मृत्यु-भय का कारण और निवारण

June 1980

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प्रत्येक मनुष्य जानता है कि मृत्यु जीवन का अनिवार्य अतिथि है। जिसने जन्म लिया है उसका मरना निश्चित है। मृत्यु इतनी अधिक, आत्याँतिक और अनिवार्य, निश्चित है कि उससे ज्यादा निश्चित और कुछ नहीं है। लोग रोज अपने सामने एक न एक मृत्यु की घटना देखते है। कोई न कोई प्रतिदिन मरता हुआ दिखाई दे जाता है इस के उपरान्त भी शायद ही कोई अपनी मृत्यु के बारे में सोचता है। अपने मरने का विचार आते ही मनुष्य के मन में भय मिश्रित सिहरन व्याप जाती है और यह असंभव कल्पना संभव होने की आशा की जाने लगती है कि काश अमर हुआ जा सके।

मरने से ज्यादा निश्चित कुछ नहीं है जितना यह सच है उतना ही यह भी सच है कि मृत्य से ज्यादा भयानक वह कुछ नहीं है। यही कारण है कि कई व्यक्ति मरने का नाम आते ही होठों पर अंगुली रख लेते है और प्रियजन ऐसी अशुभ बात मुँह से निकालने के लिये रोकते है स्पष्ट ही यह मृत्यु से भयभीत मनःस्थिति का द्योतक है प्रश्न उठता है कि हिन्दू धर्म आत्मा की अमरता और कर्मो के अनुसार पुनः मिलने के सिद्धान्त को आधार भूत रुप सेमानता है, आत्मा की अमरता और इस नहीं तो अगले जन्म में अच्छे बुँरे कर्मों का निश्चित फल मिलता है, यह सिद्धात हिन्दू धर्म का सामान्य से सामान्य ज्ञान रखने वाला व्यक्ति जानता है। न केवल जानता है वरन उसे स्वीकार करता और मानता भी है। फिर क्या कारण है कि अधिकाँश व्यक्ति मृत्यु से भय-ग्रस्त रहते है।

हिन्दुओं में भगवद्गीता का जितना प्रचार हे और जिनमें अधिक लोगों ने इसे धर्मग्रन्थ की भाँति पढ़ा है उतना शायद ही अन्य किसी ग्रन्थ का पढ़ा गया होगा। भगवद्गीता की पृष्ठभूमि ही मृत्यु भय से आरम्भ होती है। स्वजनों के मोह से वशीभूत होकर अर्जुन युद्ध न करने की इच्छा व्यक्त करते हुये कहता है, हे कृष्ण मुझे न तो विजय की आकाँक्षा है न राज्य की और न सुखों की। स्वजनों को मार क यदि विजय सुख, राज्य, भोग आदि उपलब्ध हो जाय तो उसका क्या मूल्य है। जिन लोगों के लिय मझे राज्य भोग और सुख अभीष्ट है वे ही ये प्राणों की और धनों की बाजी लगाकर उस युद्ध में लड़ने के लिए तैयार है। इन लोगों को मारने से हमें कौन सी प्रिय वस्तु मिलेगी स्वजनों को मार कर हम कैसे सुखी हो सकेगे इससे तो कुल का ही नाश होगा। अपने स्वजनों का नाश करने के कारण उत्पन्न हुए दोष से हमें पाप ही लगेगा गीता 1। 32-40

अर्जुन न तो कायर था और न ही युद्ध से भागने के स्वभाव वाला स्वजनों के प्रति मोह ही वह कारण था, जिससे प्रेरित होकर वह युद्ध न करने की बात कर रहा था। इस मोह को निरस्त करने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने यही कहा कि मनुष्य मरण धर्मा है। युद्ध में अनीति का पक्ष लेने वाले लोग कितने ही घनिष्ठ स्वजन क्यों न हो आज नहीं तो कल मरेगे और जो नीति के पक्ष में लड़ने के उद्यत है उनका भी मरना निश्चित है। अतएव मृत्य के भय से उपराम नहीं होना चाहिये आत्मा की अमरता सिद्ध करते हुये भगवान श्री कृष्ण कहते है-

नासतो विद्यते भावो नाभावो विधते सताः उभयोरपि दृष्टोअन्त स्त्वनयोस्तत्व दर्शिभि॥

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्या क्रोशरीरिणः। अनाशितोअप्रमेयस्य तस्माद्यु ध्यस्व भारत॥

य एनं वेत्ति हन्तारं पश्चैनं मन्यते हतम्। उभौ तौ न दिजानितो नायं हति न हन्यते॥ (गीता 2। 16, 18, 19)

जो असत् है उसका अस्तित्व नहीं है और जो सत्य है उसका अभाव नहीं है। तत्वदृष्टा लोगों ने इसी प्रकार इन दोनों का अंतिम तत्व देखा है अर्थात् तत्वज्ञानियों ने इसी प्रकार का विचार व्यक्त किया है। कभी नष्ट न होने वाले माप में न आ सकने वाले नित्य इस शरीर (आत्मा) के ये समस्त दैह नाशवान कहे गये हैं। अतः हे भरत कुल में उत्पन्न अर्जुन तुम अपना कर्तव्य पालन करो जो इस आत्मा को मारने वाला है ऐसा समझता है और जो इसे मारा गया ऐसा एमझता है वे दोनों वास्तविकता को नहीं जानते क्योकि यह न तो मरता है और न ही मारा जाता है।

आशय यह कि आत्मत्व की नित्यता के कारण उसमें जन्म लेने, मरने, एक बार हो कर पुनः दुबारा होने आदि परिवर्तन संभव नही। यद्यपि वह सदा से था और रहेगा। शरीर के रहने या नष्ट होने से उसके नष्ट होने की बात ही नहीं उठती। मृत्युके दर्शन को और स्पष्टता से समझाते हुए श्री कृष्ण कहते है-

वासाँसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि ग्रहणाति नरोअपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही। (गीता 2। 22)

जिस प्रकार कोई मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नये वस्त्र ग्रहण करता है। उसी प्रकार आत्मा पुराने वस्त्र को छोड़कर नया शरीर प्राप्त करता है। पुराने वस्त्र को छोड़ कर नये वस्त्र पहनने वाले व्यक्ति के शरीर में कोई परिवर्तन नहीं होता वैसे ही पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर ग्रहण करने वाली आत्मा भी वही रहती है उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता।

मृत्यु की इतनी स्पष्ट मीमाँसा कदाचित ही किसी अन्य स्थान पर मिलती हो और भगवद्गीता का जितना अध्ययन या पाठ किया जाता है शायद ही किसी अन्य हिन्दू ग्रन्थ का पाठ किया जाता हो, फिर भी लोग मृत्यु से इतने भयभीत रहते है कि लगता है शायद किसी ने इन तथ्यों को गंभीरतापूर्वक लिया हो। सत्य को गंभीरता से समझा जाय अथवा उथले मन से देखा जाय उसका निश्चित प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिये आग को छूने पर जल जाने की वास्तविकता किसी भी ढंग से समझी जाय, गंभीरता से या अगंभीरता से एक बार समझ लेने पर छोटा बच्चा भी आग से सतर्क रहता है फिर क्या कारण है कि आत्मा की अमरता और .... शरीर की वास्तविकता जानने मानने के बाद भी लोग मृत्यु से भय खाते है! उत्तर एक ही है .... मनःस्थिति। जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त साथ रहने वाले शरीर में सुख, दुख, कष्ट, सुविधा और हर्ष .... की अनुभूतियाँ होती है। यह अनुभूतियाँ शरीर और मन के तल पर ही होती है। इसलिये बहुँत गहराई.... अब चेतन मन में यह धारणा बैठ जाती है कि अपने अस्तित्व शरीर तक ही सीमित है कहने सुनने को लोग भले ही तत्वज्ञान, आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म बातें करते हो पर यह विचार मान्यता या आस्थाओं .....स्थान नहीं ले पाती।

सूरज की उपस्थिति भी बादलों में छुप जाती है चन्द्रमा पृथ्वी की ओट में आ जाने पर होते हुये भी होने जैसा लगता है। उसी प्रकार सर्वाधिक निकट .... सब से समीप होने के कारण शरीर की ओट में .... तत्वज्ञान छुप जाता है। शास़्त्रकारों ने इसी का .......शरीराभ्यास कहा है। लेकिन यह सर्वविदित है कि शरीर मरण धर्मा है। कितनी ही आशक्ति होने पर फिर .... से भय कैसा। मकान को गिरते या जलते देख कर .... अच्छे से अच्छे और कीमती से कीमती भवन को छोड़ कर भागते है। यह जान कर कि मकान गिर रहा है या गिरने वाला है। फिर मृत्यु को निश्चित जान कर अधिकाँश लोग मरते समय रोते कलपते क्यों है! क्यों .....चेष्टा करते है कि किसी प्रकार मृत्यु को टाल दिया जाये।

प्रसिद्ध राजनेता और विचारक लेखक ने मुत्यु .... का कारण जिजीविषा बताते हुये कहा है कि जिजीविषा इतनी प्रबल है कि दहनाश स्वीकारने के बाद भी मनुष्य को यशः काय से जीवित रहना चाहिए। इस तथ्य भुला कर कि जब हमी न रहे तो रहेगा मजार क्या पिरामिड मकबरे आदि अपने जीवन काल में ही .... डालता है-यदि किसी में फटे पुराने कपड़े त्याग ....नये कपड़े बनवाने की सामर्थ्य है परन्तु फटों को उतारता तो वह समाज में हास्यास्पद बन जाता है अति जिजीविषा का भी परिणाम यही होता है। शरीर जरा जीर्ण हो गया अनेका बीमारियाँ घेरे हैं परन्तु जिजीविषा बाध्य करती है कि इसी फटे पुराने को चलाओं परन्तु यह जीना नहीं है, देहरुपी बोझ का ढोना मात्र है। इस दुखद स्थिति से उबारने वाली मृत्यु को सबसे श्रेष्ठ सखा बताते हुए उन्होंने लिखा है, अनेक लोग मृत्यु को मनुष्य के लिए निकृष्ट दशा मानते है, मुझे वृद्धावस्था बदतर प्रतीत होती है। मुत्यु सर्वोत्तम मित्र है जो बुढ़ापा रुपी शत्रु द्वारा जनित सभी कष्टों से उबार लेती है। किसी महा मेधावी का जनजीर्ण हो कर सठियाई बकवास करते देखा जाना किसी देवापम सौर्न्दय शाली शरीर का घृणित होकर लकुटी के सहारे चलते देखा जाना और सदा उन्नत मस्तक का दैहिक एवं मानसिक दोनों दृष्टियों से झुका देखना एक ऐसी त्रासदी है, जिस पर जितने ही आँसू बहाये जाय थोड़े ही होगें।

जिजीविषा के अतिरिक्त मृत्यु भय का एक और कारण वह है भविष्य के प्रति अनिश्चिय। यह सोच कर कि अगले जन्म में न जाने किन परिस्थितियों में रहना पडे़। इस जन्म में यदि परिस्थितियाँ सुखद है, साधन सुविधायें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है तो यह आँशका सताने लगती है कि पता नहीं अगले जन्म में भी वैसी ही साधन सुविधायें मिलेगी अथवा नही। यदि कोई मनुष्य दुखद परिस्थितियों में रह रहा है तो सोचता है कि क्या मालूम अगले जीवन में इससे भी बुरी स्थिति में रहना पड़े यद्यपि कर्म फल का सिद्धान्त अपने स्थान पर अटल और धु्रवसत्य है फिर भी लोग इस बात का निर्णय नहीं कर पाते कि कौन से कर्म का अच्छा फल मिलेगा और कौन से कर्म का बुरा फल मिलेगा और कौन से कर्म का बुरा फल मिलेगा और कौन से कर्म का बुरा फल मिलेगा। इसलिए मृत्यु के बाद बाद का यह संशय मनुष्य को मरणोत्तर जीवन के प्रति तरह-तरह की शंका कुशंकाओं से भयभीत करता रहता है।

जो भी हो मृत्यु के प्रति भय न उचित है और न अनावश्यक किसी स्थिति का निराकरण कर पाना वास्तव में यदि सम्भव है तो उसकी चिन्ता की भी जानी चाहिये मृत्यु से किसी प्रकार छुटकारा नहीं है तो उसकी चिन्ता करना भी र्व्यथ है और उससे भयभीत रहना भी र्व्यथ है। मृत्यु परमसखा है। क्योंकि वह जराजीर्ण काया के कारण होने वाले संवास से छुटकारा दिलाती है बच्चों के वस्त्र फटने लगते है। पुराने हो जाते है तो अभिभावक नये वस्त्र तैयार कराते और पुराने फटे वस्त्रों को उतरवा कर नये कपड़े पहनाते है। प्राणिमात्र के अभिभावक करुणा वरुणालय परमात्मा के भी जीवों के लिये इसी प्रकार को व्यवस्था कर अपनी करुणा का परिचय दिया है।

बच्चे भी पुराने वस्त्र उतार कर नये वस्त्र पहनते समय उल्लास से भर उठते है, तो क्या मनुष्य का बौद्धिक और मानसिक स्तर बच्चों से भी पिछड़ा हुआ है जो मृत्यु की वास्तविकता को जान कर उसे नये जीवन की तैयारी का सूत्रपात समझ कर भी दुखद घटना के रुप में लेता है और आजीवन उससे बचने की निष्फल चेष्टा करता है मृत्यु की अनिवार्यता के साथ जुड़ा हुआ पुनर्जन्म का तथ्य एक ऐसा स्वर्णिम सिद्धान्त है जिसे सोने में सुहागा ही कहना चाहिए।


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