आत्मसत्ता- आत्मिकी की सर्वांगपूर्ण प्रयोगशाला

July 1983

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मनुष्य की कायिक एवं मानसिक संरचना विलक्षण एवं असीम सम्भावनाओं से भरी-पूरी होते हुए भी उसे पूर्ण नहीं माना जा सकता। जीवन व्यापार में उसे हर समय दूसरों की मदद लेनी ही पड़ती है। पदार्थ जगत की सर्वोत्कृष्ट प्रतिभा मनुष्य की काया और ब्राह्मी चेतना के परोक्ष वैभव का प्रत्यक्ष प्रतीक प्रतिनिधि मानवी मस्तिष्क इतने श्रेष्ठ स्तर का होते हुए भी मनुष्य तब तक परावलंबी है जब तक इस यन्त्र उपकरण को अनुशासित कर नियन्त्रण करने वाली परब्रह्म सत्ता से उसके तारतम्य का पता नहीं लगाया जाता। यह पराक्रम पुरुषार्थ भी उसी स्तर का दैव-दानव संग्राम है जिससे कभी चौदह रत्न निकले थे व विश्व वसुधा गौरवान्वित हुई थी। भौतिकी को आत्मिकी के अनुशासन में बद्धकर देखना ही ऋषिगणों की- महामानवों की विशेषता रही है। आज के भौतिकवादी युग में उन्हीं मूल्यों की पुनः खोज, नये परिप्रेक्ष्य में उनकी स्थापना व उन्हें जन सुलभ बनाकर मानव को उसकी गरिमा का बोध करा देना उतना ही अनिवार्य हो गया है।

जब आज मनुष्य को अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के लिए परावलम्बी होना पड़ता है, विज्ञान के आविष्कारों की परिणति को सुख-साधनों पर निर्भर रहना पड़ता है, तो आत्मिक प्रगति के लिये उच्चस्तरीय सहयोग की आवश्यकता पड़ना स्वाभाविक ही है। ब्राह्मी चेतना की अनुकूलता, अनुकम्पा सदैव मनुष्य के उत्थान हेतु उपलब्ध है। प्रश्न यही है कि कितना लाभ मनुष्य ने इस काया रूपी जन्म लेने के बाद आत्मोत्कर्ष की दिशा में बढ़ने के लिये उठाया। अनुग्रह ऊपर से बरसें या सिद्धियाँ अन्तः से उछलें, यह प्रश्न इतना अहम् नहीं जितना कि यह निर्धारण कि ऊँचा उठने के लिये कोई सहारा ढूंढ़ा गया अथवा नहीं। साधना से सिद्धि प्राप्ति की दिशा में विभूतियों का सहयोग तभी मिलता है और वे श्रेष्ठ भी होती हैं। जब मनुष्य अपने को मनुहार द्वारा नहीं, पात्रता सम्पादन द्वारा तद्रूप-तद्नुकूल बनाने का प्रयास करता है। यही है ब्रह्म को परब्रह्म से जोड़ने का तत्वदर्शन तथा समस्त सिद्धियों उच्चस्तरीय उपलब्धियों की प्राप्ति का राजमार्ग। इसी पर चलकर भौतिकी के विभिन्न मनीषियों ने- अध्यात्मविज्ञान के ऋषियों ने बहुमूल्य मणिमुक्तक खोज निकाले हैं, स्वयं को देवदूत स्तर तक पहुँचाया है। इसी कड़ी को पकड़ कर ही वह आधार बनाया जा सकता है जो व्यक्तित्व की मग्रता, पूर्णता की लक्ष्य प्राप्ति में सहायक बन सकेगा। इस प्रक्रिया को ही, जो जीव स्वयं सम्पन्न करता है, ‘साधना’ नाम से जाना जाता है।

साधना-जीवन साधना- आदतों एवं मान्यताओं को साध लेना इतना व्यापक शब्द है जिसमें व्यक्तित्व की परिष्कृति का सारा स्वरूप छिपा पड़ा है। किसान अपने उच्छृंखल बैल को नकेल डालकर साधता है जबकि सर्कस का रिंगमास्टर शेर, हाथी, रीछ जैसे उग्र प्रकृति के जीवों को नरम व्यवहार द्वारा- कभी कड़ाई से साधकर पालतू बना लेता है। गुलाब के पौधों में ‘बडिंग’ (कलम) लगाकर भाँति-भाँति के रंगीन फूल पैदाकर माली अपनी कला-सौंदर्य की साधना का परिचय देता है। बंजर अनुपजाऊ भूमि को खेत का रूप देकर धरती को सोना उगलने वाली देवी बना देना किसान की अथक साधना का ही प्रतिफल है। इसी प्रकार अणु-विखण्डन द्वारा, भूगर्भ की पुरुषार्थ भरी खोजों तथा अन्तरिक्ष की गहरी छानबीन करते हुए आधुनिक मानव ने बहुमूल्य सुख-साधन प्राप्त किए हैं। यह भी एक साधना है जिसके सुनियोजित प्रतिफलों ने आज युग को भौतिकी की दृष्टि से चरमावस्था पर पहुँचा दिया है। प्रश्न यह उठता है कि अनगढ़ प्रकृति तथा जीव जगत को सुगढ़ बनाते समय वह चेतना सत्ता को सुव्यवस्थित बनाने का- उत्कर्ष की दिशा में अग्रसर करने का प्रयास क्यों नहीं करता? प्रगति के इस राजमार्ग का सुनिश्चित पथ जानते हुए भी वह चौराहे पर भटक क्यों जाता है? यही है वह विडम्बना जिसके चलते व्यक्ति दिग्भ्रान्त, अशान्त, उद्विग्न नजर आता है। सभ्य और सुसंस्कृत बनाने की दिशा में, अपने आपे को सुव्यवस्थित- सुगढ़ बनाने में यदि उसी स्तर का पुरुषार्थ किया जाता तो आज जैसी परिस्थितियाँ सम्भवतः दृष्टिगोचर नहीं होतीं। सर्वत्र स्वर्गोपम वातावरण एवं देवत्व भरी मनः स्थिति पायी जाती।

मानवी गरिमा के अनुरूप व्यक्तित्व कैसे ढले- इस विधा को ही आत्मिकी कहते हैं। इस विद्या का अनुशासन व्यक्ति को अपने अपने जन्म-जन्मांतरों के संचित कुसंस्कारों हठीले अभ्यासों को छोड़ने हेतु विवश करता है, निपटने हेतु समुचित मनोबल जुटाता है, कष्ट सहकर भी प्रगति की दिशा में अग्रगमन की प्रेरणा देता है।

उस प्रसंग में कदम जो उठाने पड़ते हैं, वे उच्च स्तरीय होते हैं। प्रसुप्त की जागृति इससे कम में सम्भव नहीं। बहुमूल्य पौध उगाने-फसलें प्राप्त करने के लिए भूमि को भी परिशोधित कर विशिष्ट रूप से तैयार किया जाता है। उच्च स्तर का आत्मबल यदि अभीष्ट है तो परिष्कृत व्यक्तित्व का उपार्जन करना होता है ताकि विभूतियों को सम्भाल कर रखा जा सके- उनका दुरुपयोग न होने पाए।

वाल्मीकि को भौतिकी के अनुरूप बनाने उसकी प्रामाणिकता का तर्क, प्रमाणों के आधार पर सिद्ध करने के लिए मानवी काया को ही प्रयोगशाला बनाकर साधक की व्यष्टि सत्ता को प्रखर-परिमार्जित करना होगा। साधना के अनेकानेक पक्षों की चर्चा इसी संदर्भ में होती रही है। योग और तप, साधना के दो महत्वपूर्ण अंग हैं। ‘योग’ जहाँ शरणागति एकत्व की स्थिति है, वहाँ ‘तप’ शोधन की अग्नि-संस्कार वाली प्रक्रिया है। आत्म-सम्पादन हेतु वाँछित ऊर्जा इसी काया से ‘तप’ प्रक्रिया के माध्यम से ही उद्भूत होती है। ऊर्जा जहाँ भौतिकी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण- बलशाली शक्ति है, वहाँ अध्यात्म क्षेत्र में भी सामर्थ्य उपार्जन का यही एक मात्र आधार है। चेतना को निकृष्टता से विरत कर उत्कृष्टता के साथ जोड़ देना ‘योग’ और शरीरगत अस्त-व्यस्तता को सुसंस्कारिता के अनुशासन में जकड़ देना ‘तप’ है। दोनों ही परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। दोनों पैरों को उठाते बढ़ते रहने पर ही यात्रा क्रम चलता है। दो पहियों से ही गाड़ी लुढ़कती है। दोनों हाथों से ही ताली बजती है। योग और तप को- शरीर और मन को, चिन्तन और कर्म को उत्कृष्टता का अभ्यास कराने के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यकता पड़ती है- यह समझना और समझाना आत्मिकी के पुनर्जागरण में शुभारम्भ की तरह आवश्यक माना जाना चाहिए और इसके लिए गम्भीरता से प्रयास चलना चाहिए।

गम्भीरता से चिन्तन की बात इसलिए कही जा रही है कि अक्सर इनको बड़े हल्के रूप में ले लिया जाता है। इससे लाभ मिलना तो दूर- अध्यात्म के समीप भी साधक पहुँचता नहीं देखा जाता। वस्तुतः यह गीत में वर्णित महाभारत है जो अंतर्जगत के धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में लड़ा जाता है। भाव कल्प- चिन्तन का परिष्कार- समग्र प्रत्यावर्तन ही इस प्रक्रिया की फलश्रुति है।

योग में ‘ध्यान’ अभ्यास की प्रमुखता है। मेडीटेशन एकाग्रता का महत्व बहुत बताया जाता रहा है। उसका तात्पर्य यही है कि निकृष्टता के- लोभ, मोह और अहंता के जाल-जंजाल में जकड़े हुए मन को इन विडम्बनाओं में भटकते रहने की आदत छुड़वाना तथा निर्धारित लक्ष्य इष्टदेव के साथ तादात्म्य होने का अभ्यास करना। इसमें मन को बिखराव की बाल बुद्धि छोड़ने और इष्टदेव से लेकर दिनचर्या के प्रत्येक क्रिया कृत्य में तादात्म्य होने का अभ्यास करना भी है। न ता पूजा उपचार में बिखराव रहे और न दैनिक क्रिया-कृत्य को बेगार भुगतने की तरह आधे-अधूरे मन से किया जा। इस ढोंग- मन बहलाने की प्रक्रिया से पीछा जितनी जल्दी छुड़ाया जा सके, इसके प्रयास चलने चाहिए। समय क्षेप तो इससे बचेगा ही- सोद्देश्य साधना के लाभ भी शीघ्र ही मिलने लगेंगे। क्रिया के साथ मनोयोग को घनिष्ठ कर देने की सफलता बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसे अपनाने वाले भौतिक एवं आत्मिक क्षेत्र में समान रूप से सफल होते हैं।

किसी देवता का ध्यान करते रहना और उसी की छवि में मन रमाए रहना मनोनिग्रह का एक स्वरूप तो है पर इतने भर से अभीष्ट सफलता नहीं समझी जानी चाहिए। ऐसी एकाग्रता तो नट, बाजीगर, मुनीम, कलाकार, वैज्ञानिक भी अपने स्वभाव का अंग बना लेते हैं। मैस्मरेजम के प्रयोगों में यही एकाग्रता चमत्कार दिखाती है। इतने पर भी लोग आत्मिक दृष्टि से किसी भी प्रकार ऊँचा उठे हुए नहीं कहे जा सकते। किसी कल्पना मात्र पर ध्यान जमाए रहना इस प्रयोजन के लिए एक उपचार भर है। लक्ष्य यह है कि सर्वतोमुखी उत्कृष्टता के प्रति सघन श्रद्धा उत्पन्न की जाय, उसके माहात्म्यों का भावभरा चिन्तन किया जाय और अपनी समूची चेतना को उसी में सराबोर होने दिया जाय। उद्देश्यपूर्ण स्वाध्याय और सत्संग भी ध्यानयोग के ही अंग माने गये हैं। उत्कृष्टता की गरिमा पर श्रद्धा केन्द्रित करने को ‘चिन्तन’ और उसे आज की स्थिति में क्रियान्वित करने की आकाँक्षा को उभारना, योजना बनाना ‘मनन’ कहलाता है।

योगाभ्यास की ध्यान योजना के अंतर्गत आत्मसमीक्षा, आत्मपरिष्कार, आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास की सुविस्तृत रूपरेखा खड़ी करना, उसे सफल बनाने के लिए कटिबद्ध होना प्रमुख कार्य है। इसी के निमित्त स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन के चार आधार अपनाने पड़ते हैं। एकाग्रता (मेडीटेशन) ध्यान योग के अंतर्गत ये प्रयोजन भी जुड़े रहते हैं। अन्यथा मन को एक कल्पना भर देकर रोके रहने से योगाभ्यास का वह उद्देश्य पूरा नहीं हो सकेगा जिसके आधार पर आत्मसत्ता को आत्मिकी की प्रयोगशाला के रूप में परिणति करने की व्यवस्था बनती थी।

योग का साथी तप मात्र शरीरगत क्रिया है। संजोई अनगढ़ आदतों को मोड़ना-मरोड़ना एवं अपने स्वभाव में सुसंस्कारिता को सम्मिलित करने का अभ्यास प्रबल पुरुषार्थ है। बिखराव रुकने पर तप द्वारा शक्ति अर्जन का आप्त वचन सही होता देखा जा सकता है। मात्र निरोध नहीं- संकल्पों से जुड़ा संयम ही तप कहलाता है। इंद्रियां, समय, अर्थ, विचार संयमों के रूप में इन तप साधनों की चर्चा समय-समय पर होती रही है। बाल बुद्धि के लोग मात्र ब्रह्मचर्य को ही तप मानते हैं जबकि तप एक समग्र साधना है जिसका ब्रह्मचर्य भी एक अंग है। इन्द्रिय लिप्सा जब पूरे जोश-खरोश पर है, ऐसी दशा में संयम समर्थक तर्क, तथ्य, प्रमाण और वैज्ञानिक प्रतिपादनों के आधार पर सत्यापन नितान्त आवश्यक है। अन्यथा आत्मिकी के प्रयोग परीक्षणों के लिए द्वारा बन्द ही पड़ा रहेगा। जब साधक की सत्ता आत्मिकी का अवधारण ही न कर सकेगी तो उससे लाभ उठाने की बात ही कैसी बनेगी? इन्द्रिय छिद्रों में से जीवन रस टपकता रहेगा और आत्मिक दृष्टि से छूंछ बना हुआ व्यक्ति उच्चस्तरीय पुरुषार्थ करने एवं तद्नुरूप सफलताएँ प्राप्त कर सकने में सफल कैसे होगा?

योग और तप सम्बन्धी इस विवेचन को आज की भ्रष्ट मान्यताओं और दुष्ट परम्पराओं के सामने किस प्रकार मल्लयुद्ध के लिए प्रस्तुत करने और विजयी बनाने का सरंजाम जुटाया जाय, यही वास्तविक युगानुकूल पुरुषार्थ है। इन प्रयासों की सफलता पर आत्मिकी का पुनर्जीवन और मानवी भविष्य के उज्ज्वल पक्ष का निर्धारण अवलम्बित है। यह प्रयत्न छोटा दीखते हुए भी परिणाम की दृष्टि से कितना महान और महत्वपूर्ण है, इसकी मात्र कल्पना से ही मन पुलकित हो उठता है।


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