अभिवर्धन ही नहीं परिशोधन भी

June 1980

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परिशोधन एवं अभिवर्धन के सन्तुलित प्रयास से ही प्रगति को टिकाउ और अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। इन दोनों में से एक को भी नहीं छोड़ा जा सकता है। अभिवर्धन के लिए प्रयास भौतिक समृद्धि साधनों को साथ लेकर आता है, पर साथ ही अनुपयोगी एवं हानिकारक तत्वों को भी छोड़ जाता है। उनके परिशोधन की व्यवस्था न बनाई जाय, उपेक्षा कर दी जाय तो अनेकों प्रकार के संकट उठ खडे़ होते है। शरीर की सर्मथता के लिए शक्ति सम्पन्न बनाने के लिए पौष्टिक आहारों की व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। पर साथ ही विजातीय तत्वों के निष्कासन एवं रोगों से सुरक्षा की भी व्यवस्था होनी चाहिए। तभी शरीर समर्थ एवं निरोग बना रह सकता है। प्रयास एकाकी हो सामर्थ्य सम्पादन के लिए प्रोष्टिक आहर ही जुआए जायं। रोग से बचाव का प्रबन्ध न हो तो पौष्टिक तत्वों द्वारा स्वास्थ्य सर्म्वधन का लाभ नहीं मिल सकता। न ही शरीर निरोग बना रह सकता है। सन्तुलन स्वस्थ जीवन क्रम के लिए दोनों ही तरह के प्रयास आवश्यक है।

प्रकृति की दौड़ में सुख-समृद्धि की अभिवृद्धि के लिए मानवी पुरुषार्थ एवं उत्साह भरा प्रयास प्रशंसनीय है। पर साधन सम्पन्नता के लिए किये जा रहे प्रयत्नों के दूरगामी परिणामों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। रोग को दूर करने में दी जाने वाली दवाओं से उत्पन्न ‘साइड एफेक्ट’ के समान उत्पन्न हो रही प्रदूषण विभीषिका पर भी ध्यान जाना चाहिए। अन्यथा उनसे नये रोग उठ खड़े होगे तथा रोग निवारण का प्रयास असफल ही सिद्ध होगा और निराशा ही हाथ लगेगी। पिछले दिनों सम्पन्न अभिवर्धन के लिए उत्साह उमड़ा तथा प्रयास भी चला। इस प्रयास में सफलता भी मिली। समृद्धि बढ़ी। पर इस उत्साह में दूरगामी परिणामोँ पर ध्यान न दिया गया। अभिवर्धन के प्रयास में परिशोधन के अनिवार्य क्रम को भुला दिया गयाँ। फलस्वरुप अनेको प्रकार की समस्याएँ उठ खड़ी हुई। बड़े उद्योगों, कल-कारखानों की निरन्तर अभिवृद्धि एवं उनसे पैदा होने वाला प्रदूषण नई परमाणु विभीषिका लेकर सामने प्रस्तुत है। वातावरण में विषाक्तता इस तेजी से बढ़ती जा रही है कि अनुमान है कि मनुष्य को अगले दिनों वायु एवं जल की विषाक्तता से घुट-घुट कर मरना होगा। प्रकृति प्रकोपों एवं विश्व युद्धों से ही भयंकर क्षति होने की प्रचलित मान्यता थी पर उनसे कम हानि मनुष्य जाति को बढ़ते हुए प्रदूषण से नहीं उठानी होगी। यदि अभिवृद्धि का क्रम यही बना रहा, उसे रोका नहीं गया तो प्रकृति प्रकोपों अथवा विश्व युद्ध से मानव जाति मरे या नहीं पर वातावरण की विषाक्तता ही उसे नष्ट कर देने के लिए पर्याप्त होगी।

उत्पादन क्षमता ही नहीं प्रदूषण को रोकने के लिए प्रबन्ध किया जाना चाहिए। भौतिक प्रगति की दौड़ में अनेकों राष्ट्र आगे बढ़े है। अनुमान किया जाता है विगत 25 वर्षों में जापान की राष्ट्रीय उत्पादन क्षमता चार गुनी जर्मनी की दुगुनी अमेरिका की आठ गुनी बढ़ी है। इस अभिवृद्धि से इन देशों को सरकार एक ओर तो प्रसन्न है। पर दूसरी ओर बढ़ती हुई विषाक्तता से चिन्तित है। नित्य नई बीमारियाँ उत्पन्न हो रही है। फेफडे़ सिर, आँख, गले के अनेकों ऐसे रोग उत्पन्न हो रहे हे जिनका निदान कर सकना भी मुश्किल पड़ रहा है। पशु पक्षियों की संख्या निरन्तर घटती जा रही है। खाद्यान्न में पौष्टिक तत्व नष्ट होते जा रहे है। जापान का माउन्ट फिगी पर्वत विभिन्न प्रकार के पक्षियों की चहचहाहट से भरा रहा था, वहाँ उनकी संख्या में भारी कमी आई है।

मनोरोगों की तो दिनोदिन वृद्धि हो रही है। अनिद्रा तनाव, सिरदर्द, थकान, उत्तेजना, पागलपन के शिकार तो अधिकाँश व्यक्ति है। नदियों समुद्रो में रहने वाले जल चर भी पानी में मिले विषाक्तता के कारण दम तोड़ रहे है। औद्योगीकरण के कारण जो जापान के टोकियों जैसे शहर में वाहनों कार, ट्रक, बस आदि की संख्या आठ गुनी हो गई है। स्थिति यहाँ तक पहुँची है कि दमे, लक्बे पागलपन से ग्रस्त रोगी बच्चे पैदा हो रहे है। टोक्यों, स्वास्थ्य विभाग की सूचना के अनुसार ‘..........’ नगर के कीशों हाईस्कूल के 6000 बच्चे आँखों में जलन, सिर दर्द, हाथ पैरों में अकड़न जैसे रोगों से ग्रस्त है। पूरे शहर में 13000 व्यक्ति विभिन्न प्रकार के रोगों के शिकार है। इसका कारण वैज्ञानिकों ने वायु में कार्बन मोनाआक्साइडक का सामान्य से दस गुना बढ़ जाना बताया है। कारखानों से निकली सल्फर डाईआक्साइड भी कम घातक नहीं है। टोक्यों मेट्रोपालीटन एवं वायरनमेंटल रिसर्च इन्स्टीट्यूट के डाइरेक्टर मिचीटाका कैमो का कहना है कि ‘सल्फर डाई आक्साईड बच्चों के विकास में घातक है।

वातावरण में फैलती हुई इस विषाक्तता को रोकने के लिए कई राष्ट्रों ने कार्यक्रम बनाये एवं प्रयास भी आरम्भ कर दिए है। टोक्यों में समाज कल्याण द्वारा प्रदूषण उन्मूलन विभाग खोला गया है। इसके कार्यक्रमों को सख्ती से लागू करने के लिए स्थानीय सरकार ने कठोर कानून भी बनाये है। ‘कावासाकी’ नगर के मेयर ईटों ने पाँच मंजिला प्रदूषण नियंत्रण केन्द्र की स्थापना कराई। कल कारखानों के मालिकों एवं सम्बन्धित अधिकारियों की प्रयोग की जाने वाली सल्फर की मात्रा तो तीस प्रतिशत रहती थी, उसको एक प्रतिशत रखने का आदेश दिया है। बड़े उद्योगों को जिनसे अधिक प्रदूषण पैदा होता है उन पर भी पाबन्दी लगा दी है।

इस प्रकार के प्रयास अन्य स्थानों पर भी चल रहे है। स्वीड़ेन में सबसे बड़ा उद्योग कागज बनाने का है जिसमें कुल सामग्री का दो तिहाई भाग पानी की आवश्यकता होती है। प्रतिटन कागज तैयार होने के बाद उतने ही वजन के लकड़ों के टुकड़ें, रसायन एवं गन्दा पानी भी पैदा होता था जिसको नदी या सरोवर में बहा दिया जाता था। नवीन पद्धति के अनुसार ऐसी व्यवस्था बनाई गई है कि एक टन निकलने वाले मलवे के स्थान पर मात्र एक किलोग्राम ही मलवा निकले। लकड़ी के टुकड़े, छिल के आदि को अलग करके’रफ पेपर’ बना दिया जाता तथा शेष भाग वायलर की भट्टी में जला दिया जाता है। स्वीडन की राजधानी ‘स्टाकहोम’ में यूरोप का सबसे बड़ा अस्पताल में बनी ‘हीटिंग सिस्टम’ की व्यवस्था के कारण चिमनियो के धुँए से प्रतिवर्ष 20 टन कालिख एवं 300 टन सल्फर डाई आक्साइड निकलती थी। अब उसमें ऐसी व्यवस्था वैज्ञानिकों द्वारा की गई है जिससे कालिख की मात्रा 90 प्रतिशत ओर सल्फर डाई आक्साइड की मात्रा 98 प्रतिशत कम हो जाय।

स्वीडन के पार्लियामेन्ट ने कानूनी संरक्षण भी दिया हैं जिसके अनुसार प्रत्येक छोटे और बड़े कारखानों को प्रदूषण रोकने के लिए निर्धारित प्लान्ट लगाना पड़ता है। इसका कड़ाई से पालन करवाने के लिए कृषि मंत्रालय के आधीन राष्ट्रीय वातावरण संरक्षण बोर्ड की स्थापना की गई है। इस बोर्ड ने समाज के विभिन्न अंग जैसे शिक्षा विभाग उद्योगों से सम्बन्ध प्रत्येक व्यक्ति सरकारी कर्मचारीगण प्रत्येक को प्रदूषण रोकने में सहेयाग करने की एक समग्र प्रशिक्षण व्यवस्था बनाई है। प्रदूषण को रोकने दूर करने संबंधित कार्यक्रमों का प्रसारण भी समय-समय पर रेडियों एवं टेलीविजन पर किया जाता है। स्कूलों में बच्चों एवं कारखानों में काम करने वाले कर्मचारियों को ‘वातावरण संरक्षण कोर्स’ अनिवार्य रुप से सिखाया जाता है। युद्ध स्तर पर अनेकों क्षेत्रों में चल रहे इन प्रयासों से प्रदूषण को रोकने में विशेष सफलता मिली है।

सुरसा की तरह मुँह फाड़े आ रही इस विभीषिका से बचने के लिए छोटे-बडे़ प्रयास प्रत्येक स्थानों पर चलने चाहिए। प्रदूषण से हाने वाली हानियों से अवगत राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को कराया जना चाहिए। समझाने प्रशिक्षण की व्यवस्था बनाने तथ बड़े उद्योगों की स्थापना पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। राजतंत्र को भी ऐसे कठोर कानून बनाना चाहिए, जिसका उल्लघंन कोई व्यक्ति न कर सके। बड़े उद्योगों की जगह ऐसे छोटे उद्योगों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए जिसमें प्रदूषण उत्पन्न होने की कम से कम गुँजाइश हो।

वातावरण में व्याप्त विषाक्तता की भावी विभीषिकाओं से बचा सकता है। इसको दूर करने के लिए यज्ञीय पुरा-

(शेष पृष्ठ 38 पर)


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