नीति शास्त्रियों की दृष्टि में विकसित व्यक्तित्व

July 1983

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व्यक्तित्व की संरचना एवं विकास एक लम्बे समय से शोध का विषय रहा है। मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र, दर्शन एवं विज्ञान- हर क्षेत्र के विद्वानों ने समय समय पर अपने मन्तव्य प्रकट किए हैं तथा सामाजिक परिवेश में इसके विकास की सम्भावनाओं का अध्ययन किया है। विकसित व्यक्तित्व कैसे स्वयं को ऊँचा उठाकर लोक-सम्मान का पात्र बनता है तथा परिस्थितियों की अनुकूलता- प्रतिकूलता कैसे उसे प्रभावित करती है, इस पर जितना अधिक अध्ययन नीतिशास्त्र की विधा के अंतर्गत किया गया है, उतना अन्य किसी भी विषय के मूर्धन्यों द्वारा नहीं हुआ।

विश्व विख्यात नीतिशास्त्री मनीषियों ने विकसित व्यक्तित्व को ही महामानव की संज्ञा दी है। इसके लिए वे परिस्थितियों को महत्व नहीं देते वरन् उत्कृष्ट मनःस्थिति का होना आवश्यक मानते हैं। उनके मूल्याँकन की कसौटी से किसे खोटा कहाँ जाय, इस पर तो प्रकाश नहीं डाला गया, लेकिन खरा होने के कारण बताते हुए इसी लक्ष्य का उन्होंने समर्थन किया है कि जिसका दृष्टिकोण जितना परिष्कृत होगा, जिसमें आदर्शों के प्रति जितनी दृढ़ निष्ठा होगी- वह उसी अनुपात में श्रेष्ठजनों की बिरादरी में सम्मिलित होता और सम्मान पाता चला जाएगा।

ऐसी श्रेष्ठतावादी मान्यताओं को प्राधन्य देने वाले कतिपय विद्वानों में ‘अब्राहम मेस्लोव’ का प्रमुख स्थान है। उन्होंने अपने जीवन काल में महानता अर्जित करने वाले, लोक सम्मान पाने वाले महापुरुषों के व्यक्तित्व का बड़ी गहराई से अध्ययन किया। मानव मात्र को समर्पित लिंकन एवं गाँधी जैसे व्यक्तियों का उदाहरण देते हुए वे उन्हें क्षमता सम्पन्न, प्रतिभा से भरा पूरा, भावना सम्पन्न “एनरीच्ड व्यक्तित्व” मानते हैं। ऐसे महामानवों की विशेषताओं का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि “ऐसे व्यक्ति कभी-कभी ही जन्म लेते हैं तथा अपनी शारीरिक इच्छाओं- आकाँक्षाओं को उच्चस्तरीय जरूरतों के आगे न्यौछावर कर देते हैं। छोटी-छोटी जरूरतों का पूरा न होना उनके पक्के व्यक्तित्व को हिला नहीं पाता। सामान्य प्रलोभन उन्हें डिगा नहीं पाते।” आगे वे कहते हैं- “किसी भी सामान्य अथवा असामान्य व्यक्ति का बहिरंग में प्रकट होने वाला व्यवहार सिर्फ ‘मोटिवेशन’ जैसी मनोवैज्ञानिक वृत्ति के आधार पर ही नहीं समझाया जा सकता। लड़ाई के मैदान में कोई भी व्यक्ति क्यों हँसते-हँसते प्राणों को त्याग देता है? कौन से कारण ऐसे हैं जो समाज सेवियों,- देश प्रेमियों को कष्ट उठाने के लिये प्रेरित कर देते हैं? इनका उत्तर देते हुये वे कहते हैं कि- “ये व्यक्तित्व ऊँचे उठे हुये व्यक्तित्व होते हैं जो ‘स्व’ की गरिमा को पहचान कर अपने अन्तः का विस्तार कर सकने में सफल होते हैं।”

“ऐसे व्यक्ति देखने में तो सामान्य ही होते हैं पर इनका चिन्तन स्तर ऊँचा होता है। स्वयं कष्ट सहते हुये सिद्धान्तों के प्रति अटूट निष्ठा इन्हें कुछ उच्चस्तरीय आनन्द की अनुभूति होती है” -ऐसा मेस्लोव का मत है। मात्र पेट और प्रजनन के लिये जीने वाले एवं सिद्धान्तों के प्रति समर्पित व्यक्तियों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए उन्होंने लिंकन जैसे चालीस व्यक्तित्वों की तलाश की जिनमें से कुछ ऐतिहासिक व कुछ जीवित थे।

उन्होंने पाया कि इन सबमें विधेयात्मक चिन्तन की प्रमुखता थी। इनका व्यक्तित्व आशावादिता से सम्पन्न था जो उन्हें विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी मनःस्थिति को विचलित नहीं होने देता था। कुछ जीवित व्यक्तियों को मेसलाव ने कोर्सेकॉफ टेस्ट से भी गुजारा। सारी स्थिति का पर्यवेक्षण कर उन्होंने, महामानव- जिन्हें उन्होंने ‘‘सेल्फ एक्चुअलाजिंग” व्यक्ति सम्बोधन दिया है के ये लक्षण बताये हैं।

(1) वस्तुस्थिति को स्पष्ट समझकर उसके साथ अधिक आरामदेह सम्बन्ध स्थापित कर पाना उनकी विशेषता होती है। ऐसे व्यक्ति कभी पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं होते। वे परिस्थिति को यथास्थिति देख समझकर बिना उससे विचलित हुए अपने कार्य का स्वरूप निर्धारित करते हैं। कोई भी शंका या अड़चन किसी काम में आने पर वे उसे एक सुखद चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं, उससे डरते नहीं।

(2) स्वयं या अन्य किसी व्यक्ति को उसकी स्वभाव की विचित्रताओं के बावजूद स्वीकार करना, यह विशेषता महान व्यक्तित्वों में ही पाई जाती है। अतिवादियों जैसी “पूर्ण पुरुष” की तलाश या अपेक्षा उन्हें नहीं रहती। वे न तो अतिवादी होते हैं, न निरपेक्षतावादी और न पूर्णतावादी। मानव को कमजोरियों का पुतला मानकर उस पर दुःखी न होकर वे उन्हें सुधारने का प्रयास करते हैं। स्वयं की जिन्दगी में निरन्तर आते रहने वाले कठिन संघर्ष उन्हें व्यथित नहीं करते।

(3)वे अपनी बाह्य एवं आन्तरिक जिन्दगी में सरल एवं बनावट से रहित होते हैं। अन्दर एवं बाहर से एक, अभिव्यक्ति में सन्तुलन स्पष्ट होने के कारण उन्हें स्वयं तो तनाव होता नहीं, साथ ही औरों के लिए भी दोष के पात्र नहीं बनते। इसे उन्होंने ‘स्पान्टेनिटी’ का गुण कहा है।

(4) ये व्यक्ति कोलाहल से दूर फिर भी समाज के प्रत्यक्ष संपर्क में रहते हैं। समाज की समस्याओं व उनको सुलझाने के लिए विकल्प इनके चिन्तन में सतत् चलते रहते हैं पर फिर भी एकान्तवास इन्हें अधिक प्रिय होता है।

(5) इनकी इच्छाएँ कभी भी स्वार्थ परक न होकर उद्देश्य परक होती हैं। स्वार्थ- परमार्थ में बदल जाता है। अपनी समस्याओं को वे समाज की समस्याओं के आगे भूल जाते हैं।

(6) ऐसे लोगों को स्वसंचालित, स्वतन्त्र वातावरण के निर्माता कहा जा सकता है। स्वयं में दृढ़ होने के कारण वे अपने चारों ओर एक स्वतन्त्र वातावरण का निर्माण कर सकने में सफल होते हैं। ये अपने मनस्वी होने का परिचय, श्रेष्ठ वातावरण का स्वयं अपने बलबूते सृजन करके देते हैं।

(7) हमेशा जवानों जैसी मस्ती, ताजगी एवं उत्साह युक्त होने के कारण उन्हें कर्माधिक्य के बावजूद थकान नहीं होती।

(8) वे प्रकृति से अधिक समीप होते हैं एवं उसमें व्याप्त सौंदर्य को सामान्य आदमी से अधिक पैनेपन से समझते एवं अनुभव करते हैं।

(9) वे मानवता से असीम प्यार करते हैं। मानव की सहज स्वाभाविक बुराइयों को देखकर भी इनका स्नेह कम नहीं होता। बुराई की वृत्ति से तो घृणा करते हैं पर बुरे व्यक्ति से नहीं। चूँकि ये सभी से गहरा स्नेह रखते हैं, अतएव इन्हें भी प्रत्युत्तर में सभी से सौहार्द्र, स्नेह मिलता है।

(10) अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए किसी प्रकार की सौदेबाजी इन्हें मंजूर नहीं। ऐसे हर काम में ईमानदार होते हैं। सफलता प्राप्ति के लिए अनैतिकता का सहारा नहीं लेते, न ही मित्रता का गला घोंटते हैं।

(11) विनोद प्रियता उनके स्वभाव का अंग होती है। गम्भीर से गम्भीर अवसरों पर अपनी सहज विनोदप्रियता से ये वातावरण को हल्का बनाये रखते हैं। इनके व्यंग्य बाणों में कटुता एवं दूसरों का उपहास नहीं बल्कि स्वाभाविकता एवं शिक्षण, मस्ती और हल्कापन निहित होता है।

(12) सृजनात्मकता इनकी मूल प्रवृत्ति होती है। वे ध्वंस की नहीं निर्माण की योजनाएँ बनाते हैं। सृजन के लिए थोड़ी-फोड़ करनी पड़े तो बात दूसरी है। मैस्लोव ने जिनका अध्ययन किया, उनमें इन मौलिक गुणों की प्रधानता पायी। हर महामानव इन गुणों से सम्पन्न था।

महामनीषी जे.एम. ग्राहम ने अपनी पुस्तक “पर्सनालिटी’ में व्यक्तित्व के स्वरूप, विशेषताओं एवं विकास की सम्भावनाओं पर विस्तृत प्रकाश डाला है। वे कहते हैं कि “व्यक्तित्व से अभिप्राय एक ऐसी सर्वांगपूर्ण जीवन पद्धति से है जो सच्ची मैत्री भावना, स्नेह, सद्भाव एवं सुन्दर अनुभवों से भरा हुआ हो तथा जिसमें व्यक्ति को यह सन्तोष हो कि उसने जीवन के श्रेष्ठतम आदर्शों और विश्वासों के अनुकूल आचरण किया हो। सज्जनता, विनयशीलता, शिष्टता, उदारता, सरलता और दृढ़ आत्म-विश्वास श्रेष्ठ व्यक्तित्व के आवश्यक तत्व हैं। उत्कृष्ट व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति महत्वाकाँक्षाओं के पीछे नहीं दौड़ते। उनमें दूसरों के प्रति असीम सद्भावना भरी होती है तथा सभी के सुख-दुःख के साथी होते हैं।”

‘दी गेन ऑफ पर पर्सनालिटी’ ग्रन्थ में नीतिशास्त्री डब्ल्यू.सी. लूसमोर ने विकसित व्यक्तित्व की व्याख्या करते हुए उसे तीन हिस्से में बांटा है। एक को विवेक, दूसरे को पराक्रम और तीसरे को साहचर्य नाम दिया है। उनकी और अधिक व्याख्या करते हुए वे कहते हैं- आदर्श व्यक्ति सदैव चिन्तनशील होता है। चिन्तन-मनन के बिना कोई मनुष्य अपने लिए स्थिर नैतिक सिद्धान्त का निर्धारण नहीं कर पाता और समाज की दिशाधारा के प्रवाह में बह जाता है। नैतिक सिद्धान्तों के निश्चय-निर्धारण के लिए ज्ञानोपार्जन अत्यावश्यक है। ज्ञानार्जन के लिए व्यक्ति को चिन्तनशील- विवेकशील होना चाहिए। सिद्धान्तों को व्यावहारिक जीवन में उपयोग करते समय सतत् चिन्तन आवश्यक है।”

“चिन्तन जीवन का सैद्धान्तिक पक्ष है। जीवन का व्यावहारिक पक्ष- चिन्तन श्रेष्ठ कार्यों के रूप में परिलक्षित होता है। विचार मन्थन से जो सिद्धान्त निर्धारित हों उनको सत्यता की कसौटी के लिए व्यावहारिक क्षेत्र में उतारना होता है। उच्च आदर्शों व नैतिक नैतिक सिद्धान्तों का व्यवहार में आना ही नैतिक जीवन है। सिद्धान्तों के कार्यान्वयन के लिए क्रियाशीलता- गतिशीलता नैतिक जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है। संसार के सभी महापुरुष जीवन भर क्रियाशील रहे- अनवरत श्रम-साधना करते रहे हैं। शारीरिक व मानसिक श्रम में संतुलन रख निरन्तर लगे रहकर उन्होंने महानता अर्जित की। गाँधी इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। व्यक्तिवादी संकीर्ण चिन्तन सर्वथा एकाँगी है। आदर्श व्यक्ति आत्म-कल्याण की साधना के साथ-साथ समाज की भी भलाई करता है। वह समाज के लोगों से सहानुभूति रखता है और उन्हें अपने उत्कृष्ट विचारों एवं श्रेष्ठ व्यवहार से निरन्तर ऊँचा उठाने का प्रयास करता है।”

वे कहते हैं कि “क्रिया और विचार नैतिक जीवन के व्यायाम और संगीत है। एकान्त के समय जीवन के कार्यों की समीक्षा की जाती है और एकान्त में प्राप्त सिद्धान्तों की सामाजिक जीवन में परख होती है।” इस प्रसंग में “एसेआन सोसाइटी एण्ड सालीट्यूड” में इमसैन महाशय का कथन भी उल्लेखनीय है-

“हमारे विचार तो एकान्त में उद्भूत हों, परन्तु हमारी क्रियाओं का क्षेत्र समान ही हो। जब हम अपने विचारों को स्वतन्त्र रखते हैं और अपने संसर्ग के लोगों के प्रति सहानुभूति नहीं खोते, तो हम आदर्श जीवन को चरितार्थ करते हैं।”

मध्यम मार्ग का अनुसरण करने वाला आदर्शवादी व्यक्ति अतिवादी नहीं होता, उसके चिन्तन और कर्त्तव्य में साम्य होता है। मनुष्य को अपने गुण और अवगुणों का बोध तभी होता है जब समाज के लोगों के संपर्क में आता है। बाह्य जीवन में वह सामान्य मनुष्यों की भाँति रहता है। आदर्श व्यक्ति का मस्तिष्क स्वतन्त्र विचार के जगत में विचरण करता है, पर हृदय संसार के सामान्य लोगों के साथ बहता है।”

इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध नीतिशास्त्री विद्वान एफ. एच. ब्रेडले ने कहा है- “मनुष्य अपने व्यक्तित्व को समाज में जितना ही अधिक घुला-मिला देता है उतना ही अधिक उसको नैतिक रूप से विकसित मानना चाहिए। वस्तुतः सामाजिकता से पृथक् मनुष्य की नैतिकता का मूल्य एवं उपयोगिता ही नहीं है। प्रत्येक मनुष्य को सर्वप्रथम अपने आचरण में नैतिकता का समावेश करना चाहिए एवं सामान्य जीवनयापन की रीति-नीति की इसके लिए सर्वोत्तम मानना चाहिए नैतिक जीवन का विकास करने के लिए संकुचित-संकीर्ण नियम अथवा विचारधारा की अपेक्षा व्यापक उदार नियमों को अपनाना अधिक उत्तम है चाहे वे व्यापक नियम अपने देश, धर्म, समाज के हों अथवा किसी अन्य के द्वारा प्रतिपादित।

नीति शास्त्रियों द्वारा की गयी यह व्याख्या पूर्णतः भारतीय अध्यात्म शास्त्र के उन प्रतिपादनों से मेल खाती है जिन्हें पूर्वार्त्त मनोविज्ञान के नाम से जाना जाता है। आज महामानवों की उत्पत्ति- महानता के बीजाँकुरों के विकास हेतु ऐसे ही विचारों के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता भी है।


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