शक्तियों को बिखेरें नहीं एकत्रित करें

July 1983

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बिखराव से शक्ति का अपव्यय होने की बात सभी को विदित है। फैला देने से बढ़ी-चढ़ी सामर्थ्य भी अस्त-व्यस्त होती देखी गई है। और यदि उसे एक स्थान पर समेट दिया जाय तो असाधारण क्षमता उत्पन्न होती है।

बारूद बखेर दी जाय और उसमें आग लगाई जाय तो वह भक् से जलकर समाप्त हो जायेगी। किंतु यदि उसे बन्दूक की नली में केन्द्रित करके एक निशाने पर लगाया जाय तो शीशे की भरी गोली को भी साथ ले उड़ती है और कठोर ठिकाने को भी बेधकर आर-पार छेद कर देती है। दो इंच परिधि की सूर्य किरणें यदि आतिशी शीशे पर केन्द्रित की जायं तो उतने भर से देखते देखते आग जलने लगती है। उस चिनगारी को यदि अवसर मिले तो दावानल बनकर सुविस्तृत क्षेत्र को भस्मसात् कर सकती है। भाप खेत तालाबों से अनायास ही उठती और इधर-उधर उड़ती रहती है। किन्तु यदि छोटे से वायलर में उसे केन्द्रित कर लिया जाय तो उससे भारी बोझा लादकर लम्बी रेलगाड़ी हजारों मील का सफर कर सकती है।

मनुष्य शरीर के संचालन में जो विद्युत शक्ति काम करती है उसे यदि एकत्रित किया जा सके और एक प्रयोजन के लिए लगाया जा सके तो वे चमत्कारी कार्य सम्पन्न हो सकते हैं जो तन्त्र या कुण्डलिनी शक्ति के नाम से जाने जाते हैं। इसी प्रकार मस्तिष्क क्षेत्र है। देखने में तो वह शरीर का छोटा अवयव मात्र है, पर उतनी सी परिधि में कितनी विद्युत शक्ति काम करती है इसका लेखा-जोखा लिया, तो प्रतीत होगा कि एक बड़ी मील को चलने में जितनी बिजली खपती है उससे कम नहीं, कुछ अधिक ही इस कम्प्यूटर के अगणित, अत्यन्त पेचीदा अवयवों का सूत्र संचालन करने में खप जाता है। सामान्य तर्क इसका उपयोग निर्वाह की दैनिक समस्याओं का ताना-बाना बुनने, उलझनों को सुलझाने भर से होता रहता है। निरर्थक कल्पनाएँ और भी अधिक शक्ति खाती हैं। इस बिखराव को समेटकर यदि किसी लक्ष्य विशेष पर केन्द्रित किया जा सके तो उसके भी चमत्कारी परिणाम सामने आ सकते हैं।

योग में ‘चित्त की वृत्तियों का निरोध’ वह कृत्य है जिसमें जो जितने स्तर की सफलता प्राप्त कर लेता है वह उसी स्तर का योगी माना जाने लगता है। योग की आध्यात्मिक परिभाषा आत्मा को परमात्मा के साथ सटा देना, उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेना होता है किन्तु भौतिक जीवन में भी उसका कम उपयोग नहीं है। चिन्तन का बिखराव रोककर यदि उसे किसी एक प्रयोजन में लगाया जा सके तो उसकी सफलता असंदिग्ध हो जाती है। वैज्ञानिक, कलाकार, साहित्यकार बुद्धिजीवी इसी विशेषता को अर्जित करके अपने कार्यों में प्रगति करते और सफल होते हैं। अर्जुन के मत्स्य बेध की कथा प्रसिद्ध है। यह सफलता उसने एकाग्रता की सिद्धि प्राप्त करके ही पाई थी।

मन की शक्ति असीम है। उसका उपयोग जीवन में सम्बन्धित कृत्यों और चिन्तनों में होता है। फलतः बिखराव की स्थिति बनी रहना स्वाभाविक है। अनेकानेक पक्षों की मस्तिष्कीय क्षमता का थोड़ा-थोड़ा अंश मिलता है और उन सभी का ढर्रा किसी न किसी प्रकार लुढ़कता रहता है। इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए सृष्टा ने मनःशक्ति की संरचना इस प्रकार की है जिससे वह जीवन के हर क्षेत्र का परिपोषण करती रहे और कहीं भी अभावग्रस्त की स्थिति उत्पन्न न होने पाये। इसी व्यवस्था को चंचलता कहते हैं। मन की वानर वृत्ति प्रसिद्ध है वह हर घड़ी उचकता मचकता रहता है। इस डाली से उस डाली पर फुदकते रहने की उसकी चंचल प्रवृत्ति का परिचय प्रायः सभी को है।

इस स्वाभाविकता पर सन्तोष तभी किया जा सकता है जब जीवन की गतिशीलता मात्र निर्वाह व्यवस्था तक ही सीमित रही होती। पक्षी इसी प्रकार के विनोद कौतुक में निरत रहते हैं। उनकी फुदकन देखते ही बनती है। इस प्रवृत्ति का सूत्र संचालन निश्चय ही उनकी मानसिक चंचलता करती होगी। यदि उसमें कमी रही होती तो मगरमच्छ, और बाराह भैंसे की तरह वे भी आलसी जीवन जी रहे होते और पेट भरने के उपरान्त चादर तान कर सोया करते।

मानवी प्रगति में उसकी कल्पना शक्ति का बड़ा योगदान है। बुद्धिमता तो बाद की चीज है। मस्तिष्क अनगढ़ कल्पना चित्र बनाता रहता है। बुद्धि उनमें से उचित अनुचित, शक्य अशक्य का विश्लेषण करती है और जो उपयोगी प्रतीत होते हैं उन्हें विचारपूर्वक किसी निष्कर्ष पर पहुँचने तक के लिए मान्यता देकर शेष को उपहासपूर्वक उपेक्षित एवं बहिष्कृत करती रहती है।

मनःक्षेत्र का यह सामान्य उपक्रम तब असमंजस उत्पन्न करता है जब किन्हीं महत्वपूर्ण प्रसंगों के लिए अधिक गम्भीरता से विचार करके उसे सुनिश्चित योजना का रूप देना अभीष्ट होता है। इसके लिए अधिक मानसिक अनुदान चाहिए। यह कैसे मिले? उसका उत्तर एक ही मनः उस प्रयोजन में अधिक गहराई तक उतरे, अधिक ध्यान दे, अधिक समय तक रुके। यह आवश्यकता की पूर्ति में एक ही बाधा रहती है, मन की बनावट या आदत। वह अपने स्थान पर उचित और आवश्यक भी है। पर तर्क क्या किया जाय जब कोई महत्वपूर्ण प्रसंग सामने हो, और उसके लिए अधिक मनोयोग उपलब्ध किये बिना काम न चलता हो।

साधारणतः नदी प्रवाह बहता रहता है और वर्षा हो या हिमि देश से प्राप्त हुई जल सम्पदा बहते-बहते समुद्र तक पहुँचती रहती है। इस सामान्य में गतिरोध उत्पन्न करने की आवश्यकता तब पड़ती है जब बाँध बनाकर संचित जलराशि को नहरों में मोड़ना और आवश्यकता वाले खेतों को सींचना अभीष्ट होता है। यह बाँध बनाये बिना सम्भव नहीं। सिंचाई से लेकर बिजली घर बनाने जैसी योजनाएँ इस अवरोध को आवश्यक बताती हैं जिनके आधार पर नदी प्रवाह को रोककर बाँध से जलराशि का संचय किया जाता है। ठीक यही बात महत्वपूर्ण प्रसंगों के लिए लागू होती है। एकाग्रता के आधार मनःशक्ति को उच्चस्तरीय उद्देश्यों के लिये नियोजित करना पड़ता है। अन्यथा अभ्यस्त चंचलता के रहते कोई बात बनेगी ही नहीं। विनोद कौतुक चलता रहेगा। इच्छा उठना एक बात है और उसके प्रगति पथ को प्रशस्त करने वाली अवरोधों से निपटने वाली- साधन जुटाने वाली योजना बनाने के लिए कार्यान्वित करने वाली पद्धति निश्चित कर सकना दूसरी। यह दूसरी बात ही वह उपलब्धि है जिसके आधार पर विशिष्ट व्यक्ति- विशिष्ट योजनाएँ बनाते और उन्हें पूरा कर सकने की स्थिति तक पहुँचते देखे गये हैं।

एकाग्रता का अवलम्बन उस दशा में नितान्त आवश्यक हो जाता है जब सामान्य क्रिया-कलापों को बिना रोके भी ऐसा कुछ करना होता है जिनके आधार पर विशेष योजना या आवश्यकता की पूर्ति के लिए अतिरिक्त मानसिक ऊर्जा उपलब्ध हो सके। इसके लिए प्रवाह का नियम आवश्यक है। यह अनायास ही नहीं हो जाता क्योंकि मन के स्वाभाविक क्रम में चंचलता प्रधान रहने के कारण उसे देर तक कहीं ठहरने के लिए सहमत नहीं किया जा सकता है। इसके लिए उसे विशेष रूप से सधाना पड़ता है। जानवरों की अनगढ़ प्रकृति को अनुकूल बनाने के लिए किसान, बैलगाड़ी वाले, घुड़सवार, मदारी आदि को ऐसी ही सिरफोड़ी करनी पड़ती है अन्यथा उन्हें सहज सहमत कर सकना किसी प्रकार बन ही नहीं पड़ेगा।


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