जुए में सर्वस्व हारने के बाद पाण्डवों को वनवास हुआ। शर्त के अनुसार उन्हें बारह वर्ष वनवास के रूप में तथा एक वर्ष अज्ञातवास के रूप में बिताने थे। अज्ञातवास की अवधि में यदि वे पहिचान लिये जायेंगे तो पुनः बारह वर्ष की सजा भुगतनी होगी, यह कूटनीतिक शर्त दुर्योधन ने रखी थी। तब बारह वर्ष का समय बीत चुका था, एक वर्षीय अवधि चल रही थी। पाण्डव एकचक्रा नगरी में एक ब्राह्मण के घर छुपकर, अपनी वेशभूषा बदलकर रह रहे थे।
उस नगरी में बकासुर नामक एक भयंकर राक्षस रहता था। उसके आतंक, अत्याचार से पूरी नगरी त्रस्त थी। किसी को भी मारकर रक्त पी जाना उसके लिए सामान्य बात थी। हर व्यक्ति भयभीत था तथा अपनी जीवनरक्षा के लिए आशंकित था। नगरवासियों ने उसके उत्पीड़न से परेशान होकर सर्व सम्मति से यह निश्चय किया कि राक्षस के भोजन के लिए हर घर से बारी-बारी से एक आदमी भेजा जाता रहेगा, किसी अन्य को राक्षस यदि न मारे तो यह क्रम चलता रहेगा। घर बैठे बिना मेहनत के आहार की शर्त उसने मंजूर कर ली। धीरे-धीरे एक-एक व्यक्ति उसका ग्रास बनने लगे नगर की आबादी तेजी से घटने लगी। पुत्र, पुत्री, पति, पत्नी, माता-पिता आदि के असहाय बिछुड़न की विरह-वेदना से समूचे वातावरण में भय आतंक संव्याप्त था। घर-घर में रुदन चीत्कार सुनायी पड़ रही था।
उस दिन ब्राह्मण के घर की बारी थी। उसके घर कुहराम मच गया। ब्राह्मण उसकी पत्नी, पुत्र और कन्या अपने-अपने प्राण देकर एक दूसरे को बचाने का आग्रह करने लगे। आँखों से आँसुओं के निर्झर बह रहे थे। माँ कुन्ती और भीमसेन को छोड़कर अन्य चारों भाई उस दिन भिक्षा के लिए बाहर गये थे। कुन्ती ने सारी बातें सुनी, उसका हृदय दयार्द हो उठा। ब्राह्मण परिवार से जाकर बोली- आप लोग चिन्ता न करें। आपके आश्रम में हम रह रहे हैं। मेरे पाँच लड़के हैं, उनमें से एक को राक्षस के भोजन के लिए में भेज दूँगी।” ब्राह्मण के ननुनच को देखते हुए माता कुन्ती ने फिर समझाया- ब्राह्मण देवता! आप हमारी चिन्ता न करें। मेरे लड़के साहसी और पराक्रमी हैं। अनीति, अत्याचार से संघर्ष करना ही उन्हें सिखाया गया है। कदाचित् इस धर्मयुद्ध में एक मारा जाता है, तो भी मेरे चार बच्चे तो बचेंगे। अनीति के विरुद्ध संघर्ष की धर्म परम्परा तो अन्ततः जीवित रहेगी।
माता की आज्ञा पाकर भीम युद्ध में जाने की तैयारी करने लगे। अपनी गदा सम्भाली। इतने में युधिष्ठिर आदि चारों भाई लौटकर घर पहुँचे। माँ की बात सुनकर उन्होंने वनवास के साथ जुड़ी शर्त को याद दिलाते हुए कहा- “भीम महाबली है। पर राक्षस के मारे जाने के बाद सबको खबर हो जायेगी कि यह कार्य भीम का है। हम सब पहिचाने जायेंगे। इससे पुनः बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा।”
धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर कुन्ती ने आक्रोश व्यक्त करते हुए कहा- “युधिष्ठिर! धर्मात्मा होकर भी तुम कायरों जैसी बातें करते हो। तुम्हें अपनी चिन्ता मात्र है। सोचो इस नगर का क्या होगा? एक दिन पूरे नगर में श्मशान सी नीरवता छा जायेगी। राक्षस सबको मारकर खा जायेगा। अनीति को सामने देखकर भी यदि उससे जूझने के लिए भुजाएँ नहीं फड़कती- मन्यु नहीं उभरता तो किस काम का- वह पराक्रम- वह शौर्य?
लज्जा से युधिष्ठिर का सिर झुक गया। “स्वयं दुःख सहकर कष्ट उठाकर भी यदि अनीति का उन्मूलन होता हो, तो उसके लिए किसी प्रकार का असमंजस नहीं करना चाहिए,” उन्हें माता की नीतियुक्त शिक्षा उचित जान पड़ी। समीप खड़े भीम सारी चर्चा सुन रहे थे। वार्ता के अन्त होते ही उनका मन्यु जग उठा। भुजाएँ फड़कीं। एक हुँकार भरकर वे चल पड़े राक्षस बकासुर को मारने और मारकर ही लौटे।