“पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते”

July 1983

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तत्वदर्शी सृष्टि की प्रत्येक संरचना को परिपूर्ण मानते हैं तथा यह विश्वास करते हैं कि अनगढ़ होते हुए भी वे घटक महत्वपूर्ण तथा विशिष्ट प्रयोजन के लिए बनाये गये हैं। उनका यह प्रयास रहता है कि इस सृष्टि तथा उससे जुड़े जड़-चेतन उपादानों को सुगढ़ और अधिक सुन्दर बनाने का प्रयत्न करें। अनुदान एवं वरदान के रूप में जो प्रकृति प्रदत्त परिस्थितियाँ मिली हैं, उन पर सन्तोष व्यक्त करते और उनका नियोजन- सदुपयोग प्राणी मात्र के विकास के लिए करते हैं। यही तत्वदृष्टि है, जिसके सहारे वे स्वयं आगे बढ़ते- ऊँचे उठते तथा सभी के कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। अपनी सन्तुलित दृष्टि में वे जिस पूर्णता का सर्वत्र दर्शन करते हैं उसे अधिकाधिक उजागर करने का प्रयास अपने अन्दर एवं चारों ओर की जुड़ी परिस्थितियों में करते रहते हैं। इस सत्प्रयत्न में उनका जीवन धन्य बनता और अनेकों को धन्य बनाता है।

दोष पूर्ण दृष्टि सर्वत्र अपूर्णता का रोना ही रोती रहती है। उसे चारों ओर दोष, दुर्गुणों का- अभावग्रस्त विपन्न परिस्थितियों का ही दर्शन होता है। फलतः ऐसी दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति अपनी निषेधात्मक मनोवृत्ति के कारण सदा खीजते रहते, दुःख रहते तथा अपनी प्रकृति प्रदत्त प्रसन्नता को गँवा बैठते हैं। स्वयं के विकास के लिए वे जो प्रयत्न पुरुषार्थ कर सकते थे, उसका भी पल्ला छोड़ बैठते हैं। फलतः वह अपूर्णता जो उनकी कल्पना क्षेत्र में ही रहती है, वह साकार हो उठती है तथा तत्वतः वह न होते हुए भी सर्वत्र दिखायी पड़ने लगती है।

तथ्यों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने पर तो सचमुच ही हर वस्तु अपूर्ण जान पड़ती है। अपूर्ण इस अर्थ में कि उनके सम्बन्ध में जो मापदण्ड के प्रचलित पैमाने हैं, वे अधूरे हैं। मापने के पैमाने एक सापेक्ष जानकारी ही दे पाते हैं। लम्बे समय तक मान्यता थी कि अनेकों ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं और दीर्घवृत्त बनाते हैं।

वृत्त का अर्थ है- एक गोल संरचना। पर ग्रहों की वह परिक्रमा वृत्त गोल नहीं होती। सूर्य तथा अन्य सभी ग्रह अपने ध्रुव केन्द्र पर चपटे होते हैं फलतः बनने वाला वृत्त पूर्णतः गोल नहीं होता। पृथ्वी भी गोल नहीं है, उसका स्वरूप चपटा गोलाभ है। आइन्स्टीन ने भी अपनी ‘जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटाविटी’ में यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि यदि किसी रेखा को अनन्त तक बढ़ाया जाय तो वह सीधी न रह सकेगी एक झुके हुए स्वरूप में दृष्टिगोचर होगी। पूरी सतर्कता एवं सजगता से खींची जाने वाली शुद्ध सरल रेखा भी सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखने पर टेड़ी-मेढ़ी दिखायी पड़ती है। गणितज्ञों ने पूर्ण संख्या की अपनी मान्यता प्रतिपादित की है, पर वह भी एक भ्रम मात्र है।

कम्पोजर, संगीतज्ञ भी अष्टक के बीच स्वरान्तराल को पूर्ण बताते हैं पर वास्तव में वह पूर्ण नहीं है। इससे निखरित प्रथम ध्वनि से उसकी अपूर्णता ज्ञात होती है। जीव विज्ञानियों के अनुसार जीवन का क्रमिक विकास भी त्रुटिपूर्ण है। उसमें आर0एन0ए0, डी0एन0ए0 को ही इकाई मानने की प्रणाली पूर्णतः सही नहीं है। चरम वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद वैज्ञानिकों ने यह स्वीकारना आरम्भ कर दिया है कि प्रकृति में कोई भी गोल अथवा पूर्ण सीधी रेखा नहीं है तो बाह्य जगत में रेखा गणितीय पूर्णता को पाना भी प्रायः असम्भव है। यदि पाया भी जा सकता है तो मात्र मानव मस्तिष्क में।

“वैज्ञानिक जैकोव ब्रोनोस्की ने इस अपूर्णता को मानव जाति के लिए सौभाग्य सूचक माना है तथा कहा है कि इस अपूर्णता के कारण ही प्रकृति की खोज निरन्तर चलती रह सकेगी। फलतः विज्ञान का कभी अन्त नहीं होगा।” ब्रह्माण्ड विज्ञानियों को यह अनिश्चित जगत हमेशा एक प्रश्न का उत्तर पाने हेतु प्रेरित करता है कि इस ब्रह्माण्ड का क्यों व किस प्रकार उद्भव तथा विकास हुआ? सदियों एवं युगों बाद भी सटीक उत्तर का न मिलना मानवी बुद्धि की अपूर्णता का परिचायक है।

ऐसे कितने ही प्रश्न हैं जिनका सही उत्तर दे सकना प्रायः कठिन है। संसार में सबसे अधिक सुन्दर कौन है, अथवा कौन अब तक पैदा हो चुका है, यह बता सकना अत्यन्त कठिन है। कारण कि सुन्दरता के मापदण्ड हर देश, समाज एवं सभ्यता के अलग-अलग हैं। सबसे कुरूप व्यक्ति की तलाश कर सकना भी उतना ही दुस्कर काम है। ऐसे बुद्धिमान की खोज करनी हो जो अपने में परिपूर्ण हो तो आइन्स्टीन का उदाहरण देना भी समीचीन न होना क्योंकि सृष्टि के विराट् स्वरूप तथा रहस्यों को देखकर वे भी अपनी बुद्धि की तुच्छता- नगण्यता महसूस करते थे। जिन कार्यों के लिए किसी वैज्ञानिक, कलाकार, खिलाड़ी, मनीषी, समाज सेवी को सर्वश्रेष्ठ ठहराया जाता है तथा विभिन्न प्रकार की उपाधियाँ एवं पारितोषिक दिये जाते हैं, वे मान्यताएँ भी सामयिक ही होती हैं, चिरस्थायी नहीं रह पातीं।

न्यूटन, डारविन, मेण्डलीफ के भौतिक एवं जैविकी सिद्धान्त कभी अपने में परिपूर्ण समझे जाते थे, पर नयी खोजों ने उनके सिद्धान्तों को उलट-पलट दिया। संगीत, गायन, वादन, बलिष्ठता, समर्थता शारीरिक एवं मानसिक दक्षता के क्षेत्र में कितनी ही प्रतिस्पर्धाएँ समय-समय पर आयोजित होती रहती हैं। उनमें कितने ही नये रिकार्ड स्थापित होते तथा पुराने टूटते हैं। यह क्रम सतत् चलता रहता है तथा आगे भी चलता रहेगा। उनमें सर्वश्रेष्ठता एवं पूर्णता का वर्चस्व किसी का भी सदा कायम रह सकना असम्भव है।

बुद्धिवाद एवं प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर कसने पर तो सृष्टि का हर घटक- हर संरचना अपने में अपूर्ण अधूरी है। धार्मिक मान्यता के अनुसार ईश्वर पूर्ण है, सर्वज्ञ परन्तु जिन्होंने उसका साक्षात्कार नहीं किया, उनके लिए तो यह संसार ही ईश्वर का साक्षात् स्वरूप हो सकता है, जिसका भौतिक विश्लेषण करने पर अपूर्णता का ही दर्शन होता है। उस आधार पर तथाकथित बुद्धिजीवी उस सृष्टा को भी अपूर्ण घोषित कर सकते हैं।

ऐसे तर्कों की कसौटी पर विश्लेषण करने पर तो हर उपयोगी वस्तु अथवा घटक का एक काला पक्ष नजर आता है। दिन के साथ रात का अविच्छिन्न पक्ष जुड़ा है। फूल के साथ काँटे गुँथे होते हैं। सूर्य की किरणें जीवनदायी- प्राणतत्व से परिपूर्ण होती हैं पर गर्मी की दुपहरी में उसका ताप असह्य एवं कष्टकारक मालूम पड़ता है। उस आधार पर तो सूर्य भी अपूर्ण जान पड़ता है। चन्द्रमा की शीतलता एवं धवल प्रकाश हर किसी के मन को पुलकित करने में सक्षम है, पर कलुषित दृष्टि को तो उसका काला दाग ही दिखायी देता है। सामान्य व्यवहार में भी भले व्यक्तियों में बुराइयाँ ढूंढ़ते रहने की प्रवृत्ति निषेधात्मक मनोवृत्ति का परिचायक है।

सर्वत्र अपूर्णता ढूँढ़ते रहने की दोष दृष्टि का परिमार्जन आवश्यक है। अधिक अच्छा है सृष्टि के प्रत्येक घटक को परिपूर्ण माना जाय। बन पड़े तो उसे सुन्दरता एवं सुगढ़ता प्रदान करने का प्रयत्न किया जाय। मूल रूप से मनुष्य भी पूर्ण है। ‘स्व’ का रूप तमसाच्छन्न हो जाने के कारण अपूर्णता दिखायी पड़ती है। उस तमस् को हटाने तथा ‘स्व’ को प्रकाशित करने के लिए साधनात्मक प्रचण्ड पुरुषार्थ किया जाना चाहिए।


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