विश्व शक्ति का उद्गम प्रति पदार्थ और प्रति व्यक्तित्व

June 1980

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पदार्थ की सूक्ष्मतम इकाई कभी परमाणु को माना जाता था, पर अब वैसी मान्यता नहीं रही। ढेले के भीतर असंख्यों कण होते है उसी प्रकार परमाणु अब एक ढे़ला भर है। उसके अन्तराल में अनेकों सूक्ष्म और उनके अर्न्तगत भी अति सूक्ष्म कण प्रतिकण मिलते चले जा रहे है। इलेक्ट्रोन प्रोटोन के नाम अब बहुचर्चित है। अब उनके भी अन्तराल में खोजी गई इकाईयाँ ही चर्चा का विषय बनी हुई है और शक्ति का उद्गम इन्ही अति सूक्ष्मों के सम्मिलन अमिश्रम एवं परिभ्रमण के क्रम को ठहराया जा रहा है। शक्ति का प्रकटीकरण की अनुभव में आता है। उसका उद्भव कहाँ से होता है इसके लिए अधिकाधि गहराई में लगातार उतरते जाने की आवश्यकता पड़ती जाती है।

यूरोप के 12 विभिन्न राष्ट्रों ने आधुनिक युग की सबसे महत्व की अनुसंधान के लिए 385 करोड़ रुपये की लागत का एक ‘सुपर प्रोटीन सिक्रोट्रान’ एस. पी. एस.) के नाम से प्रसिद्ध संरचना बनायी है जिसकी परिधि 7 किलोमीटर और 2.2 किलो मीटर चौड़ाई है जिसमें 18 टन के चुम्बक लगे हुये है इसमें से एक स्टेनलेसस्टील की वैकुअम ट्यूब लगी है जिसके अन्दर करोड़ों एटामिक पार्टीकिल्स को बड़ी तीव्रगति से ले जाया जाता है। यह संयंत्र जेनेवा में स्विटरलैण्ड एवं फ्रान्स की सीमा पर बनाया गया है। यह 12 यूरोपीय राष्ट्रों की संस्था (सी.ई.आर.एन) सर्न (कौन्सिल यूरोपियन फार रिसर्च न्यूक्अिर) नाम से प्रसिद्ध है।

सन् 1930 से लेकर एक नया युग भौतिक विज्ञान में आरम्भ हुआ है इसी के फलस्वरुप इलेक्ट्रान प्रोटान न्यूट्रान आदि छोटे कणों से भी सूक्ष्म 200 से अधिक सब न्यक्लियर पार्टीकिल्स पाये गये है जिन्हे वैज्ञानिक प्राय, जू आँफ स्ट्रेन्ज बीस्ट्स’ कहते है।

इन सूक्ष्म कणों का प्रायः दो प्रमुख वर्गों में विभाजन किया गया हैः-

(1) हेड्रान्स जिसका अभिप्राय है बडे़ और मजबूत जैसे न्यूट्रान, प्रोटान, मेसान आदि।

(2) लेप्टन्स-सूक्ष्म एवं कमजोर जैसे इलेक्ट्रान्स, म्यूकान्स एवं न्यूट्रिनोस सन् 1964 में जेलमान एवं सहयोगी जार्ज ज्विग को ओमेगा माइनस नामक सूक्ष्म कण के क्वार्क परिकल्पनानुसार भविष्य कथन करने पर नोवल पुरुस्कर मिला था।

इन कणों के साि-साथ अन्य प्रतिकणों का भी अनुसंधान से पता लगा हैं क्वार्क या ऐन्टीक्वार्क नाम के सूक्ष्मतम कणों से मिलकर ही हेड्रान्स एवं लेप्टन्सस बनते है। प्रत्येक हेड्रान दो या तीन क्वार्क और (या) ऐन्टीक्वार्क मिलकर बना होता हैं।

पदार्थ की संरचना की पहेली का समाधान करने में भौतिक विज्ञानी कहाँ तक सफल होंगे! इसके बारे में सर्न के रिसर्च डायरेक्टर जनरल डाँ. लियोन वान होव कहते है कि हमारा अनुसंधान प्रोढ़ावस्था में है लेकिन हम अनेकों जटिल समस्याओं की उलझन में फँस गये है।

जन उलझनों में पार्टीकल फिजिक्स के मूर्धन्य विज्ञानी फँस गये है, उनमें प्रमुख है-प्रति पदार्थ एण्टी मैंटर। पदार्थ के शक्ति कण विदित है उसका सामान्यपरिय अणु विखण्डन से उत्पन्न उर्जा द्वारा मिलता है यों इस उर्ज का जो आकलन मापक यन्त्रों द्वारा किया जाता है वह समग्र नहीं आँशिक ही होते है। विखण्डन और आकलन के मध्य जो अवधि और परिधि रहती है उतने से ही उत्पन उर्जा का तीन चौथाई भाग अतरिक्ष में तिरोहित हो जाता हैं। आकलन प्रायः एक चौथाई का ही हो पाता हैं इसलिए आँकी जाने वाली क्षमता वस्तुस्थिति की अपेक्षा कहीं कम ही होती है।

अब प्रश्न यह है कि अणु परिवार की निताँत क्षुद्र इकाइयाँ इतनी सामर्थ्य लाती कहाँ से है और उन्हें धारण कैसे, कहाँ और किस रुप में और किस प्रकार करती है। इस प्रश्न का एक नया तथ्य उभर कर सामने आया है- प्रतिकण। यह पदार्थ कणाँ के साथ-साथ रहते है। वे छाया की तरह ही साथ बन कर रहते है। धुले हुये है और परिस्थिति विशेष में उठते बैठते रहते है यही है वह प्रसंग जिसमें डाँ. हावे के कथनानुसार पार्टीकल फिजिक्स उलझनों के दल-दल में फँस गई है।

अब इन निर्ष्कष पर पहुँचा जा रहा है कि कण प्रतिकण प्रतिद्वन्द्वी होते हुए भी पूरक है। ऋण और धन प्रवाह यो एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी है, तो भी उनके मिलने पर ही शक्ति का प्रवाह उत्पन्न होता है। अन्यथा उनकी प्रतिद्वन्दता कुछ कर नहीं पाती। दोनों अगति में ही पड़ें रहते है। गतिशील होने के लिए कुछ उपलब्धि नियेजित करने के लिए उन्हे रचनात्मक न सही प्रतिद्वन्दात्मक ही क्यों न हो। देव और दैत्यों की लड़-झगड़ का उस युद्ध में नाश विनाश का इतिहास कथा-पुराणों में प्रचुरतापूर्वक भरा पड़ा है। साथ ही वह कथानक भी महत्वपूर्ण है, जिसमें दोनों ने मिलकर समुद्र मन्थ किया था और बहुमूल्य रत्न राशि का वैभव कमाया था। गण और प्रतिकण के सम्बन्ध भी कुछ ऐसे ही है, जैसे देव और दैत्यों के। दोनों का जन्म दिति और अदिति दो सगी बहिनों से हुआ था। दोनों के पिता भी एक ही थ। इतने पर भी उनके अस्तित्व और पारस्परिक संबंध ऐसा था, जिसे विचित्र ही कह सकते है। न मित्र न शत्रु। साथ्ज्ञ ही प्रगाढ़ मित्र और प्रचण्ड शत्रु भी। पदार्थ और प्रतिपदार्थ का अस्तित्व स्वभाव और उपक्रम भी प्रायः ऐसा ही विचित्र हैं दोनों साथ-साथ रहते है, एक दूसरे को गति सहयोग देते है। साथ ही परस्पर विरोधी होने के काण एक-दूसरे को आघात पहुँचाने से भी नहीं चूकते, घड़ी के पेण्डुलम से चलती रहने वाली क्रिया प्रतिक्रिया के समतुल्य उसे समझा जाता रहा है। साथ रहते हुए भी सहयोग और संघर्ष का समन्वय किस प्रकार सम्भाव है और पदार्थ प्रतिपदार्थ एक दूसरे के सहयोगी, विरोधी साथ-साथ कैसे रह सकते है, इसका अनुमान लगाया जा सकता हैं।

शरीर और आत्मा का परस्पर सहयोग भी है और संघर्ष भी। सहयोग इस अर्थ में कि जीवन क्रम दोनों मिलकर चलाते है। संघर्ष इस अर्थ में अपने-अपने स्वार्थ के लिए खींच तान बनी रहती है। भले बुरे पुरुषार्थों का प्रकटीकरण इस संघर्ष से ही होता है।

अभी तक प्राप्त जानकारी के आधार पर वैज्ञानिक यही कहते थे कि प्रतिकण केवल प्र्रयोगशालाओं में ही प्राप्त किये जा सकते है क्योंकि उनकी उत्पत्ति इलेक्ट्राँन और न्यूट्रान के टकराव से ही होती है किन्तु न्यूमैक्सिको विश्वविद्यालय के वरिष्ठ वैज्ञानिक डाँ. रावर्ट गौल्डेन जिनके नेतृत्व में दो युवा वैज्ञानिक अनुसंधान कर रहे है, ने टेक्सास से 21 जुलाई 1979 को एक गुब्बार छोड़ा जिसमें 5 हजार पौण्ड के वजन के यंत्र थे जिसमें 300 पौण्ड वजन का एक तीव्र सम्वेदन शक्ति चुम्बक भी था 35 किलोमीटर की उँचाई तक उड़ने पर गुब्बारे के सूक्ष्म उपकरणों में चुम्बकीय क्षेत्र के माध्यम से 28 ‘एन्ट्री प्राटोन की मौजूदगी अंकित की अभी तक एन्ट्री प्रोटोन केवल प्रयोग शालाओं में ही देखे गए थे किन्तु यह प्रथम अवसर है जबकि खुले अन्तरिक्ष में उन्हें देखा गया।

अब तक की मान्यता यह थी कि पृथ्वी पर भारी मात्रा में जो ब्रहमाण्ड किरणें बरसती है, उनका उद्गम स्त्रोत किन्ही तारकों सौरमण्डलों या नौहारिकाओं में रहा होगा। यह भूली भटकी किरणें किसी अविज्ञात की ओ चलती होगी और रास्तें में पड़ने वाली पृथ्वी को अपने अस्तित्व का परिचय तथा यत्किचित उपहार, अभिशाप देती जाती होगी। पर अब प्रति पदार्थ की सत्ता और प्रक्रिया को समझने पर उस पूर्व मान्यता में आमूल चूल परिवर्तन करना आवश्यक हो गया है। नये निर्ष्कष यह बताते हे कि ब्रहमाण्ड किरणें दूरगामी यात्रा करती हुई पृथ्वी पर नहीं आती वरन् अणु परिवार के घटको में विद्यमान गतिशीलता ही यह उपार्जन करती है। यह बाहरी अनुदान नहीं वरन् अपनी निजी उत्पादन ही है। जो टकराने, सहयोग देने की समन्वित नीति के कारण उद्भूत होता और प्रचण्ड शक्ति स्त्रों तक की भूमिका सम्पन्न करता है।

प्रति पदार्थ की खोज एक प्रति प्रकृति के असित्व की ओर संकेत करती है। प्रतिकण, प्रति पदार्थ, प्रति विश्व की मान्यता अब एक कल्पना नहीं रही, उसे वास्तविकता के रुप में अपनाया जा रहा है। ऐन्ट्री मैटर, ऐन्टी यूनिवर्स कभी उपहासास्पद चर्चा के रुप में वैज्ञानिकों के विनोद भर प्रयुक्त होती थी। अब उस सर्न्दभ में गम्भीरता और जिम्मेदारी के वास्तविकता के विचार किया जाता है। पदार्थ की संरचना के बारे में अभी भी कोई मद भेद नहीं है। पर शक्ति का उद्गम उसे न मानने की बात चल पड़ी है। परमाणु परिवार में जो समर्थ प्रतीत होती है, वह उसके माध्यम से प्रकट तो होती है, किन्तु वह उपयोग मात्र है। उत्पादन या आधार नहीं। इस तथ्य को शरीर और आत्मा के उदाहरण से अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। हलचलें शरीर में होती है और विभिन्न क्रिया-कलाप उसी के द्वारा सम्पन्न होते है। इतने पर भी शरीर जीवन नहीं है। प्राण ही सामर्थ्य का उद्गम है। उसी की सत्ता तथा प्रेरणा शरीर को जीवित एवं गतिशील बनाती है। प्रति पदार्थ को प्रकृति की आत्मा और पदार्थ को उसकी काया कहा जाना चाहिऐ। नई खोजें इसी निर्ष्कष तक इन दिनो भौतिक विज्ञान को ले पहुँची हैं।

प्रति पदार्थ के अस्तित्व को स्वीकार करने और उसे प्रकृति की समस्त गतिविधियों एवं शक्तियों का उद्गम मानने के उपरान्त एक जटिल प्रश्न है कि उस क्षे़त्र का तनिक भ्ज्ञी अनुभव न होने के कारण प्रवेश के लिए की गई छेड़-छाड़ उपयोगी होगी भी या नहीं? श्रम निरर्थक जाने तक का खतरा उठाया जा सकता है, पर डाइना माइट की छड़ी से फुलझड़ी का खेल, खेलने का साहस कौन संजोये? इस प्रवेश कर्त्ता का ही नहीं, इस समूचे भूमण्डल और परिवार का यहाँ तक कि ब्रहमाण्ड का भी प्रचलित प्रवाह उलट सकता है, और जिस प्रति विश्व की अभी कल्पना मात्र की जा रही है वह दृश्यमान ब्रहमाण्ड को विस्मृति के गर्त में धकेल कर स्वयं सिंहासन रुढ़ हो सकता हैं। तब भौतिकी प्रकृति के वर्तमान नियम और आधारों का कही पता भी न चलेगाँ उस स्थान पर प्रति प्रकृकत अपनी नई रचना और नई व्यवस्था के अनुरुप इस ब्रहमाण्ड का नया ढ़ाँचा खड़ा करती, नया शासन चलाती दृष्टिगोचर होगी।

यह पदार्थ और प्रति पदार्थ के स्परुप और सम्बन्ध का प्रसंग है। ठीक इसी प्रकार की आर्श्चयजनक, कौतूहल भरी एक सत्ता व्यक्ति और प्रतिव्यक्ति की भी समझी जा सकती है। व्यक्ति अर्थात शरीर, मन सहित। प्रतिव्यक्ति अर्थात् प्राण, महा प्राण सहित। हमें अभ्यास मात्र शरीर की इच्छा, आदतें और रसानुभूति भर का है। जो निकटवर्ती क्षेत्र में होता है उसी के अनुकरण का जो आकर्षण है उसी का अनुगमन मन करता है और उसी प्रवाह में जीवन संकट ज्यों त्यों करके किसी अनिश्चित दिशा में बढ़ता भटकता रहता है। शरीर यात्रा की समग्र प्रकृति क्रम के साथ बिठाई जा सकती हैं। शक्ति आत्मा की है। इस शक्ति के साथ सर्म्पक बनाने में मन डरता है कि कही इसका आधिपत्य काय जगतपर भौतिक जीवन पर न हो जाय। यह डरावनी स्थिति है। अन्तस में विद्रूप उठ पड़े तो उसका स्वरुप पशु की परिधि को पार करता हुआ, पिशाच तक पहुँच सकता है, यदि उसमें विशिष्ट जग पड़ें तो देवत्व और र्स्वग के प्रकटीकरण में भी कोई अड़चन शेष नहीं रहेगी।

प्रति पदार्थ की तरह यदि प्रति व्यक्ति भी चर्चा और शोध का विषय बने, उसकी मात्र सामर्थ्य के सदुपयोग का सूत्र हाथ लगे तो प्रचलन व्यवस्था में आमूल चूल परिर्वतन हो सकता है। तब मनुष्य को देवता और संसार को र्स्वग के रुप में परिणत होने में भी देर न लगेगी। भौतिक चेतना की गतिविधियाँ पशु प्रवृत्तियों के प्रकटीकरण तक सीमित है। इसके स्थान पर आत्मिक चेतना का आधिपत्य मानवी सत्ता पर आत्मिक चेतना का आधिपत्य मानवी सत्ता पर जम सके तो ऐसे अप्रत्याशित परिवर्तन की पूर्ण सम्भावना विद्यमान है, जिसमें सतयुग की स्वर्गीय परिस्थितियों को इसी धरती पर विद्यमान देखा जा सके।


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