पदार्थों से जुड़े हुए अभिशाप

July 1983

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पदार्थों में गुण तो हैं पर चेतना नहीं। इतने पर भी वे चेतना के संपर्क में प्रभावित अवश्य होते हैं। इसलिए किन्हीं प्राणवान व्यक्तियों के उपयोग में आयी हुई वस्तुओं का विशेष महत्व माना और प्रभाव देखा जाता है।

तीर्थों की- स्मारकों की- संरचना प्रायः ऐसे स्थानों पर हुई है, जहाँ किन्हीं महाप्राणों द्वारा कोई प्रेरणा कार्य सम्पन्न किये गये। वहाँ असाधारण शक्ति का उद्गम उभरते देखा तो मूक-दर्शियों ने उस उभार में अनेकों को लाभान्वित करने की दृष्टि से ऐसी व्यवस्था बना दी जिसके सहारे जो भी उस संपर्क में आयें, नई चेतना प्राप्त करें।

ऋषियों के आश्रमों में गाय, सिंह एक घाट पानी पीते थे। यह उस क्षेत्र मैं फैले हुए प्राण प्रवाह की ही चमत्कार था। महामानवों के उपयोग में आई हुई वस्तुओं में भी ऐसा प्रभाव पाया गया है, जो उसका सान्निध्य लाभ लें। वे भी कुछ विशेष अनुदान प्राप्त करें।

एल्थिस- अमेरिका के एक बैंक में पुलिस ने एक अँगूठी सुरक्षा पूर्वक जमा की है। यह बिकाऊ है। मूल्य जो भी तय हो जाय, पर देनी उसी को है जो इसे समझ-बूझकर ले और परिणामों की जिम्मेदारी स्वयं उठाये।

इस अँगूठी के पीछे एक अजीब इतिहास जुड़ा हुआ है। वह अभिशप्त है। जहाँ भी गई, जिसके पास रही उसका पट्टाढ़ार करके हटी। ऐसे अनेक चक्रव्यूहों में भ्रमण करते-करते वह अन्ततः पुलिस के कब्जे में जा पहुँची। उस विभाग की समझ में भी न आया कि इसका आखिर क्या किया जाय, कारण कि पुलिस के कब्जे में जो भी वस्तु पहुँचे वह कायदे से उसके मालिक को लौटाई जाय। मालिक के न मिलने पर वह नीलाम ही की जा सकती है। भले ही मूल्य कुछ भी क्यों न मिले। जो राशि मिलेगी वह सरकारी खजाने में जमा होगी।

चर्चित अँगूठी चाँदी की बनी है। उसमें कुछ नगीने जड़े हैं। कहा नहीं जा सकता कि वे असली हैं या नकली। पर देखने में सुन्दर लगती है और मन पहनने को करता है। जिसने भी उसे पाया-खरीदा, पहना या पास रखा, उस पर मुसीबत ही टूटी। यहाँ तक कि अधिकार कर्त्ताओं में से कइयों को अपनी जानें गँवानी पड़ी।

आरम्भ में वह सहज ही खरीदी और पहनी गई। पर जब उसके अभिशप्त होने की चर्चा फैली तो कई साहसी लोगों ने इसे अन्ध विश्वास कहा और उस वहम को मिथ्या साबित करने के लिए हिम्मत के साथ खरीदा और डराने वाली चर्चा करने वालों को डरपोक- भ्रम ग्रस्त सिद्ध करने के लिए जान-बूझकर पहना। इस इरादे को उनने छिपाया भी नहीं वरन् घोषणा पूर्वक धारण किया और कहा- ‘देखें, उनका किस प्रकार क्या कुछ बिगड़ता है।’

इसे आश्चर्य ही कहना चाहिए कि अँगूठी ने किसी को भी नहीं बख्शा। विश्वासी और अन्ध-विश्वासी दोनों पर उसने समान रूप से गाज गिराई। जितनों ने उससे संपर्क साधा, वे आगे या पीछे हाथ मलते और पछताते ही रह गये। जब तक वे अपनी भूल समझते तब तक वे इस दुनिया से ही उठ गये।

इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना क्रम की शृंखला इस प्रकार है- सन् 1920 में वह सेन फ्रांसिस्को के एक जौहरी के शो केस में रखी थी। उसे भी कोई अनजान आदमी सस्ते मोल बेच गया था। जौहरी उसी दिन से बीमार रहने लगा था। बहुत दिन बाद हालीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता रूडोल्फ वैले जौहरी की दुकान से उसे खरीद लाए। उन्हें वह न जाने क्यों बहुत पसंद आई थी। अभिनेता की सभी फिल्में हिट होती थीं। पर उस अंगूठी को पहनकर जो फिल्म बनी थी, उसका भट्टा ही बैठ गया। बेचारे को दो वर्ष तक किसी कंपनी ने कौड़ी मोल न पूछा। अँगूठी उतारकर जब बक्से में बन्द कर दी तब कहीं नये काम मिले।

यह अँगूठी फिर रुडोल्फ ने पहनी। एक बार वह एक दावत में गया था। अचानक पेट में भयानक दर्द उठा और अस्पताल में पहुँचते-पहुँचते उसकी मृत्यु हो गयी। रुडोल्फ ने मरने से पूर्व वह अंगूठी अपनी प्रेयसी पोला नैग्री को उपहार में दी थी। वह भी हालीवुड में अभिनेत्री थी। पहनने के कुछ ही दिन बाद वह भी बीमार पड़ी, कुछ ही दिन में वह भी मर गई। बीमारी किसी डाक्टर के समझ में न आई।

पोला मरने से पूर्व वह अँगूठी अपने दूसरे प्रेमी संगीतज्ञ कोलवो को दे गई। उसे पहने एक सप्ताह भी न बीता था कि मोटर दुर्घटना में अचानक ही मर गया।

दुर्घटना के उपरान्त यह अंगूठी उसके संगीतज्ञ के मित्र कोंसिलो ने ले ली। आशंकावश कुछ दिन तो उसने उसे ताले में बन्द रखा पर जब कोई अनहोनी बात नहीं हुई तो उसे पहन लिया। एक सड़क दुर्घटना में उसकी भी मृत्यु हो गई।

इसके बाद वह कोंसिलो के भाई डेल के हाथ पड़ी। वहाँ अन्य सामान के साथ में उसे चोर चुरा ले गये। चोर की रास्ते में पुलिस से मुठभेड़ हो गई और वह गोली का निशाना बन गया।

यह अँगूठी पुलिस के कब्जे में चली गई। भेद खुला और इतिहास प्रकाश में आया। संयोगवश रूडोल्फ पर एक फिल्म बनी। उसका पार्ट अदा करना था हैरी नामक अभिनेता को। पुलिस से जमानत पर मांगकर वह अँगूठी लायी गई और फिल्माने के लिए उसे हैरी को पहनाया गया। हैरी भी बीमार पड़ा और अस्पताल में दाखिल होने के बाद जीवित लौटकर घर नहीं आया।

अन्ततः अंगूठी फिर पुलिस के पास वापस पहुँच गई। उसे नीलाम किया जाना है। कई बार पत्रों में विज्ञापन छपाये गये पर कोई खरीदने न पहुँचा तो पुलिस ने उसे थाने में भी नहीं रखा और बैंक के लॉकर में जमा कर दिया।

कब कोई खरीददार आये और वह बैंक से बाहर निकले। इसकी न जाने कितने दिन प्रतीक्षा चलती रहेगी।

जिस प्रकार अच्छे प्रभाव से वस्तुएँ अनुप्राणित होती हैं, उसी प्रकार बुरे लोगों के बुरे कृत्यों के संपर्क वाली वस्तुएँ भी उस माहौल से प्रभावित होती हैं और उपयोग करने वालों का अहित करती हैं। कई मृतात्मा की भी ऐसी ही मनोभूमि होती है कि वे अपनी उद्विग्नता- दुष्टता जिस वस्तु पर उडेल देती हैं वह अभिशप्त बनकर जहाँ भी जाती है संकट पैदा करती है। उनका जो भी उपयोग करता है दुःख पाता है। ऐसा विवरण एक अभिशप्त अँगूठी के बारे में उपलब्ध है।

घटना स्पने के विलमेज नगर की है। उस मकान में एक वृद्धा अपने परिवार सहित रहती और सामान्य गृहस्थी जैसा जीवन गुजारती थी।

सन् 1971 का अगस्त का महीना था। दोपहर का भोजन बनाकर वृद्धा उठ ही रही थी कि उसे सामने की दीवार पर एक आकृति दिखाई पड़ी। भित्ति चित्र जैसी, देखने में वह कुरूप और डरावनी थी। यह अचानक किसने बनायी? क्योंकर बन गई? इस असमंजस में देर तक रहने की अपेक्षा वृद्धा ने यह उपयुक्त समझा कि उसे गीले कपड़े से पोंछकर साफ कर दिया जाय। उसने वैसा ही किया। पर यह क्या, चित्र और भी अधिक साफ हो गया, मानों किसी ने धुँधले शीशे को साफ करके दृश्य और भी अधिक स्पष्ट कर दिया हो।

तस्वीर को मिटाने के कई प्रयत्न किये गये, पर सफलता न मिली। निदान के लिए वृद्धा ने मकान मालकिन को सूचना दी। उसने भी इस आश्चर्य को देखा और मिटाने के प्रयत्न सफल न होते देख कर दीवार का पलस्तर उखाड़कर इसे नये सिरे से करा देने की व्यवस्था की। वैसा हो भी गया। पर यह क्या? तस्वीर और भी दूने आकार की बन गई। न केवल आकार बढ़ा वरन् डरावनापन भी उभरने लगा। लगता था तस्वीर रो रही है और पीड़ा से आक्रांत होकर छटपटाती भी है। मकान मालकिन भी इस अद्भुत प्रसंग से उद्विग्न थी। उसने इन अंकनों को मिटाने के और भी उपाय किये पर सफल न हुए। एक के स्थान पर कई आकृतियाँ उभरने लगीं। उनमें से कुछ पुरुषों की थी, कुछ महिलाओं की।

वृद्धा ने डरकर घर खाली कर दिया और वह अन्यत्र चली गई। मालकिन को डर था कि कहीं उसका घर भुतहा होकर बदनाम न हो जाय- यह बला कहीं उसके परिवार को तंग न करने लगे।

चर्चा फैली। निकटवर्ती शहर कार्डोवा तक समाचार पहुँचा। कौतूहल वश अनेकों दर्शक आने लगे। पत्रकारों की मण्डली आई। वे भी स्तब्ध थे। आकृतियाँ हिलने-डुलने तक लगी थी अपने दुःखी स्थिति का परिचय देने वाले मनोभाव प्रकट कर रही थीं। पत्रकारों ने वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और अधिकारियों तक खबर पहुँचाई, तो वे सब इस अचीज की वास्तविकता परखने के लिए दौड़ पड़े। जो सम्भव था, सो जाँचा और जाना गया पर कुछ हाथ न लगा।

दीवारों पर अंकित होने वाली तस्वीरों का हिलना-डुलना देखकर विशेषज्ञों ने ऐसे यन्त्र लगाये जिनसे यदि वे कुछ वार्ता भी करती हो तो उसका आभास मिल सके। खुले कानों से तो वैसा कुछ सुनाई पड़ता नहीं था। यन्त्र रात्रि भर रखे रहे। सवेरे उन्हें ध्वनि बढ़ाकर सुना गया तो रोने, चीत्कार करने, गिड़गिड़ाने जैसी ध्वनियाँ थीं। वे कुछ कहते भी थे पर जो कह रहे थे वह समझा नहीं जा सका।

निदान यह सोचा गया कि पलस्तर उखाड़ने से परिवर्तन नहीं होता तो फर्श उखाड़कर देखा जाय, शायद उसके नीचे कोई कारण छिपा हो। खोदने पर एक दर्जन नर मुण्ड मिले। उनकी अवधि मध्ययुग के सामन्त काल की थी। अनुमान लगाया गया कि किन्हीं बर्वरों ने कोई नृशंस हत्याकाण्ड करके उनकी लाशें इस स्थान पर गाड़ दी होंगी। मुण्ड वहाँ से बीन कर अन्यत्र पहुँचाये गये। उन्हें विधिवत् दफनाया गया, इसके बाद दीवारों पर आकृतियाँ बननी बन्द हो गईं। सम्भवतः अन्त्येष्टि संस्कार- पिण्डदान- तर्पण के रूप में भारतीय परम्परा इसी कारण ऋषियों ने चलाई थी।

पिलखुवा (मेरठ) के एक आर्य समाजी परिवार में ऐसा प्रेत उपद्रव देखा गया जिस पर सभी स्तब्ध थे। अचानक सबके सामने कपड़ों के समान में आग जलने लगना और कीमती वस्तुओं को देखते-देखते भस्म हो जाना ऐसी घटना है, जिसकी सच्चाई को दर्शकों की भारी भीड़ ने बार-बार दिन दहाड़े देखा है। बन्द बक्शों के भीतर आग जलने लगना- पहने हुए कपड़ों में से शीलें टूटना, ऐसा दृश्य है जिस पर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता, पर वैसा होते अविश्वासियों और शंकाशीलों ने भी देखा है। उसके पीछे किसी की खुराफात तो नहीं है, इसके सभी सुरागों पर गुप्तचर विभाग ने हर सन्देह को ध्यान में रखा है पर जाना कुछ न जा सका।

मरण के उपरान्त भी जीवन की सत्ता बनी रहती है। न केवल सत्ता का अस्तित्व रहता है वरन् सम्बन्धियों के साथ किसी न किसी प्रकार सम्बन्ध बनाये रहने की भी उसकी इच्छा रहती है। कभी यह सम्बन्ध उदार होते हैं, उनमें सहयोग दृष्टिगोचर होता है। कभी आक्रोश प्रतिशोध। आमतौर में उद्विग्न आत्मायें अपने विक्षोभ को डरावने या हानिकारक प्रसंगों के रूप में प्रकट करती हैं। हत्या, अपघात, दुर्घटना आदि से जो बिना पूर्व तैयारी का मरण होता है उसमें उद्विग्न रहने के अधिक सम्भावनाएँ रहती हैं और ऐसी आत्माएँ ही प्रायः दूसरों को डराती या त्रास देती जाती हैं। इसके विपरीत सन्तुष्ट, उदात्त और भावनाशील आत्माओं को संपर्क और सौजन्य एवं सहयोग ही प्रदान करता देखा गया है।


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