नियति के अन्तराल का सूक्ष्म प्रवेश अध्यात्म

June 1980

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पदार्थ जगत से हमें निर्वाह प्राप्त होता है और .... रजन भी। अतएवं उसकी उपयोगिता से .... हुए भी हमें चेतनात्मक रसास्वदन के लिए एक कदम आगे बढ़ना होगा। आनन्द की अनुभूति इन्द्रियों में नहीं चेतना के स्तर एवं उभार में है। विक्षिप्त, अविकसित एवं प्रसुप्त मूर्छित व्यक्ति इन्द्रियों के समक्ष रहने पर भी रसानुभूति से वंछित ही रहता है। प्रचुर साधना सामग्री लेने में असमर्थ ही रहा है।

निर्वाह और मनोरंजन ही पर्याप्त हो तो बात दूसरी है, अन्यथा प्रकृति के अन्तराल में गहराई तक प्रवेश करना होगा और उस क्षेत्र में विद्यमान उल्लास एवं रहस्य समुच्चय के साथ सम्बन्ध साधना होगा। मनुष्य जीवन में सन्निहित गहन सरसता की अनुभूति तथा विलक्षण जानकारियोँ की उपलब्ध इसी मार्ग को अपनाने से सम्भव हो सकती है।

भौतिक जगत की क्षमता, गतिशीलता तक सीमित है। शरीरगत हलचालों को समक्ष बनाये रखने तक ही पदार्थों की उपयोगिता सीमित है। आने की विशिष्ट प्रगति के लिए विश्व-वसुधा के अन्तराल को टटोलना होगा। प्रत्यक्ष से आगे बढ़कर अप्रत्यक्ष तक पहुँचने का प्रयत्न करना होगा। हाथ पैरों जैसे अवसर और त्वचा केश जैसे अवारण अनायास ही दृष्टिगोचर होते रहते है, किन्तु हृदय-मस्तिष्क जैसे महत्वपूर्ण अवयवों का परिचर प्राप्त करने के लिए सूक्ष्य आधार अपनाने होगे। मात्र आँखों के सहारे ही शरीरगत विशिष्टताओं का परिचय प्राप्त कर सकना सम्भव नहीं हो सकता।

प्राणियों का भावनात्मक मिलन कितना सुखद, सरस और समर्थ होता है। ऐसे मिलन एवं मैत्री द्वारा मिलन वाली उपलब्धियों एवं प्रतिक्रियाओं का पर्यवेक्षण करके भली प्रकार जाना जा सकता है।

गहराई में प्रवेश करने से उन तथ्यों का पता चलता है, जिन्हे येन-केन प्रकारेण मनुष्य ने अब तक विज्ञान दर्शन के सहार उपलब्ध किया है और अपना स्तर तथ गौरव बढ़ाया है। इस दिशा में सीमित रहना हो तो बात दूसरी है, अन्यथा प्रकृति की पुस्तक का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करने के उपरान्त वह भी जाना जा सकता है जो अभी तक अविदित है। ज्ञातव्य को प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से प्रकृति के अन्तराल में प्रवेश करके ही जाना जा सकता हैं अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए भी प्रकृति सम्पदा एवं प्राणि चेतना में सन्निहित रहस्य समुच्चय का ही पय्रवेक्ष्ज्ञण करना होगा। विज्ञान अथवा तत्वज्ञान के क्षेत्र में इसी मार्ग पर चलते हुए भावी प्रकृति की महत्वाकाँक्षायें पूर्ण हो सकती है। आनन्द की उपलब्धि और रसास्वादन की आकाँक्षा तो मात्र इसी एक अवलम्बन से सम्भव हो सकती है।

सृष्टि की संरचनाओं का, जड़ चेतन के शाश्वत सौर्न्दय का यदि गम्भीर अवलोकन करे तो लगेगा कि प्रकृति के आनन्द की निर्झरिनी सदा-सदा से प्रवाहित होती रही है। जड़ प्रकृति तो अपना सौर्न्दय दिखाती है ही। प्राणि समूह नन्हे जीव-जन्तु, वृक्ष वनस्पति, पशु-पक्षि भी उसके आँयल में मनोरम दृश्य, दर्शाते है। इनकी दुनिया जितनी आकर्षक है। उतनी ही बुद्धिमत्तापूर्ण एवं विलक्षण भी। इनकी गतिविधियों का सूक्ष्य दृष्टि से अवलोकन किया जाय तो चैतन्य जगल की ऐसी सरस आकर्षण क्रियाएँ परिलक्षित होती है, जिन्हे सृष्टा की विलक्षण कलाकारिता ही कहा जा सकता है।

मनुष्य अपने आप को भगवान की सर्व श्रेष्ठ कृति मानता है। इस मान्यता में यदि कुछ सच्चाई है तो भी उसका यह भ्रम कि उसकी तुलना में वृक्ष-वनस्पति, जीव-जन्तु तुच्छ है, तथ्य से परे है। परम पिता ने इस विश्व के सभी प्राणियों को इतना साधन सम्पन्न बनाया है कि कई उपलब्धियों में वे मानव को छोटा पिछड़ा साबित कर देते है। ऐसी अनेकानेक विलक्षणताएँ है जो वस्तुतः मनुष्य की मौलिक खोज नहीं हैं वरन् उसके भाई बान्धव इन वृक्ष-पुष्पों, कीट-पतंगो की मूलभूत विशेषताएँ हैं प्रकृति के उस अभिनव स्वरुप में सौर्न्दय है, वास्तुशिल्प के विभिन्न आयाम है। यह सब देखकर मन बरबस उस जगन्नियंता के प्रति श्रद्धानत हो जाता है जिसका ही स्वरुप चारों ओर दृष्टिगोचर हो रहा है। इससे प्रेरित होकर प्रफुल्लित मन से उपनिषदकार गा उठता है।

एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा।

रुपं रुपं प्रतिरुपों बहिश्च।

वृक्ष-वनस्पति के इस विशाल संसार को जब हम सूक्ष्य दृष्टि से देखते है तो हमारे वर्तमान आविष्कारों के प्रेरणा बिन्दु वही पाते है। जिस भी व्यक्ति ने आज के सुविधा-साधनों यन्त्रों का आविष्कार किया हे उसने इस की कल्पना प्रकृति की गोद में बैठकर ही की है।

‘बैरल कैक्टस’ रेगिस्तान में पाया जाने वाला पौधा है जिसे अपने वातावरण में व्याप्त शुष्कता एव असहय गर्मी का अनुमान है। तदनुरुप ही वह ठण्डे पानी को अपनी तहों में छिपाकर उसी तरह रखता है जिस तरह गर्मी के दिनाँ में हम क्षुधा तृप्ति हेतु शीतल जल रेफ्रिजरेटर में एकत्रित करते है। इसकी बनावट के पीछे रेफ्रिजरेटर का ही सिद्धान्त छिपा पड़ा है।

वायुयान में खराबी आने पर आत्मरक्षार्थ विमान से सुरक्षित बाहर आने के लिए एवं शत्रु देश में छापामार सैनिक गिराने के लिए मनुष्य ने अपने बुद्धि चातुर्य का उपयोग कर पैराशूट का आविष्कार कया पर वस्तुतः यह कोई मौलिक खोज नहीं। ‘डेण्डेलियान’ के बीज एवं मील्क-वीड बीज अपनी यात्रा पैराशूट द्वारा ही करते है। इस यात्रा में वे परागण का मुख्य उद्देश्य लेकर चलते है व अपने शरीर पर छाये पंख रुपी पैराशूट के द्वारा मीलों की यात्रा पूरी कर लेते हैं। प्रकृति की यह व्यवस्था अपने आप में इतनी सुघढ़तापूर्ण है कि आर्श्चय से दाँतो तले अँगुली दबानी पड़ती है। पिस्तौल चलाना वस्तुतः ‘विच हैजेल’ नामक झाड़ी के फूलों का अनुकरण है। अपनी बीजों की सम्पदा बिखेरने के लिए ये उन्हे झटके से बाहर फेंकते है जो चारों ओर फैलकर अपनी नस्ल की वंशवृद्धि करते है। प्रकृति में चारों ओर यही लीला दिखाई देती है। भवन निर्माण की कला में आज मनुष्य का ज्ञान चरमोन्नत अवस्थ पर पहुँचा हुआ है। गुफा में रहने वाला आदि मानव आज गगनचुम्बी एवं वास्तुशिल्प की दृष्टि से श्रेष्टतम भवनों में रहता है। पर इन सबके मूल है किसी भी....निर्मित करने का प्राथमिक चरण-गडर डालना यदि ..............चाहते है कि यह कल्पना मानव ने कहाँ से की तो लिलि के पौघे को देखिए। यह पौधा पत्तों का अपने स्थान पर रखने के लिए गर्डर रुपी आधारों का उपयोग करता है। इस तरह ये अपनी उँचाई भी बढ़ाते जाते है एवं हवा के झोकों से अपनी रक्षा भी कर लेते है। यह मजबूती इन्हें ‘गर्डर’ व्यवस्था के कारण ही मिली है।

आज दृश्य श्रव्य प्रचार की ही महत्ता है तथा विज्ञापन कला चरम सीमा पर है। इसके द्वारा ही हर निर्माता अपने उत्पादन की खपतजन सामान्य में बढ़ाता है और इसके लिए जितना बन सके, अपनी कल्पना को अनगिनत रंग देकर प्रचारित, प्रसारित करता है, पर इस विद्या में पारंगत प्रकृति के इन कुशल चितेरों को तो देखिये। जो भाँति-भाँति के आकार, रंग-बिरंगी पंखुड़ियों, सुगन्धित पराग द्वारा मनुष्य को तो आकर्षित करते ही है, अपने सखा भौंरो तथा कीट-पतंगों को भी भाव-भरा आमंत्रण देते है। वे उन्हे बता देते है कि कहाँ उन्होंने अपनी मधुनिधि छिपा रखी है। कृपणता का विचार दिल से निकाल वे उनहें अपना मुध छककर पीने देते है। यह सब कार्य करने के लिए उन्हें अपना स्वरुप इस तरह आकषक बनाना होता है जो विज्ञापन से भी बढ़कर है।

अपनी कमाई का अपने उपयोग का हिस्सा छोड़कर बाकी समाज को दे देना ऋषि परम्परा रही है। वनस्पति जगत से हमें यही संदेश चिरंतन काल से कुछ पौधों की जड़ों से मिलता आ रहा है जिनकी गाँठे पौधे का अस्तित्व समाप्त होने पर भी जमीन की उर्वरता बढ़ाने के लिए स्वयं को बनाये रखती हैं इनमें विद्यमान विशेष रसों के जीवाणु वायुमंडल से सतत नाइट्रोजन अवशोषित करते रहते है।

वनस्पति जगत के हमारे इन साथियों को देखकर कठोरनिषद की यह उक्ति सत्य लगने लगती है कि

यौनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय दैहिनः। स्थाणुमन्येअपु संयन्त यथाकर्म यथाश्रुतमः।

अर्थात् अपने-अपने कर्मा के अनुसार जिसने श्रवण द्वारा जैसा भाव प्राप्त किया उसके अनुसार कितने ही जीवात्मा देहधारणार्थ विभिन्न योनियों को प्राप्त होते है और अनेक जीवात्मा अपने कर्मानुसार वृक्षलता, पर्वत आदि को प्राप्त होते है।

संभवतः इसी कारण ये हमारे सखा सहयोगी वातावरण प्रदूषण रोककर मनुष्य के जीने हेतु प्राणवायु देते रहते है और स्वयं विषपान करते है। नवस्पति विज्ञान के मनीषी बताते है कि इनके विशाल संसार में कई वृक्ष ऐसे होते है जो अधिक मात्रा में मनुष्य द्वारा छोड़ी गई कार्बनडाईआक्साइड अवशोषित कर स्वयं ओषजन छोड़ते रहते है। इसी कारण इनके आस-पास की वायु में नीरोगिता एवं स्वास्यि संवर्धन के तत्व अधिक होते है। सम्भवतः यही कारण था कि इन नीलकण्ठों को लगाने की परम्परा को आर्य कालीन महा-मानवों ने आध्यात्मिक महत्व एवं स्वरुप दिया।

ये सभी प्रतिपादन इस तथ्य की व्याख्या करते है कि एक ही चैतन्य आत्मा सब में विद्यमान है। यही अनुभव करते हुए हमें विराट ब्रहमा की असीम चेतना अपने चारों ओर फैली देखनी चाहिए और सबके साथ सहृदयता पूर्ण व्यवहार करना चाहिए। शास्त्रकार कहता है कि ब्रहमा ही विभिन्न प्राणियों में भिन्न-भिन्न रुप में समाया हुआ है।

यस्तुसर्वाणि भूतानि आत्मन्नेवानुपश्यति। सर्व भूतेषु चात्मन ततो न विचिकित्सति। (यजु.)

अर्थात् जो अपने में सबको और सब में अपने को देखता है वही तत्वदर्शन और आनन्द का अनुभव करने में समर्थ होता है।

सहयोगिता, सहकारिता के सिद्धान्त समाज में किस तरह सुख-शान्ति प्रदान करने में सहायक होगे, ये दिशा निर्देश हमें प्रकृति की पाठशाला में ही मिलते हैं। प्राकृतिक संतुलन सृष्टा की नियम व्यवस्था का एक अंग है। इसी के सहारे यह संसार टिका है।

स्थूल के अन्तरात में सन्निहित सूक्ष्य का मर्मबेधी प्रज्ञा के सहारे अध्ययन-अनुसन्धान करने का नाम ही अध्यात्म है। अध्यात्म मानवी चेतना की प्रचक्षण प्रतिभा है। इसे विकसित किया जा सके तो आत्म-दर्शन, ब्रहमा साक्षाकार, स्वर्गीय उल्लास, सिद्धि सामर्थ्य, प्रकृति संतुलन, वातावरण की अनुकुलता जैसी असंख्यों विभूतियाँ उपलब्ध हो सकती है। साथ ही उन प्रकृति रहस्यों को भी सहज ही करतल गत किया जा सकता है। जो वैज्ञानिक शोध कत्ताओं न इधर उधर भटकने के उपरान्त आधी अधूरी मात्रा में बड़ी कठिनाई के साथ उपलब्ध किए है।


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