“बस तेरी रजा रहे, तू ही तू रहे”

July 1983

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आत्मोत्कर्ष की साधना में बाह्य शत्रुओं- अवरोधों से जितना लड़ना- जूझना पड़ता है, उनसे कहीं अधिक अपनी वृत्तियों से युद्ध करना पड़ता है। जन्म जन्मांतरों के संस्कारों तथा इस जन्म के विकृत अभ्यासों से आसानी से छुटकारा नहीं मिल पाता। वे इतने दृढ़ एवं हठीले होते हैं कि न तो उन्हें बाँधा जा सकता है, न ही जड़ से उखाड़ फेंकना सम्भव है। कर्मयोग, ज्ञानयोग की साधनाएँ शरीर, मन एवं बुद्धि की परतों को ही प्रभावित कर पाती हैं। अन्तःकरण की गहरी परतों में जमे सूक्ष्म संस्कारों का परिशोधन, भावों के उदात्तीकरण के बिना सम्भव नहीं होता। यह प्रयोजन भक्तियोग के माध्यम से ही पूरा हो पाता है।

कर्मयोग से पुरुषार्थ को सही दिशा में नियोजन का अवसर मिलता है। ज्ञानयोग से तत्व दृष्टि विकसित होती है, उचित अनुचित के बीच, औचित्य-अनौचित्य के बीच अन्तर परखने की क्षमता अर्जित होती है। पर बुद्धि की पहुँच सीमित है। अधिक से अधिक उससे भौतिक जगत की गुत्थियों को सुलझाने, घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करने में मदद मिल सकती है। परमात्मा- वह परम तत्व, बुद्धि की पकड़ सीमा से परे है।

काण्ट जैसे प्रखर पाश्चात्य दार्शनिक को भी सत्य की खोज हेतु अन्ततः श्रद्धा विश्वास का सहारा लेना पड़ा, बुद्धि से आगे बढ़कर भावनाओं का सम्बल लेना पड़ा। उनकी पुस्तक ‘क्रिकेट ऑफ दी प्योर रीजन’ मानवी बुद्धि परिसीमा का यथार्थ उदाहरण प्रस्तुत करती है। सर्पल्ली राधाकृष्णन जैसे विद्वान ने सच ही लिखा है कि मनुष्य बुद्धि एक ऐसे विषय के संदर्भ में विश्वसनीय घोषणा करने में नितान्त असमर्थ है जो उसकी सीमा के परे है। किन्तु मानवीय हृदय उस परम तत्व को समझने में पूर्णतः समर्थ है।

हृदय भाव सम्वेदनाओं का वह मर्मस्थल है जो भक्तियोग की साधना से तरंगित होता तथा अपनी भाव तरंगों को निस्सृत करता रहता है। भक्ति उस परम तत्व की अनुभूति का एक महत्वपूर्ण साधन है। सामान्य व्यक्ति के लिए ज्ञानयोग, कर्मयोग के मार्ग का परिपालन प्रायः कठिन पड़ता है। क्योंकि प्रचण्ड वैराग्य तथा प्रखर विवेक के अभाव में कर्माकर्म का सही निर्णय करते नहीं बनता। ध्यान धारणा की उच्चस्तरीय साधनाओं के लिए जिस एकाग्रता की आवश्यकता पड़ती है, वह जुट नहीं पाती। भक्तियोग इन दुर्बलताओं से मुक्त है। वह अभ्यासगत संस्कारों की परिधि को चीरते हुए मनोवैज्ञानिक तरीके से अध्यात्मिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करता है। सहज मानवी वृत्तियों को समाप्त करना सम्भव नहीं है, उनका उदात्तीकरण करके सद्वृत्तियों में परिवर्तन सम्भव है। भक्ति के माध्यम से यह प्रयोजन सहज ही पूरा हो सकता है।

शक्ति शब्द ‘भज्’ धातु से बना है। जिसका अर्थ है सेवा करना। सेवा किसकी? परमात्मा की। परमात्मा व्यक्ति नहीं शक्ति है। फिर शक्ति की सेवा किस प्रकार हो? सेवा तो मात्र साकार की- जीवन्त व्यक्तियों की हो सकती है। इसी असमंजस की स्थिति में भक्ति का दार्शनिक स्वरूप समझना अनिवार्य हो जाता है अन्यथा भटकाव की गुँजाइश तथा अन्धविश्वासों के जाल जंजाल में फँसने की सम्भावना प्रबल रहती है। विराट् सृष्टि उस परमात्मा का साकार स्वरूप है- जड़ चेतन उसकी अभिव्यक्ति है। सबमें वह समाया हुआ है। किसी भी देवता को साकार इष्ट मानकर उस विराट् से तादात्म्य जोड़ने- संपर्क स्थापित करने का ही प्रयास किया जाता है।

भक्ति से अपनापन का- पारिवारिकता का दायरा विस्तृत होता है। अपनेपन को इष्ट में घनीभूत तो किया जाता है पर उसकी परिणति विराट् के प्रति निःस्वार्थ प्रेम के रूप में होती है। भक्ति सार्थक हुई अथवा नहीं, इसकी पहचान करनी हो तो सर्वप्रथम अपना अन्तरंग टटोलना चाहिए कि वह संकीर्णता की परिधि को तोड़कर किस सीमा तक बाहर निकला तथा मानव मात्र के प्रति कितना जुड़ा। प्रतिमा के समक्ष आँसू बहाना मात्र भक्ति नहीं। भावातिरेक की स्थिति में किसी के लिए भी यह संभव है। एक सीमा तक भावों के उद्दीपन में यह सहायक हो सकता है।

सच्चे भक्त के मन में ‘सियाराम मय सब जग जानी’ की भावनाएँ हिलोरें लेती हैं। वह सबमें ईश्वर का- सर्वत्र उसकी छवि का दर्शन करता है।

विराट् की इस अनुभूति का आरम्भ इष्ट निर्धारण उसके प्रति समर्पण के रूप में करना पड़ता है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि सजातियों के प्रति आकर्षण अधिक होता है। ईश्वरी निराकार है पर आरम्भ में उसकी साकार कल्पना इष्ट के रूप में- देवी-देवताओं के रूप में इसीलिए करनी पड़ती है कि उससे तादात्म्य जोड़ना मानवी मन के लिए सुगम पड़ता है। निराकार सत्ता कल्पनातीत है। उसकी अनुभूति और भी कठिन है। साकार से सम्बन्ध जोड़ना, उसके सम्बन्ध में उच्चस्तरीय कल्पना करना, तद्नुरूप प्रेरणा ग्रहण करना अधिक सरल है। साथ ही उपासना में सत्, चित्त के साथ आनन्द की अनुभूति की भी कामना रहती है। इष्ट को सर्वश्रेष्ठ, सर्वगुण सम्पन्न, अलौकिक सुन्दरतम् अभिव्यक्त किया जाता है। उसमें मन को दिव्य आनन्द के सागर में डुबकी मारने का अवसर मिलता है। मन की प्रकृति चंचल है। सरस आधार न मिलने पर वह भटकता है। वह सम्बल मिलते ही भटकाव की गुँजाइश नहीं रहती। इष्ट के नाम, रूप, गुणों का चिन्तन साधक को वैसा ही बनने की प्रेरणा देता है।

भक्ति की आधारशिला श्रद्धा और विश्वास है। बृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार श्रद्धा मन की प्रजा है। भक्त के ये ही सम्बल है, जिन्हें पकड़कर वह साधना मार्ग पर आगे बढ़ता है। श्रद्धा विश्वास शक्ति के स्रोत हैं। सन्त तुलसीदास इन्हीं की अभ्यर्थना शक्ति और शिव के रूप में करते हैं। “भवानी शंकरी वन्दे श्रद्धा विश्वास रुपिणों” के रूप में उपरोक्त तथ्य का ही रहस्योद्घाटन किया गया है। श्रद्धा से अभिप्राय है- श्रेष्ठ आदर्शों के प्रति असीम प्यार। जिनने ईश्वर को लक्ष्य माना है उन्हें सद्मार्ग पर, आदर्शों पर चलने के लिए सत्साहस जुटाना चाहिए। सच्चे भक्त के यही लक्षण हैं। जिनमें प्रतिभा की पूजा अर्चा तक अपनी भक्ति कि इतिश्री मान ली है, समझना चाहिए कि वे कर्मकाण्डों की मात्र लकीर पीट रहे हैं, उनका विकास अवरुद्ध हो गया। भक्ति जब जीवन में अवतरित होती है तो उस सूफी सन्त की भाँति उद्गार फूटते हैं कि “न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे, तेरी रजा रहे, तू ही तू रहे।” तब भक्त ‘गेटे’ की भाँति कह उठता है “हे संसार के रक्षक तू मुझे सदा सन्मार्ग पर चलाना, अन्धकार में जब कभी भी भटक जाऊँ, प्रकाश की एक किरण चमका देना, मुझे गिरने से बचा लेना।”

भक्त का विश्वास एक शक्तिशाली ‘ऑटो सजेशन’ का कार्य करता है तथा प्रत्येक विपत्ति में उसकी सहायता करता है। प्रचण्ड आत्म-विश्वास तथा आत्म-शक्ति का उद्भव होता है। सर्व समर्थ शक्ति परम दयालु तथा आपत्तिकालीन परिस्थितियों में सहायक है, यह विश्वास साधक को आशावादी बनाता, उसे अधिक पुरुषार्थी बनने तथा सदा सन्मार्ग पर चलने की ही प्रेरणा देता है। सम्बल महान का पकड़ा गया है। इसलिए प्रेरणाएँ भी उसी के अनुरूप मिलेंगी। वैसा ही चिन्तन चलेगा। मन में सत्कार्यों के प्रति उमंग उमड़ेंगी। अन्याय भौतिक अवलम्बनों की तुलना में ईश्वर का सम्बल अधिक समर्थ, सहायक तथा फलदायी है।

श्रद्धा विश्वास अटूट हो तो वह निराकार सत्ता साकार रूपों में भी प्रकट हो सकती है। ऐसी स्थिति में ही काली का साकार रूप लेकर वह सत्ता रामकृष्ण परमहंस के साथ भोग लगाती देखी जा सकती है। इस स्तर की श्रद्धा होने पर तो वह विवाद भी समाप्त हो जाता है जो साकार निराकार की मान्यता को लेकर खड़े होते हैं। भक्ति का चरम परिणति भक्त के भगवान में विलय-विसर्जन के रूप में होती है। इस चरम उपलब्धि के लिए भक्ति का अवलम्बन लेना जितना आवश्यक है उतना ही उसका सही स्वरूप समझना- उसे आत्मसात करना।


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