अच्छे विचार उत्पन्न करता है। बुरे हारमोन्स ठीक इसके विपरीत प्रभाव दिखाते हैं।

उदाहरण के लिए डा. पेनफील्ड ने एक व्यक्ति की इस काली पट्टी में विद्युत प्रवाहित की तो वह एक गीत गुनगुनाने लगा जो न तो वह अमेरिकन था न जर्मनी, उपस्थित कोई भी व्यक्ति उसे समझ न सका उस गीत को टेप कर लिया गया और भाषा शास्त्रियों की मदद ली गई तो पता चला कि वह भाषा किसी आदिवासी क्षेत्र की थी और वह गाना सचमुच ही उस क्षेत्र के लोग गाया करते हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में इन प्रयोगों को अधिक उत्साह के साथ अपनाने की बात सोची जा रही है। इसमें कम समय में कम परिश्रम में- अधिक मात्रा में उच्चस्तरीय लाभ प्राप्त करने की सम्भावना नये रूप से सामने आती जा रही है

मनोविज्ञान ने अब यह सिद्ध कर दिया है कि भावनाओं द्वारा कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। साथ ही मस्तिष्क के ठीक ढंग से प्रशिक्षण एवं विचारणा और भावनाओं के नियन्त्रण द्वारा शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य लाभ भी प्राप्त किया जा सकता है।

विगत कुछ वर्षों में हुई स्नायु विज्ञान सम्बन्धी खोजों से विदित हुआ है कि भावनाएँ मानवीय मस्तिष्क को अनेक प्रकार से प्रभावित करती हैं। इनसे मस्तिष्क में विष तुल्य एवं जीवनरस जैसे दोनों ही प्रकार के रसायन उत्पन्न होते हैं। इसके आधार पर अब ऐसे प्रयास भी किये जा रहे हैं कि भावनाओं और रसायनों का सम्बन्ध खोजकर, विशिष्ट रसायन को मस्तिष्क के अमुक आय में पहुँचाकर मनोरोगों, दर्द, आदि की चिकित्सा की जा सके और मस्तिष्कीय क्षमता की प्रखर बनाया जा सके।

यह अब पता लगाया जा चुका है कि एक स्वस्थ और सुविकसित मस्तिष्क में प्रायः एक करोड़ ग्रन्थों में लिखी जा सकने जितनी सामग्री संग्रह करके रखी जा सकती है। आवश्यकता पड़ने पर इस क्षमता में सहज ही दूनी अभिवृद्धि भी की जा सकती है। किसी कारणवश आधा मस्तिष्क नष्ट हो जाए तो शेष आधे से भी पूरे का काम चल सकता है।

फ्रांसीसी वैज्ञानिक देल्गादो के अनुसार मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों को बिजली का झटका देकर आदतों एवं अभ्यासों को बदला जा सकता है और स्मृति केन्द्रों की क्षमता को जागृत किया जाना शक्य है।

मैकगिल विश्व विद्यालय माण्ट्रियल (कनाडा) के डा. विल्डर पेनफील्ड ने दृश्य ध्वनि और विचार का सम्बन्ध स्थापित करते हुए यह सम्भावना व्यक्त की है कि लोगों के मस्तिष्कों को इच्छानुसार चिन्तन करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है।

कैलीफोर्निया इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के डा. रोगरस्पेरी ने चिरसंचित आदतों को भुला देने और अनायास ही नये अभ्यास के आदी बना देने में सफलता प्राप्त की है।

मस्तिष्क के लिए उपयोग रासायनिक पदार्थ उपलब्ध करने के लिए आहार में आवश्यकता के अनुरूप परिवर्तन किया जाय। इस प्रयोजन को साधने में समर्थ दिव्यौषधियों का प्रयोग किया जाय। जैसा कि इन दिनों शान्ति कुँज की ‘कल्प साधना’ प्रक्रिया में समाविष्ट किया जाता है।

दिव्य ऊर्जा को मस्तिष्क तक पहुँचाने के लिए प्राणवान व्यक्तित्वों के सान्निध्य एवं अनुदान का सुयोग बिठाना चाहिए। आवश्यक नहीं कि इसके लिए इलेक्ट्रोड ही प्रयुक्त करने पड़ें या बिजली के झटके लगाने पड़ें। यह कार्य कोई प्राण प्रत्यावर्तन का अभ्यासी आध्यात्मिक क्षेत्र का प्रयोक्ता भी अपनी सामर्थ्य का एक अंश देकर कर सकता हूँ।


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