जीवन में और कोई घटना निश्चित हो या न हो, परन्तु मृत्यु एक अनिवार्य घटना है। अन्य घटनाओं की संभावना को फिर भी टाला जा सकता है परन्तु मृत्यु को टाल पाना आज तक किसी के लिए भी सम्भव नहीं हुआ है। इस तथ्य से सभी लोग परिचित हैं फिर भी मृत्यु का भय जितने लोगों को कपा देता है उतना भय अन्य किसी भी कारणों से नहीं होता। इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि मृत्यु के साथ ही अपने अस्तित्व का नष्ट हो जाना भी मान लिया जाता है। जबकि ऐसा कुछ नहीं है। भारतीय दर्शन मृत्यु को आत्मा का देह परिवर्तन मात्र मानता है। पुराने कपड़े उतार कर नये कपड़े पहनने की तरह ही आत्मा पुराना, जीर्ण शरीर छोड़कर नया शरीर धारण करती है। यह तथ्य केवल दार्शनिक आधार पर ही नहीं, वैज्ञानिक आधार पर भी सिद्ध हो चुका है।
मरण से भयभीत होने का दूसरा कारण यह है कि लोग मृत्यु को बहुत ही यन्त्रणादायक, कष्टप्रद और दुःखदायी प्रक्रिया मानते हैं। समझा जाता है कि मृत्यु के समय भयंकर वेदना होती है। तथ्यों का अन्वेषण करने पर यह धारण भी निर्मल सिद्ध हुई है, पश्चिमी देशों में वैज्ञानिकों ने इस दिशा में काफी अन्वेषण किया है और उन लोगों से मिल कर तथ्य एकत्रित किये हैं जो आकस्मिक मृत्यु को प्राप्त हुए थे और पुनः जीवित हो उठे या जिनकी थोड़े समय के लिए मृत्यु हुई थी। इस विषय पर कई पुस्तकें भी लिखी जा चुकी हैं जो बहुत चर्चित हुई हैं।
इसी तरह की पुस्तकों में एक है ‘जौन वेस्ट” जिसके लेखक हैं एस.एस.वार्ड। वार्ड ने इस पुस्तक में परलोक गत आत्माओं ने संपर्क स्थापित कर उनके अनुभवों का तो विवरण दिया ही है, उन व्यक्तियों के अनुभव भी संकलित किये हैं जो थोड़े समय के लिए मरे थे अर्थात् मरकर पुनः जीवित हो उठे थे। ऐसे ही एक व्यक्ति का अनुभव अपनी पुस्तक में संकलित करते हुए उन्होंने उसी व्यक्ति के शब्दों में पृष्ठ 28 पर लिखा है- “मृत्यु के आगमन पर मुझे एक प्रकार का बोझ सा अनुभव होने लगा। धीरे-धीरे मुझे ऐसा आभास होने लगा कि यह बोझ खिसकता जा रहा है। कुछ ऐसी अनुभूति थी, जैसे कोई मेरा हाथ भीगे दस्ताने पर से निकाले रहा हो। अन्धकार जो पहले बहुत गहरा अनुभव हो रहा था, अब तिरोहित हो गया और मैं अपने आपको प्रकाश में अनुभव करने लगा। इस प्रकाश में मैं अपने आसपास खड़े व्यक्तियों को स्पष्ट देख रहा था। मैं अब बिल्कुल मुक्त था और अपने शरीर को बिस्तर पर पड़े हुए देख रहा था। उस समय मेरा ख्याल है, किसी ने कहा, यह अब चला गया उसके बाद कमरा और उसकी अन्य वस्तुएँ धुँधली पड़ती गई और धीरे-धीरे ओझल हो गई। मैं फिर एक बहुत ही सुन्दर दुनिया में था।
‘डेथ एन इण्टरेस्टिंग जर्नी” पुस्तक के लेखक एल्विन ने विभिन्न व्यक्तियों और माध्यमों से संपर्क कर मृत्यु के समय जो बीतती है, उसके सम्बन्ध में व्यापक छानबीन और जाँच-पड़ताल की। इसके बाद ही उन्होंने यह पुस्तक लिखी। एल्विन के अनुसार मृत्यु के समय घटना बड़ी तीव्र गति से घटती है और जीवात्मा एक ऐसी दुनिया में प्रवेश करती है जहाँ बहुत तेज कम्पन होते हैं। यह अपने-अपने विश्वासों पर आधारित है कि मृत्यु के समय क्या अनुभव होता है? तथा कैसा लगता है? किन्तु यह निश्चित है कि हमारी जीवात्मा की चेतना शरीर की चेतना बोध शक्ति से बहुत सूक्ष्म और आगे होती है। इसलिए वह अपने पुराने मकान को छोड़ने के लिए पहले से ही तैयार रहती है। यहाँ तक कि कोई दुर्घटना घटने की स्थिति में भी जीवात्मा दुर्घटना से पहले ही अपने शरीर को छोड़ देती है। इस प्रकार दुर्घटना में मरने वाले व्यक्तियों का अपने शरीर पर लगने वाली चोटों का न ज्ञान होता है, न उससे कोई पीड़ा ही होती है। आकस्मिक मृत्यु को प्राप्त हुए व्यक्तियों को इसीलिए पीड़ा का अनुभव नहीं होता कि उनकी जीवात्मा पहले ही शरीर छोड़ चुकी होती है। उदाहरण के तौर पर एक सिपाही को, जिसके मस्तिष्क में गोली लगती है, कुछ अनुभव नहीं होता बल्कि वह पूरे होश में यह देख पाता है कि एक क्षण पहले वह क्या था? यद्यपि इस तरह की आकस्मिक दुर्घटनाएं ऊपरी तौर पर बड़ी निर्भय, भीषण और दर्दनाक दिखाई पड़ती हैं किन्तु जो मर जाते हैं, उनके लिए मृत्यु कोई विस्मयपूर्ण घटना नहीं होती।”
स्विट्जरलैण्ड के खैलोन हरमन एकबार बर्फ के तूफान में भटक गए थे और वहीं उनका प्राणाँत हो गया। बाद में उन्हें ढूंढ़ा जा सका और सौभाग्य से वे पुनः जीवित हो उठे। पुनर्जीवित होने के बाद उन्होंने बताया कि, “मैं मार्ग की तलाश में घण्टे तक भटकता रहा और जब मार्ग नहीं मिला तो बेहद थक जाने पर निराश होकर गिर पड़ा। इसके बाद मुझे कुछ भी होश नहीं रहा। केवल इतना याद है कि मैं उस अवस्था में बहुत सुख और आनन्द अनुभव कर रहा था। मेरे हाथ बर्फ से ठिठुर गये थे। बर्फ का गिरना मुझे बेहद सुखकर लग रहा था। उस समय मेरी एक माया आकाँक्षा यही थी कि सब कुछ ऐसा ही चलता रहे और कहीं कोई विघ्न पैदा न हो।
बर्फ पर स्केटिंग करते हुए फिसलकर एक गहरे खड्ड में धंस जाने से कुछ देर के लिए मृतक से हो गए डा. बर्न्ट ने अपना अनुभव इस प्रकार लिखा है- एडिनवरा में बर्फ पर स्केटिंग करते समय मैं एक ऐसे स्थान पर पहुँच गया जहाँ नीचे की बर्फ बहुत पिघल गई थी और ऊपर बर्फ की हलकी-सी परत ही रह गई थी। मैं उसमें धंसने लगा। अपने आपको बचाने का काफी प्रयत्न किया किन्तु कुछ नहीं हो सका। मैं एक बड़े छिद्र में घुसा जा रहा था। मैं उस अध जमे पानी के अन्दर समा गया और जब ऊपर उठ सका तो अपने आपको बर्फ की सतह के नीचे पाया। मेरी शक्ति जवाब दे रही थी। मैं संज्ञा शून्य हुआ जा रहा था, यहाँ तक कि मेरा खाना भी बन्द हो गया था। मेरे पेट और फेफड़ों में पानी भर गया। इसके बाद मैंने अपनी रक्षा के लिए प्रयत्न करना बन्द कर दिया और जब मैंने प्रयत्न बन्द किये तो मुझे बड़ा आनन्द आने लगा।”
“मैं जानता था कि मैं मर रहा हूँ और उस समय यह जानते हुए भी मुझे बड़ा आनन्द आ रहा था। मुझे न ठंड लग रही थी और न ही मेरा दम घुट रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे मैं एक नर्म कोच पर लेटा हूँ और मेरे चारों ओर एक मधुर संगीत बज रहा है। मैंने अपने चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश संव्याप्त देखा। वह प्रकाश अलौकिक सा प्रतीत होता था। संगीत की ध्वनि मन्द पड़ने लगी थी। किसी चलचित्र की भाँति मेरे विगत जीवन की सारी घटनाएँ मेरी आँखें के सामने नाचने लगीं। आश्चर्य की बात तो यह थी कि मुझे वही घटनाएँ दिखाई देती थी जिनमें मैंने आनन्द ही आनन्द अनुभव किया था, या जिनसे मैं आनन्दित हुआ था।”
मृत्यु के सम्बन्ध में जितने लोगों को अनुभव करने का अवसर मिला है, या जिन व्यक्तियों ने भी इस तरह के विवरण दिवंगत व्यक्तियों की आत्माओं से संपर्क कर प्राप्त किये हैं, उन सभी का साराँश यही है कि मृत्यु कोई दुखद घटना नहीं है। यह घटना नहीं है। यह घटना घटते समय न तो पीड़ा का अनुभव होता है, न ही किसी प्रकार का कोई कष्ट होता है।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारे ‘यौवने’ जरा। तथा देहान्तर प्राप्तिर्धीर स्तत्र न मुह्यति॥ वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ -गीता 2। 13, 22
अर्थात्- जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में रहते हुए कुमार, युवा और वृद्धावस्था से प्राप्त होता है उसी प्रकार मृत्यु के बाद इसे दूसरा देह प्राप्त होता है। जिस प्रकार कोई मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नवीन शरीर को धारण करता है।
इस तत्वदर्शन का हृदयंगम करने के बाद मृत्यु से भयभीत होने का न तो कोई कारण है न ही औचित्य।