सर्वोपरि यज्ञ-पीड़ा निवारण

July 1983

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ऐसा भयंकर अकाल पहले कभी नहीं पड़ा था। समस्त अभयारण्यक ताप और भूख की ज्वाला में जल रहा था। राजकोष में जमा अन्न भण्डार भी समाप्त हो चला था। अन्न एवं पानी के एक साथ अभाव पड़ने से क्षुधार्थ लोग दम तोड़ रहे थे। राहत के सारे राजकीय उपाय-उपचार असफल सिद्ध हो रहे थे। सम्राट विडाल ने सभी मनीषियों, तत्त्वदर्शियों तथा ज्योतिर्विदों की गोष्ठी बुलायी। विचार विमर्श का क्रम चला। सर्वसम्मति से निश्चय हुआ कि भगवान इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए विशाल यज्ञ का आयोजन किया जाय। तैयारियाँ आरम्भ हुईं।

सन्त शार्गंधर भी उसी प्रदेश में रहते थे। उनके दो पुत्र, पत्नी भी क्षुधा पिपासा के कारण प्राण त्याग चुके थे। असमय सगे सम्बन्धियों पुत्रों के बिछुड़ने का उन्हें जितना दुःख हुआ, उससे अधिक इस बात का था कि यदि उपाय न निकला तो प्रदेश की अधिकाँश जनता अकाल के कारण दम तोड़ देगी। इस आशंका से सन्त का हृदय द्रवित हो उठा।

भूख की ज्वाला में जल रहे लोगों के लिए अन्न का प्रबन्ध करना पहली और प्रमुख आवश्यकता थी। पड़ौसी राज्य से सहयोग पाने अन्न जुटाने के लिए वे चल पड़े। कौमीलिया नामक स्थान पर जाकर एक धनाढ्य के यहाँ नौकरी कर ली। ब्राह्मण सन्त की विद्वता तथा आचरण की पवित्रता से विशेष प्रभावित हुआ। वास्तविकता मालूम होते ही उसने सन्त को एक सहस्र मुद्राएं दीं। उन्हें लेकर वे स्वदेश लौटे किन्तु अभी सीमा पर ही पहुँच पाये थे कि देखा सैकड़ों व्यक्ति भीख माँग रहे हैं, भूख से पीड़ित हैं। सन्त की करुणा उमड़ी, एक सहस्र मुद्राएं उन्होंने भूखे लोगों को बाँट दी और फिर काम की खोज में लौट पड़े।

इस बार एक किसान के यहाँ नौकरी मिली। किसान उनकी परिश्रमशीलता से बहुत प्रभावित हुआ। प्रसन्न होकर उसने बहुत-सा अन्न तथा कुछ मुद्राएँ दीं। जैसे ही कमाई लेकर राज्य सीमा में प्रवेश किया, अनेकों नारियाँ अपने मरणासन्न अबोध बच्चों को लिए बिलख रही थीं। अपने बच्चों के मरण का दुःख वे भुगत चुके थे। स्मृति पटल पर वह याद अभी ताजी थी। बिना विलम्ब किये उन्होंने उस मुद्रा से वस्त्र खरीदे तथा उसे अन्न सहित स्त्रियों में बाँट दिया। पुनः वे वापस लौटे और एक चाण्डाल के यहाँ काम करना आरम्भ किया।

पूरे सप्ताह काम करने के बाद चाण्डाल ने उन्हें पाँच रोटियाँ दी। शार्गधर को इस बीच भूखे रहकर ही काम करना पड़ा। रोटियाँ लेकर अपने घर वापस चले। जैसे ही एक गाँव में पहुँचे, एक कारुणिक दृश्य दिखायी पड़ा। एक किसान के छः पुत्रों को कहीं से एक रोटी मिली थी। सभी भूखे थे। रोटी, एक दूसरे से छिनने के लिए झगड़ रहे थे। सन्त का हृदय हाहाकार कर उठा। एक रोटी के लिए ऐसी छीना-झपटी! दुर्दैव का यह कैसा प्रकोप? उन्होंने बच्चों को शान्त किया और अपनी पाँचों रोटियाँ बच्चों में बांट दीं। बच्चे शान्त हो गये। रोटियां खाने लगे। उनकी नम आंखें मूक रूप से सन्त के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर रही थीं।

यह दृश्य सभी दैव शक्तियाँ देख रही थीं। जैसे ही उन्होंने लड़कों के हाथ में रोटियाँ थमायीं उसी क्षण आकाश में तेज ध्वनि हुई, बिजली कड़की, देखते ही देखते घनघोर घटाएँ आकाश में घिर आयीं और मूसलाधार बारिश होने लगी। उसी दिन से अकाल का प्रकोप समाप्त हो गया। प्यासी धरती ने जी भर कर अपनी प्यास बुझायी। परितृप्ति होते ही उसके पेट से अंकुर फूटने लगे।

उधर सम्राट विडाल के यहाँ यज्ञ की सभी तैयारियाँ पूर्ण हो चुकी थीं। मंगल कलश स्थापित किये जा चुके थे। इन्द्र देवता का आह्वान आचार्यगण कर रहे थे। एकाएक वृष्टि आरम्भ हुई देखकर विद्वान गण आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने इन्द्रदेव की स्तुति की। वे प्रकट हुए। आचार्यगण ने सविनय पूछ- देवेश! इस अप्रत्याशित कृपा का कारण क्या है? न ऋचाएं बोली गयीं, न आहुतियाँ पड़ीं, न यज्ञ पूरा हुआ। पर इसके उपरान्त भी आपकी करुणा मेघ बनकर कैसे बरसने लगी?

देवेन्द्र मुस्कराये, बोले- तात! यज्ञ तो पूरा हो गया। अब आप किस यज्ञ की तैयारी कर रहे हैं। विद्वानों की सभा में खलबली मच गयी। सबके मुँह से एक ही प्रश्न निकला- किसने सम्पन्न किया यह यज्ञ?

इन्द्र ने सन्त की परदुःख का कारण बताते हुए कहा- मनीषियों! परमार्थ- सबसे बड़ा यज्ञ है। जहाँ यह यज्ञ सम्पन्न होता रहेगा, वहाँ अकाल की छाया टिक नहीं सकती सुख शान्ति एवं समृद्धि की वृद्धि ऐसे ही यज्ञ पर अवलंबित है।


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