विशिष्ट प्रयोजनों के लिए विशिष्ट अवसरों पर विशिष्ट उद्देश्यों के लिए कुछ अतिरिक्त यज्ञ किए जाते हैं। जिनमें भैषज्य यज्ञ, राजसूय, वाजपेय, अग्निष्टोम, सत्रमेध, सोमयाग, पुरश्चरण की प्रमुखता है। इनके संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैं-
अग्निष्टोम- ताण्ड्य ब्राह्मण 6। 3। 8 और शतपथ ब्राह्मण 10। 1। 2। 9 में अग्निष्टोम का विवरण है।
एष वै ज्येष्ठो यज्ञाना यदग्निष्टोम। तस्मात् उह वसन्ते वसने।
अर्थात् यह अग्निष्टोम यज्ञों में ज्येष्ठ श्रेष्ठ है। वह हर बसन्त में किया जाता है।
प्रचलित होलिका उत्सव का अस्त-व्यस्त एवं विकृत स्वरूप इसी पुण्य प्रक्रिया का ध्वंसावशेष है।
बदलते हुए ऋतु प्रभाव का दबाव लोक स्वास्थ्य पर बुरा न पड़े इसकी रोकथाम के लिए अग्निष्टोम किए जाते थे। नयी फसल के नये अन्न में से भगवान का समाज का अंश सर्वप्रथम निकालने की बात को ध्यान में रखते हुए यह विशिष्ट यज्ञ सम्पन्न किए जाते थे। नये उपार्जन का व्यक्तिगत तथा सामूहिक प्रयोजन के लिए किस प्रकार उपयोग हो इसका निर्धारण भी इसी अवसर पर सामयिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाता था।
सोमयाग- सोमयाग व्रत-उपवास प्रधान होते हैं। उनमें आहार तप का यजमान को विशेष अनुशासन पालना पड़ता है। आहार का नियमन तपश्चर्या में गिना जाता है। आहुति का विधान अलग है, पर उसमें साधक की आहार शुद्धि को प्रमुखता दी जाती है।
सोमयाग प्रायश्चित परक होते हैं। जानबूझ कर किए गए पाप, अपराधों अज्ञान में हुए भूलों, आवेश में बन पड़े दुष्कृत्यों के शमन-समाधान का एकमात्र उपाय प्रायश्चित ही है। विस्मरण हो गये विस्मरण हो गये अथवा पूर्वजन्मों के कर्मों का भी दण्डफल तो भोगना ही पड़ता है। उस दण्ड के लिए शासन, समाज या ईश्वरीय विधान की प्रतीक्षा न करके स्वयं ही स्वेच्छापूर्वक उस दण्ड को सहन करने का साहस उभरे तो उसे प्रायश्चित कहा जायेगा।
ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड में अनेक पाप प्रायश्चितों के लिए चान्द्रायण, कृच्छ चान्द्रायण आदि व्रत उपवास करने के साथ-साथ सोमपान पर निर्वाह करने और यजन करने का निर्देश है। सोमपान देवलोक के किसी उल्लासपूर्वक भाव संवेदन को कहा गया है। ऋषियों के लिए सोमवल्ली के रसपान के रूप में उसी का उल्लेख है। सामान्य मनुष्यों के लिए हविष्यान्न एवं यज्ञावशिष्ट चरु पुरोडाश का नाम ही सोमपान है। पुरोडाश चावल का, चरु जौ का बनता है। इसे दलिया या भात की तरह यज्ञ सान्निध्य में विनिर्मित किया जाता है।
विभिन्न पापों के लिए विभिन्न प्रकार के प्रायश्चित विधानों का उल्लेख विभिन्न धर्म ग्रन्थों में हुआ है। इस संदर्भ में जहाँ शारीरिक-मानसिक तितीक्षा परक कष्ट सहने, व्यक्ति या समाज को पहुँचाई गई हानि की क्षतिपूर्ति करने, तीर्थयात्रा आदि पुण्य-परमार्थ करने का विधान है, वहाँ कषाय-कल्मषों को धोने में सोमयाग जैसे यज्ञकृत्य करने का भी निर्देश है। इस संदर्भ में तैत्तिरीयारण्यक 2। 7-8 वाज. सं 20। 14। 16 तै. आ. 2। 3। 1, बोधायन धर्मसूत्र 3। 7। 1, याज्ञ. 3। 309, मनु. 11। 34, वशिष्ठ. 26। 16, शतपथ 1। 5। 2। 20 देखने योग्य है।
किसी महिला से व्यभिचारजन्य पाप बन पड़े तो उसके लिए वाज. सं. 1। 8। 3 के अनुसार यज्ञ कृत्य करने तथा भविष्य में वैसा न करने की प्रतिज्ञा करने पर प्रायश्चित हो जाता है और उस बन पड़े पाप की समाप्ति हुई समझ ली जाती है। इसके लिए एक विशेष मन्त्र से आहुति देनी पड़ती है। वह मंत्र इस प्रकार है-
“यद् ग्रामे यदरण्य यत्सभायां यदिन्द्रिय। यदेनश्चकृमा वयमिदं तदव यजामहे स्वाहा।”
अर्थात्- जो पाप ग्राम में, वन में, समाज में, इन्द्रियों से तथा दूसरे प्रकार से बन पड़े हैं उन्हें इन आहुतियों के साथ नष्ट करते हैं।
इस संदर्भ में ऐसे ही प्रायश्चित का संकेत मनुस्मृति 8। 105 और याज्ञ. 2। 83 में भी किया गया है।
सत्र- ज्ञानयज्ञों को सत्र कहते हैं। उनमें स्वाध्याय सत्संग, मनन, चिन्तन एवं विचार विमर्श ही यजन माना जाता है। दिनचर्या उसी आधार पर बनती है। यह सामूहिक होते हैं और अधिक समय तक चलते हैं।
भागवत सप्ताह, रामायण कथा, पुराणवाचन, उपनिषद् चर्चा अथवा किसी प्रयोजन विशेष का लगातार प्रशिक्षण अभ्यास कराने की व्यवस्था को सत्र कहा जायगा। नैमिषारण्य में सूत द्वारा शौनकादिक अनेक ऋषियों को लम्बे समय तक कथा सुनाते रहने का वर्णन मिलता है। इस प्रकार के आयोजन को सत्र संज्ञा दी जाती है।
राजसूय-बाजपेय- शतपथ ब्राह्मण 13। 2। 2। 1 में उल्लेख है-
“राज्ञः एवं सूर्य कर्म। राजा वै राजसूयेन दृष्ट्वा भवति।”
अर्थात्- शासन व्यवस्था को राजसूय कहते हैं। राजा इस आयोजन के उपरान्त ही शासन की बागडोर सम्भालता है। आज की स्थिति में संसद विचार मन्थन एवं चुनाव आयोजनों को राजसूय कह सकते हैं। प्रज्ञा की सहमति से प्रजाहित को प्रमुखता देते हुए की जाने वाली शासन व्यवस्था राजसूय है।
इस प्रयोजन के लिए समय-समय पर जनसाधारण को भी एकत्रित करके सभा-सम्मेलनों के रूप में उसका मत जाना जाता था और लोक मानस के सामयिक मार्गदर्शन का प्रबन्ध किया जाता था इस उद्देश्य के लिए होने वाले सभा-सम्मेलनों, वार्षिक आयोजनों को भी यही नाम दिया जा सकता है। विभिन्न संस्थाएँ शासकीय सुव्यवस्था बनाने के लिए प्रस्तुत गतिविधियों की समीक्षा उपयुक्त प्रवृत्तियों में सहयोग करने तथा आवश्यक सुधार के लिए परामर्श देने जैसे प्रयोजनों को लेकर जन सम्मेलन होते रहते हैं वह भी इसी श्रेणी में आते हैं।
विशेष परिस्थितियों में विशेष परिस्थितियों के अनुरूप सामयिक निर्णय करने एवं योजना बनाने की किसी बड़ी बात को लेकर विशालकाय राजसूय यज्ञ होते हैं। महाभारत के बाद भगवान कृष्ण ने और लंका विजय के उपरान्त भावी निर्धारणों के लिए जनता का परामर्श सहयोग प्राप्त करने के लिए विशालकाय राजसूय यज्ञ किए थे। ऐसे ही विशाल आयोजन समय-समय पर अन्यत्र भी होते हैं।
इसी प्रकार बाजपेय यज्ञों में धर्मक्षेत्र में संतुलन बनाये रहने के लिए लोकसेवी विद्वान परिव्राजक एकत्रित सामयिक परिस्थितियों पर विचार करते थे। जो आवश्यक होता था उसका निर्धारण करके अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में लौटते थे। बाजपेय सम्मेलनों में निर्धारित की गई नीति एवं योजना को कार्यान्वित करने के लिए विज्ञजनों को तत्पर किया जाता था। तद्नुरूप वातावरण बनाने, साधन जुटाने की सार्वदेशिक योजना चल पड़ती थी। साधारणतया वे ‘कुम्भ’ जैसे पर्वों के निर्धारित समय पर होते थे और विशेष आवश्यकता पड़ने पर विशेष रूप से किन्हीं स्थानों पर बाजपेय यज्ञों के आयोजन होते थे।
बलिवैश्व- दैनिक संध्यावन्दन की तरह प्रातः सायं जो आहुतियाँ दी जाती हैं उन्हें अग्निहोत्र कहते हैं। प्रातः यज्ञ को सूर्योपासन और सायंकालीन को अग्नि साधना कहा गया है।
“अग्नये एवं सायं सूर्याय प्रातः एव ह वै अग्नि होत्रं जुहोति।” -शतपथ 2। 2। 4। 15
प्रातः सूर्य के लिए और सायं अग्नि के लिए यजन किया जाता है। सूर्य को ज्ञान का और अग्नि को कर्म का प्रतीक माना गया है।
‘स यद्वैश्वदेवेन यजते। अग्निरेव तर्हि भवत्यग्नेरेव सायुज्य सलोकतां जयति...........। -शतपथ 2। 6। 4। 8
अर्थात्- जो भी व्यक्ति वैश्वदेव यज्ञ करता है, वह अग्नि ही हो जाता है और अग्नि के सायुज्य और सालोक्य को प्राप्त करता है।
सायं प्रातर्वैश्वदेवः कर्तव्यों बलिकर्म च। अनशनताति कर्त्तव्यमन्यथा किल्विष्ज्ञी भवेत्॥
प्रातःकाल एवं सायंकाल भोजन से पहले बलिवैश्यदेव करना चाहिए। अन्यथा पाप भाजन बनना पड़ता है।
श्रुति का निर्देश है कि भोजन बनाकर केवल अकेले खाने वाला पाप ही खाता है-
“केवलादो केवलाघो भवति।” -ऋग्वेद
बिना बलिवैश्व किए हुए अकेले भोजन करने वाला ‘पाप’ खाता है अर्थात् पाप का भागी बनता है।
शास्त्र तो यहाँ तक कहता है कि बलिवैश्वदेव करने तक की असमर्थता हो तो मात्र जल से हवन कर लेना चाहिए।
‘जुहुयादम्बुनापि च।’
बलिवैश्वदेव की इस शास्त्रीय परम्परा के पीछे एक ही तथ्य समझ में आता है कि समाज में बहुत से प्राणी ऐसे है जिन्हें अपने जीवन निर्वाह योग्य साधनों के लाले पड़े होते हैं। ऐसे प्राणियों की भोजन-व्यवस्था हेतु साधन-सम्पन्नों को उदारता बरतनी पड़ती है। बलि वैश्वदेव द्वारा ऐसे ही निरीह प्राणियों को पोषण प्राप्त होता है। हवन के सूक्ष्म प्राणयुक्त अंश से उन्हें पोषण मिलता है।
बलिवैश्वदेव के पीछे उसके कर्त्ता के यही भाव दिखाई पड़ते हैं-
येषाँ न माता न पिता न बन्धु, र्नैवान्नसिद्धिर्न तथान्नमस्ति। तत् तृप्तयेऽन्नं भुवि दत्तमेतत्, प्रयान्तु तृप्तिं मुदिता भवन्तु॥
जिनके माता, पिता या बन्धु-बान्धव नहीं होते हैं, या अन्न की व्यवस्था नहीं है, उन सबकी तृप्ति के लिए मैं अन्न प्रदान करता हूँ- बलिवैश्वदेव करता हूँ।
प्रतिदिन आहुतियाँ देकर इन कर्त्तव्यों की पूर्ति करते रहने की प्रतिज्ञा दुहराई जाती थी। पहले ‘यज्ञ’ परमार्थ पीछे निर्वाह स्वार्थ। यही रीति-नीति भारतीय धर्मानुयायियों की रही है। उसे विस्मृत न होने देने, नित्य, व्यवहार में लाने की प्रेरणा प्राप्त करने के लिए भी यह दैनिक अग्निहोत्र की प्रथा-परम्परा है। उससे देव अनुग्रह और आत्म कल्याण का लाभ तो है ही।