समर्थ होते हुए भी असमर्थ क्यों?

July 1983

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मनुष्य उतना तुच्छ नहीं है जितना कि वह अपने को समझता है। वह सृष्टा की सर्वोपरि कलाकृति है। न केवल वह प्राणियों का मुकुटमणि है वरन् उसकी उपलब्धियाँ भी असाधारण हैं। प्रकृति की पदार्थ सम्पदा उसके चरणों पर लोटती है। प्राणि समुदाय उसका वशवर्ती और अनुचर है। उसकी न केवल संरचना अद्भुत है वरन् इन्द्रिय समुच्चय की प्रत्येक इकाई अजस्र आनन्द-उल्लास हर जगह उड़ेलते रहने की विशेषताओं से सम्पन्न है। ऐसा अद्भुत शरीर इस सृष्टि में कहीं भी, किसी भी जीवधारी के हिस्से नहीं आया।

मनः संस्थान उससे भी विलक्षण है। जहाँ अन्य प्राणी मात्र अपने निर्वाह तक की सोच पाते हैं, वहाँ मानवी मस्तिष्क भूत-भविष्य का तारतम्य मिलाते हुए वर्तमान का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर सकने में समर्थ है। ज्ञान और विज्ञान के दो पंख उसे ऐसे मिल हैं जिनके सहारे वह लोक-लोकान्तरों का परिभ्रमण करने, दिव्य लोक तक पहुँचने का अधिकार जमाने में समर्थ है।

इतना सब होते हुए भी स्वयं को तुच्छ मान बैठना एक विडम्बना ही है। यह दुर्भाग्य जिस कारण उस पर लदता है, वह है आत्म-विश्वास की कमी। अपने ऊपर भरोसा न कर पाने के कारण वह समस्याओं को सुलझाने, कठिनाइयों से उबरने और सुखद सम्भावनाओं को हस्तगत करने में दूसरों का सहारा तकता है। दूसरे कहाँ इतने फालतू होंगे कि हमारी सहायता के लिए दौड़ पड़ें। बात तभी बनती है, जब मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होता है, अपनी क्षमताओं पर भरोसा करके, अपने साधनों व सूझ-बूझ के सहारे आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है। यह भली-भाँति समझा जाना चाहिए कि आत्म-विश्वास संसार का सबसे बड़ा बल है, एक शक्तिशाली चुम्बक है जिसके आकर्षण से अनुकूलताएँ स्वयं खिंचती चली आती हैं।


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