सेवा योग की साधना की (kahani)

July 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

एक सन्त ने सेवा योग की साधना की थी। वे रात में राम नाम जपते, दिन में पीड़ितों की सेवा पतितों की सहायता करने में लगे रहते।

मरने का समय आया। भगवान के लोक में पहुँचे, उन्हें स्वर्ग मिला।

विलास की जिन्दगी जीते-जीते वे ऊब गये। सेवा के बिना उन्हें चैन ही नहीं पड़ता था, सो उनने भगवान से प्रार्थना की- यहाँ मेरा दम घुटता है, मुझे दुःखियों के बीच भिजवा दीजिये। भगवान ने उनकी इच्छा पूरी की। वे फिर दुःखी लोगों के बीच प्रकट हुए और पहले की तरह सेवा कार्य करने लगे।

परिचितों ने पूछा- ‘भला आप तो स्वर्ग चले गये थे। आपको तो पुण्य फल देने के लिये स्वर्ग मिला था, फिर वापस कैसे आ गये?’

सन्त ने कहा- ‘पुण्य का फल नहीं पाप का दण्ड भुगतने वहाँ गया था। सेवा धर्म में प्रगाढ़ निष्ठा होती तो पहले दिन ही स्वर्ग को अस्वीकार कर देता। यही था मेरा पाप उसका दण्ड विलास व्यसन में घुटन सहकर लौटा हूँ।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles