गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान

July 1983

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किसी भी कार्य को उपयुक्त विधि-विधान के साथ किया जाय, तो यह उत्तम ही है। इसमें शोभा भी है, सफलता की सम्भावनाएँ भी हैं। चूक से यदि अपेक्षित लाभ नहीं मिलता तो किसी प्रकार के विपरीत प्रतिफल की या उल्टा- अशुभ होने की कोई आशंका नहीं है। पूजा-उपासना कृत्यों पर, विशेषकर गायत्री उपासना पर भी यह बात लागू होती है। भगवान सदैव सत्कर्मों का सत्परिणाम देने वाली सन्तुलित विधि-व्यवस्था को ही कहा जाता रहा है। दुष्परिणाम तो दुष्कृतों के निकलते हैं। यदि उपासना में भी चिन्तन और कृत्य को भ्रष्ट और बाह्योपचार को प्रधानता दी जाती रही तो प्रतिफल उस चिन्तन की दुष्टता के ही मिलेंगे। उन्हें बाह्योपचारों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। इन्हीं उपचारों में मुँह से जप लेना, जल्दी-जल्दी या उँघते-उँघते माला घुमा लेना, किसी तरह संख्या पूरी कर लेना, मात्र कृत्य तक ही सीमित रहना भी आता है। इतना अन्तर तो सभी को समझना चाहिए और तथ्यों को भली-भाँति हृदयंगम करना चाहिए। उपासना यदि लाभ न दे तो नुकसान भी कभी नहीं पहुँचाती।

गीता में भगवान ने कहा है-

“नेहाभिक्रम नाशोस्ति प्रत्ययवयो न विद्यते। स्वल्प मप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो मयात्।” (40, अध्याय 2 गीता)

अर्थात्- “इस मार्ग (भक्ति उपासना) पर कदम बढ़ाने वाले का भी पथ अवरुद्ध नहीं होता। उल्टा परिणाम भी नहीं निकलता। थोड़ा-सा प्रयत्न करने पर भी भय से त्राण ही मिलता है।”

वस्तुतः गायत्री के तीन पक्ष हैं। एक उपासनात्मक कर्मकाण्ड। दूसरा- धर्मधारणा का अनुशासन। तीसरा उत्कृष्टता का पक्षधर तत्व दर्शन। इन तीनों ही क्षेत्रों का अपना-अपना महत्व है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों से शरीर और मनःक्षेत्र में सन्निहित दिव्य शक्तियों को उभारा जाता है। इस मन्त्र में सार्वभौम धर्म के सभी तथ्य विद्यमान हैं। इसे संसार का सबसे छोटा किन्तु समग्र धर्मशास्त्र कहा जा सकता है। गायत्री के शब्दों और अक्षरों में वे संकेत भरे पड़े हैं जो दृष्टिकोण और व्यवहार में उदार शालीनता का समावेश कर सकें।

इस मन्त्र समुच्चय के साथ जुड़े हुए अक्षरों में से प्रत्येक में अति महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश है। बीज में समूचे वृक्ष की सत्ता एवं सम्भावना सन्निहित रहती है। शुक्राणु में पैतृक विशेषताओं समेत एक समूचे मनुष्य की सत्ता का अस्तित्व समाया होता है। माइक्रो फिल्म के एक छोटे से फीते में विशालकाय ग्रन्थ की झाँकी देखी जा सकती है। ठीक इसी प्रकार गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों में ज्ञान और विज्ञान की दोनों धाराओं का समान रूप से समावेश है। अध्यात्म दर्शन की शाखा- प्रशाखाओं में बँटा समूचा विज्ञान इन अक्षरों में पढ़ा जा सकता है। यदि इस समग्र तत्वदर्शन को ध्यान में रखते हुए उपासना की जाती है तो चिन्तन और कर्म में स्वभावतः श्रेष्ठता का समावेश होना ही चाहिए। यदि मन्त्र जाप के पूर्व ही उसे ‘इफ’ और ‘बट’ की आशंकाओं के जाल में उलझा दिया गया तो सारा प्रयोजन ही गड़बड़ा जाता है।

विज्ञान की समस्त उपलब्धियाँ स्तुत्य हैं, पर यदि किसी एक बात ने वस्तुस्थिति को असमंजस में डाला है तो वह है “कुतर्क”। तर्क को तो वस्तुतः ऋषि माना गया है एवं तथ्यों, प्रमाणों के साथ उसकी आर्ष ग्रन्थों में अभ्यर्थना की गयी है। तर्क सम्मत प्रतिपादनों के साथ श्रद्धा का समुचित समावेश होने पर जब मनोयोगपूर्वक कोई कार्य किया जाता है तो आत्मिक प्रगति सुनिश्चित है। लेकिन असमंजस ग्रस्त मनःस्थिति में किया गया पुरुषार्थ तो किसी भी क्षेत्र प्रगति नहीं दिखा सकता। सम्भवतः जनसाधारण की इसी कठिनाई को ध्यान में रखते हुए तत्वदर्शी मनीषियों ने यह निर्देश किया था कि उपासना विधान के सम्बन्ध में एक विज्ञ मार्गदर्शक अवश्य होना चाहिए। अनुभव ज्ञान रहित मार्गदर्शक के स्थान पर आप्त निष्कर्षों के आधार पर निर्धारित अनुशासनों को ग्रहण कर लेना अधिक श्रेयस्कर है। मार्गदर्शक की खोज-बीन में जल्दी भी न की जाय और स्वयं का समुचित समाधान पहले कर लिया जाय, यही उचित है। हिन्दू धर्म में की गयी खींचतान और मध्यकालीन मनमानियों ने परस्पर विरोधी मतभेदों को अधिक जन्म दिया है। इन सबको सुन, समझकर उचित-अनुचित के चयन की बात यदि सोची जाएगी तो शंकाएँ इतनी अधिक होंगी कि उसका समाधान तो दूर, स्वयं को भ्रम जंजाल से निकालना भी भारी पड़ जाएगा। ऐसी स्थिति में विवेक यही कहता है कि किसी प्रकार का कोई दुराग्रह न रखकर श्रेष्ठता को स्वीकारा जाय और श्रद्धा को मान्यता देते हुए मनःस्थिति साफ रखी जाय।

गायत्री के बारे में एक चर्चा जो की जानी है- वह यह कि इसकी कृपा से- अर्चा- आराधना से स्वर्ग और मुक्ति मिलती है। शंकालु इस विषय पर काफी ऊहापोह करते देखे गए हैं। वस्तुतः स्वर्ग कोई स्थान विशेष नहीं है। न ही कोई ऐसा ग्रह-नक्षत्र है जहाँ स्वर्ग के नाम पर अलंकारिक रूप में वर्णित अनेकानेक प्रसंग बताए जाते रहे हैं। वस्तुतः इस सम्बन्ध में ऋषि चिन्तन सर्वथा भिन्न है। परिष्कृत दृष्टिकोण को ही स्वर्ग कहते हैं। चिन्तन में उदात्तता का समावेश होने पर सर्वत्र स्नेह, सौंदर्य, सहयोग और सद्भाव ही दृष्टिगोचर होता है। सुखद- दूसरों को ऊँचा उठाने- श्रेष्ठ देखने की ही कल्पनाएँ मन में उठती हैं। उज्ज्वल भविष्य का चिन्तन चलता तथा उपक्रम बनता है। इस उदात्त दृष्टिकोण का नाम स्वर्ग है। स्नेह, सहयोग और सन्तोष का उदय होते ही स्वर्ग दिखाई पड़ने लगता है।

नरक ध्वंस, द्वेष एवं पतन को कहते हैं। ये जहाँ कहीं भी रहेंगे, वहीं व्यक्ति अस्वस्थ, विक्षुब्ध रहेंगे और कुकृत्य करते रहेंगे। सर्वत्र नरक के रूप में अलंकारिक वर्णित भयावहता और कुरूपता ही दृष्टिगोचर होगी, फलतः संपर्क क्षेत्र विरोधी एवं वातावरण प्रतिकूल होता जाता है। यही नरक है और उससे उबर पाना स्वर्ग है। मुक्ति कहते हैं- भव बन्धनों से छुटकारा पाने को, इसी लोक में रहते हुए। भव बन्धन तीन हैं, जो मनुष्य को सतत् अपनी पकड़ में कसने का प्रयास करते रहते हैं। लालच, व्यामोह और अहंकार। लोभ, मोह और अहंता नाम से प्रख्यात इन तीन असुरों से जो जूझ लेता है, उनके रज्जु जंजाल से मुक्त होने का प्रयास करता है, वही जीवनमुक्त है जो पूर्ण मुक्ति की दिशा में गतिशील है। ये तीनों ही मनुष्य को क्षुद्र और दुष्ट प्रयोजनों में निरत रखते हैं और इतनी लिप्सा भड़काते हैं जिससे पुण्य परमार्थ के लिए समय निकाल सकना- साधन लगा सकना सम्भव ही न हो सके। अर्थ का सर्वथा सदैव अभाव लगता रहे और उसकी पूर्ति में इतनी व्यस्तता-व्यग्रता रहे कि सत्प्रयोजनों को करना तो दूर, वैसा सोचने तक का अवसर न मिले।

तीनों ही नितान्त अनावश्यक होते हुए भी अत्यधिक आकर्षक लगते हैं। इस भ्रान्ति एवं विकृति से छुटकारा पाने को ही मुक्ति कहते हैं। महाप्रज्ञा के आलोक में ही इन निविड़ भव बन्धनों से छुटकारा मिलता है। व्यक्ति स्वतन्त्र चिन्तन अपनाता, अपने निर्धारण आप करता है। प्रचलनों एवं परामर्शों से प्रभावित न होकर श्रेय पथ पर एकाकी चल पड़ता है। विवेक अवलम्बन जन्य इस स्थिति को ही मुक्ति कहते हैं, जो महाप्रज्ञा गायत्री का तत्वदर्शन समझकर उनके आश्रय में जाने वाले सच्चे साधक को अवश्य ही मिलती है।

स्वर्ग-नरक की चर्चा के बाद एक प्रसंग संकट मुक्ति का है, जिसके बारे में शंकाएँ उठाई जाती रही हैं कि यह कहाँ तक सही है। क्या जप करने से संकट समीप नहीं आते? इसे भी तत्व दर्शन के परिप्रेक्ष्य में सभी इन्द्रियाँ जागृत रख समझना होगा। महाप्रज्ञा के स्वरूप को समझने तथा शिक्षा को हृदयंगम करने पर आत्मशोधन और आत्मपरिष्कार के दो कदम संकल्प पूर्वक उठने लगते हैं। फलतः कुसंस्कारों एवं अवाँछनीयता से छुटकारा मिलता है। साथ ही उस उन्मूलन से खाली हुए स्थान को गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता से भरने का काम भी द्रुतगति से चल पड़ता है। यह परिवर्तन जिस क्रम से अग्रसर होता है, उसी अनुपात से संकटों से भी छुटकारा मिलता चला जाता है।

संकट वस्तुतः स्वाभाविक नहीं, स्व उपार्जित है। असंयम से रुग्णता, असंतुलन से विग्रह, अपव्यय से दारिद्रय, असभ्यता से तिरस्कार, अस्त-व्यस्तता से विपन्नता के घटाटोप खड़े होते हैं। अपनी अवाँछनीयताएँ- कुसंस्कारिताएं ही दुर्गति को- सुखद परिस्थितियों को न्यौत बुलाती हैं। मनःस्थिति बदले तो परिस्थिति बदलने में देर न लगे। आकस्मिक अपवाद तो कभी-कभी ही खड़े होते हैं। आमतौर से दृष्टिकोण, स्वभाव एवं व्यवहार में घुसा अनगढ़पन ही विभिन्न स्तर के संकटों के लिये उत्तरदायी होता है। इस तथ्य को समझने वाले बाहरी संकटों का साहस और सूझ-बूझ द्वारा मुकाबला करते हैं। साथ ही यह भी देखते हैं कि अपनी किन त्रुटियों के कारण अवाँछनीयता के साथ घनिष्ठता जुड़ी और वैसा परिणाम निकला। अपने को बदलने के लिये तत्पर व्यक्ति प्रतिकूलताओं में बदलने में भी प्रायः सफल होते हैं। गायत्री उपासना के उपयुक्त निर्धारण एवं अवलम्बन से आत्मपरिष्कार– पराक्रम का लक्ष्य पूरा होता है। फलतः संकटों के निवारण में भी संदेह नहीं रह जाता। गायत्री लाठी लेकर संकटों को मार भगाये और श्रद्धालु आँखें मूँदकर उस तमाशे को देखें, ऐसा नहीं होता।

इसी प्रकार एक शंका और प्रश्न के रूप में कुरेदी-उभारी जाती रही है- गायत्री की कृपा से सम्पन्नता और सफलता कैसे मिलती है? वस्तुतः इस प्रश्न में एक और कड़ी जुड़नी चाहिये- मध्यवर्ती कर्तव्य और परिवर्तन की। स्कूल में प्रवेश करने और ऊंचे अफसर बनने, डाक्टर की पदवी पाने में आरम्भ और अन्त की चर्चा मात्र है। इसके बीच मध्यान्तर भी है जिसमें मनोयोग पूर्वक लम्बे समय तक नियमित रूप से पढ़ना पुस्तकों की- फीस की, व्यवस्था करना आदि अनेकों बातें शामिल है। इस मध्यान्तर को विस्मृत कर दिया जाये और मात्र प्रवेश एवं पद दो ही बातें याद रहें तो कहा जायेगा कि यह शेख चिल्ली की कल्पना भर है। यदि मध्यान्तर का महत्व और उस अनिवार्यता का कार्यान्वयन भी ध्यान में हो तो कथन सर्वथा सत्य है। पहलवान बलिष्ठता की मनोकामना नहीं पूरी करता, न ही ‘पहलवान-पहलवान’ रटते रहने से कोई वैसा बन पाता है। उसके लिये व्यायामशाला में प्रवेश से लेकर नियमित व्यायाम, आहार-विहार, तेल मालिश आदि का उपक्रम भी ध्यान में रखना होता है।

साधना से सम्पन्नता की सिद्धि या सफलता प्राप्त के शाश्वत सिद्धांत पर ये सभी बातें लागू होती हैं। छुटपुट कर्मकाण्डों की लकीर पीट लेने से अभीष्ट सफलता कहाँ मिलती है? उसके लिये श्रम साधना, मनोयोग, साधनों का दुरुपयोग आदि सभी आवश्यक हैं।

गायत्री के आकर्षक महात्म्य जो बताये जाते रहे हैं, वे किसी को मिलते हैं- किसी को नहीं। इसका एक ही कारण है- उपासना व साधना के मध्य अविच्छिन्न संबंध। दोनों परस्पर पूरक हैं। उपासना से तात्पर्य है- उत्कृष्टता की देवसत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित करना, साधना का अर्थ है- अपने गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का अनुपात अधिकाधिक मात्रा में बढ़ाना। यदि गायत्री तत्वज्ञान को सही रूप में समझा गया होगा तो साधक को निर्धारित उपासना कृत्य श्रद्धापूर्वक स्वीकार करना पड़ेगा, साथ ही आत्म-परिष्कार की जीवन साधना में भी उतनी ही तत्परता के साथ संलग्न होना पड़ेगा। दोनों का मिलन होते ही चमत्कार दृष्टिगोचर होने लगते हैं। भ्रष्ट जीवन के रहते दैवी अनुकम्पाएँ मिल सकना संभव नहीं। जो देवताओं को फुसलाकर अपना उल्लू साधना चाहते हैं पर चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश नहीं करते, ऐसे ही लोगों की उपासना प्रायः निष्फल रहती है। इसी प्रकार लोग विभिन्न शंकाएं उठाते देखे गये हैं और कुतर्क का जाल बुनकर भावना के क्षेत्र में कुहराम मचाते पाये गये हैं।

बिना किसी जाति, लिंग, देश और धर्म का अन्तर किये मानव मात्र को गायत्री उपासना करने और उससे लाभान्वित होने का पूरा-पूरा अधिकार है। इस सम्बन्ध में अधकचरे ज्ञान के आधार पर उठायी गई प्रतिगामी टिप्पणियों से अप्रभावित हो, जिन्हें भी आत्मिक प्रगति में तनिक भी रुचि हो, बिना किसी आशंका-असमंजस के श्रद्धापूर्वक गायत्री उपासना करते रहना चाहिये।


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