अपनों से अपनी बात - वर्षा ऋतु के तीन विशेष सत्र

July 1983

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हर वर्ष ऊँची कक्षा में चढ़ते समय पुस्तकें बदल जाती हैं। हर वर्ष बन्दूक, मोटर, रेडियो, टेलीविजन आदि का नया लाइसेंस लेना पड़ता है। क्लर्क की जब अफसर पद पर उन्नति होती है तो उस नये कार्य को सम्भालने के लिये नई ट्रेनिंग लेनी पड़ती है। प्रज्ञा पुत्रों के सम्बन्ध में भी यही बात है और उन्हें अवाँछनीयता के प्रति घमासान लड़ाई लड़ने के लिये सेनापतियों जैसा युद्ध−कौशल प्राप्त करने, नये-नये मोर्चे सम्भालने के लिये नये सिरे से नई रणनीति सीखनी पड़ती है। निर्माण कार्य में संलग्न रहने वाले इंजीनियरों का उतनी ही जानकारी से नहीं चल पाता जितना कालेज छोड़ते समय पल्ले बँधा है। विभिन्न स्तर के निर्माण कार्यों की अपनी-अपनी स्थानीय एवं सामयिक समस्यायें होती हैं। उनके स्वरूप समाधान समझने के लिये समय-समय पर नये प्रशिक्षणों का लाभ लेना पड़ता है। अन्यथा बदलती परिस्थितियों के अनुरूप अभिनव भूमिकाएं निभा सकने योग्य उनकी क्षमता कुशलता का विस्तार हो नहीं सकेगा। ऐसी दशा में बड़ी जिम्मेदारी कैसे डट सकेगी? बड़ी सफलता कैसे मिलेगी?

युग शिल्पियों को समय के साथ ही नहीं चलना है वरन् नयी समस्याओं के नये समाधानों का कार्यान्वयन का अभ्यास भी करना है। अस्तु आवश्यक समझा गया है कि वरिष्ठ और कनिष्ठ के पुराने नये सभी प्रज्ञा पुत्रों की वार्षिक शिक्षा व्यवस्था का प्रबन्ध किया जाये। इसके लिये जुलाई, अगस्त, सितम्बर के तीन महीने उपयुक्त समझे गये हैं। वर्षा ऋतु में आयोजन सम्मेलन संभव नहीं होते। न यज्ञशाला बन सकती, न पण्डाल खड़े हो सकते हैं। घर से बाहर निकलते ही भीगने का भय रहता है। गीले कपड़े सहज सूखते तक नहीं। किसानों तक का वह समय प्रायः घर में वैसे ही बीतता है। अन्य वर्षों की दौड़-धूप भी ठण्डी पड़ जाती है। रास्ते की कीचड़ को लांघते हुए पैदल यात्रायें कठिन पड़ती हैं। इसलिये अन्य व्यवसायों की तरह धर्म प्रचार के कार्यक्रम भी गतिशील नहीं रहते। सन्त जन एक स्थान पर चातुर्मास मनाते हैं और वहीं बैठकर सत्संग शिक्षण का उपक्रम बनाते, चलाते रहते हैं।

वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों की वार्षिक प्रशिक्षण प्रक्रिया के लिये एक-एक महीने के तीन सत्र जुलाई, अगस्त, सितम्बर में रखे गये हैं। यों ऐसे महत्वपूर्ण विषयों के लिये एक महीने का समय हर दृष्टि से कम पड़ता है तो भी स्थान की कमी और शिक्षार्थियों की बढ़ी-चढ़ी संख्या का संतुलन बिठाने की दृष्टि से शिक्षा काल स्वल्प रखने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। एक महीने से कम में काम चलता नहीं और उसमें अधिक समय रखकर शिक्षार्थियों की संख्या में कटौती करना अभीष्ट नहीं। अस्तु उतने से भी सन्तोष करते हुए तद्नुरूप प्रबन्ध किया गया है।

इस वर्ष के तीन विशिष्ट कार्यक्रम हैं। (1) प्रज्ञा पुरश्चरण को व्यापक बनाना। (2) प्रज्ञा अभियान कार्यक्रमों का प्रबन्ध करना। (3) तुलसी आरोहण- हरीतिमा संवर्धन का उत्साह हर घर में जगाना। इन कृत्यों में पुरश्चरण और आरोपण के काम ऐसे हैं जिन्हें घर रहकर भी संपर्क क्षेत्र में गतिशील करते रहा जा सकता है किन्तु प्रज्ञा आयोजन की व्यवस्था ऐसी है जिसके लिये घर छोड़कर दूर-दूर तक जाने और अपने अनुभव का लाभ एवं हाथ बँटाने जैसा सहयोग देने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। अधिकाँश आयोजन नये स्थानों पर होने जा रहे हैं। इस वर्ष दस हजार आयोजनों का लक्ष्य है। जबकि गत वर्षों में उनकी संख्या कभी दो हजार से अधिक नहीं रही। प्रायः आठ हजार सम्मेलन आयोजन ऐसे हैं जिन्हें नये लोगों द्वारा नये स्थानों में सम्पन्न किया जाना है। उत्साह होना एक बात है और अनुभव होना दूसरी। अनुभव के अभाव में विवाह शादियों जैसे छोटे आयोजनों तक में भी गड़बड़ी फैलती और फजीहत होती देखी गयी है जब कि अनुभवी लोग उन्हें रास्ता चलते सुसम्पन्न बना देते हैं।

स्वाध्याय मण्डल प्रायः ऐसे स्थान पर बने हैं, उनके संचालक लोग ऐसे हैं उनकी भावना और कर्मठता बढ़ी-चढ़ी होने पर भी आयोजन सम्मेलन करने की रूपरेखा ध्यान में नहीं है। ऐसी दशा में अनुभवहीनता के कारण वह छोटा प्रबन्ध भी उनके लिये सरदर्द बनेगा। इस असमंजस को दूर करने का एक ही उपाय है कि अनुभवी प्रज्ञा पुत्र अपने-अपने कार्य क्षेत्र बांटे और वहाँ मितव्ययिता पूर्वक अधिकाधिक सफलता के साथ निर्धारित आयोजनों को सम्पन्न करायें।

इसी से मिलती-जुलती एक दूसरी कठिनाई यह है कि प्रज्ञापीठें उत्साही भावनाशीलों ने अधिक परिश्रम करके, बनाकर खड़ी कर दीं। उसमें गाँठ का पैसा भी उदारतापूर्वक लगाया। अब एक अवरोध यह खड़ा होता है कि उनके सुसंचालन का क्रम कैसे बने। यहाँ भी अनुभवी कार्यकर्ताओं का अभाव ही आड़े आता है। उसका समाधान न हो तो प्रतिमा पूजन की लकीर ज्यों-त्यों करके पीटी जाती है। वह उद्देश्य सधता ही नहीं, जिसके लिये कि इन नये निर्माण को चर्च जैसा सचेतन बनाने का स्वप्न सँजोया गया था। अवरोध का कारण अनुभवी कार्यकर्ताओं का अभाव ही समझा जा सकता है। अन्यथा जन सहयोग की कमी से कठिनाई उत्पन्न होने जैसी कोई बात कहीं भी नहीं है। जिन लोगों ने इतनी राशि लगाकर इतने भव्य महल बनाये हैं, वे मुट्ठी-मुट्ठी अनाज या दस-दस पैसे जैसे अनुदान प्रस्तुत करने में भी पीछे हटने वाले नहीं हैं। जो देश साठ लाख सन्त बाबाओं का निर्वाह करता है और मन्दिर मठों तीर्थों के निमित्त अरबों-खरबों की राशि खर्चता है वह प्रज्ञा पीठों का काम करने वाले लोगों का निर्वाह व्यय वहन न करेगा ऐसी तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।

तीसरी आवश्यकता प्रज्ञा आयोजनों की व्यास पीठ सँभालने वाले कुशल प्रचारकों की है। अपने मंच को संगीत प्रधान बनाया गया है। छोटे देहातों, अनपढ़ों वाले अपने देश में बाल-वृद्ध– नर-नारी, शिक्षितों अशिक्षितों के लिये समान रूप से आकर्षक एवं प्रेरक आधार युग संगीत ही असंदिग्ध रूप से बन सकता है। अस्तु जो कुछ भी कहा समझाया जाना है उसके लिये संगीत का माध्यम बनाया गया है। तद्नुरूप गीत लिखाये गये हैं। उनके साथ टिप्पणियाँ, व्याख्यायें जोड़कर भजनोपदेश स्तर के प्रवचन विनिर्मित किये गये हैं। इन्हीं के सहारे प्रज्ञा आयोजनों की व्यवस्था बनी है। रूखे, प्रवचन, अविकसित मनःस्थिति वालों के लिये उन्हें समझना और भी अधिक कठिन पड़ते हैं। फिर धारा प्रवाह प्रवचन कर सकना भी तो सरल नहीं है।

सम्भाषण की आवश्यकता प्रज्ञा आयोजनों में चित्र प्रदर्शनी के माध्यम से पूरी की जाती है। लोग दृश्य देखते जाते हैं और उसके संदर्भ सुनकर वह प्रकाश प्राप्त करते जाते हैं जो इन आयोजनों का उद्देश्य है। वक्ता के लिये इस प्रकार विवरण वार्ता करते रहने से कोई दबाव नहीं पड़ता। इस माध्यम से सामान्य स्तर का भी प्रखर व्यक्ति चार छह घण्टे लगातार प्रवचन करता रह सकता है और व्यक्तिगत संपर्क के आधार पर साधा प्रवचन की तुलना में लोगों को कहीं अधिक गहराई तक तथ्यों से अवगत एवं अनुप्राणित कर सकता है।

विगत वर्षों में न युग संगीत का एक क्रमबद्ध निर्धारण था और न चित्र प्रदर्शनी के माध्यम से से जन-जन को युग चेतना से अवगत कराने का प्रबन्ध था। यह दोनों ही उपचार इसी वर्ष के हैं। जो सरल भी सिद्ध हुए हैं और आश्चर्यजनक रीति से सफल भी हुए हैं। अगले दिनों सभी प्रज्ञा पुत्रों को लोक शिक्षण के लिये इन्हीं दोनों माध्यमों को अपनाना होगा। सस्ती चित्र प्रदर्शनी बनाने का काम इन दिनों हाथ में लिया गया है। युग संगीत के लिये स्ट्रीट सिंगर स्तर की गायन वादन प्रणाली में एक सुनियोजित पाठ्यक्रम बनाना है। ढपली, खटताल, मंजीरा, इकतारा स्तर के एकाकी गाने बजाने की आवश्यकता पूरी करने वाले वाद्य यन्त्र इस निर्धारण में प्रमुख माने हैं।

उपरोक्त कार्यों का स्वरूप सुनने कहने में तो सरल सीधा प्रतीत होता है, पर इनमें से प्रत्येक के साथ अनेक गुत्थियाँ जुड़ी हुयी हैं। अनेक उतार-चढ़ाव और अनेक मोड़-तोड़ हैं। उनका स्वरूप और समाधान समझे बिना इन नये निर्धारणों को कार्यान्वित करने में पग-पग पर नयी सूझ -बूझ की आवश्यकता पड़ेगी। उसके बिना सिद्धांत समझ लेने पर भी व्यवहार कठिन पड़ेगा। विवाह शादियाँ पक्की करने में भी उतनी कठिनाई नहीं होती जितनी कि उस उत्सव के साथ हुयी अनेकानेक समस्याओं से निपटना तथा आवश्यकताओं का जुटाना। सार्वजनिक क्षेत्र के आन्दोलनों आयोजनों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उनके संबंध में भी इंजीनियरों, डाक्टरों, नर्तक कलाकारों जैसे अनुभव अभ्यास चाहिये। इसे जुटाने के लिये एक महीने के शान्ति-कुँज सत्रों में सम्मिलित होने की आवश्यकता एक प्रकार से अनिवार्य ही हो जाती है।

प्रज्ञापीठों के निर्माण भर हुये हैं, उनमें सक्रियता का प्राण फूंकना अभी भी शेष है। इन अभिनव निर्माणों को नवजात शिशु तुल्य समझा जाना चाहिये। उनकी आवश्यकतायें ऐसी होती हैं जिन पर न केवल माता को वरन् समूचे परिवार को ध्यान रखना पड़ता है। ठीक प्रायः 13 हजार इसी प्रकार निजी इमारत वाले प्रज्ञापीठों तथा बिना इमारतों वाले स्वाध्याय मण्डल प्रज्ञा संस्थानों को प्रखर परिपुष्ट बनाने के लिये सभी प्रज्ञा पुंजों को पूरा-पूरा ध्यान देना है। इस वर्ष के दस हजार आयोजन भी उन्हीं से सम्पन्न करने तथा दूसरों से कराने हैं।

इन निर्माणों को प्राणवान बनाने के लिये इन दिनों समूचे प्रज्ञा परिवार को ध्यान में देना और अपना क्षेत्र सम्भालना होगा। छोटे-छोटे क्षेत्र संगठनों का नया निर्माण करना होगा। साथ ही ऐसा भी बहुत कुछ करना होगा जिससे मात्र 10 लाख परिजन आज जितनी संख्या में ही न बने रहें। उनको पाँच गुनी आय वृद्धि का लक्ष्य इन्हीं दिनों पूरा करना है। एक करोड़ भी नव सृजेता न उभरे तो 70 करोड़ भारतवासियों का सर्वतोमुखी कायाकल्प किस प्रकार बन पड़ेगा।

ऊपर की पंक्तियों में जिस क्रिया कौशल के सम्बन्ध में चर्चा हुयी है। उसे सम्पन्न करने के लिये आत्म-बल की ऊर्जा चाहिये। इसके बिना इतने बड़े कारखाने की अगणित मशीनें चलेंगी किस आधार पर। प्रत्येक प्रज्ञा पुँज को हर वर्ष न्यूनतम एक महीने की विशिष्ट अध्यात्म साधना करनी चाहिये जो शेष 11 महीनों तक अभीष्ट ऊर्जा प्रदान करती रहे। यह सभी प्रयोजन एक महीने के कल्प सत्रों में सम्मिलित होने से सम्पन्न होते हैं। यही कारण है कि जुलाई, अगस्त, सितम्बर के तीन कल्प साधना सत्र विशेष रूप से प्रज्ञा पुंजों के लिये ही लगाये जा रहे हैं उनमें नये पुराने सभी प्रज्ञा पुत्रों को अपनी सुविधा के महीने में सम्मिलित होने- स्थान सुरक्षित करा लेने- के लिये कहा जा रहा है।


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