प्रकृति विध्वंस का आयोजन भी करती है

June 1980

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प्रकृति में समय-समय पर प्रचंड उथल-पुथल होती रहती है। कभी भूकम्प के कारण पूरे देश के देश पृथ्वी के गर्भ में समा गये और जहाँ उत्पन्न सभ्यताएँ थी, वे देश महासागर में परिणत हो गये। कई बार इस उथल-पुथल के कारण सैकड़ों मील गहरे समुद्र में से उँचे और विस्तृत टापू निकले आये, जहाँ मनुष्य ने फिर से एक नई सभ्यता का विकास किया। सिन्धुघाटी की अति उत्न्नत सभ्यता इसी तरह किसी के प्राकृतिक परिवर्तन से विनष्ट हुई माना जाता है।

विकास को विनाश में और विनाश को विकास में परिणत कर देने वाली इस तरह की कई स्मृतियाँ इतिहास में सुरक्षित है। पुराण कथाओं में उनका रोचक वर्णन भी मिलता है। कई बार पृथ्वी के वैयक्तिक जीवन क्रम में अन्य ग्रह नक्षत्र भी हस्तक्षेप करते है और भारी उथल-पुथल मचा देते है। पिछले दिनों एक बड़े उल्कापिंड जो किसी ग्रह नक्षत्र का ही टूटा हुआ हिस्सा था देखा गया। इसे इकोरस नाम दिया गया। इकोरस यूनान की पैराणिक गाथाओं का एक उद्दंड युवक है। उसने संबंध में में कथा है कि वह सूर्य से मिलने की महत्वाकाँक्षा लेकर नकली पंख लगाकर चल पड़ा। पंख उसने मोम से चिपका लिए थें वह नकली पंख लगाकर उड़ा। अधिक उँचें जाने पर उसके पंख को जोड़ने वाली मोम गर्मी के कारण पिघल गई और पंख गिर गये। इसके साथ ही इकोरस भी औंधे मुँह नीचे समुद्र में आ गिरा तथा मर गया।

इस उद्दंड महत्वाकाँक्षी युवक के नाम पर ही उक्त उल्कापिंड का नाम इकोरस रखा गया। यह उल्कापिंड कभी सूर्य के अधिक निकट जा पहुँचता है, इतना अधिक निकट कि थोड़ा और पास जाय तो जल झुलस कर राख ही नहीं गैस बन जाने में भी कोई कसर न रह जाय। कभी वह अपनी चाल इस तरह बदलता है मंगल और शुक्र से टकराने में अब तब की देरी प्रतीत होती है। सूर्य के अति निकट पहुँच जाने पर वह आग का तप्त गोला बन जाता है तो सूर्य से बहुत दूर निकल जाने पर उसमें शीत की अति हो जाती है। जून 1968 में इस उद्दंड क्षुद्र ग्रह के पृथ्वी के ध्रुव प्रदेश से आ टकरान की सम्भवना बढ़ गई थी। यदि खगोल शास्त्रियों की यह आकाँक्षा सत्य सिद्ध होती तो इस बात की निश्चित संभावना थी कि पृथ्वी में हिमपात, भूकम्प और भयंकर चक्रवात आते। समुद्र उफन कर पृथ्वी के कई भू भागों को लील जाता और लाखों मील भू भाग में बहुत गहरा गड्ढा हो जाता इस प्राकृतिक असन्तुलन में करोड़ो व्यक्तियों का सफाया हो जाने की सम्भावना बताई गई थी।

बडे़ उल्कापिंड से हाने वाली क्षति का अनुमान सन् 1908 में मात्र हजार फुट व्यास वाली उल्का के गिरने से ही लगाया जा सकता हैं यह उल्का साइबेरिया के जंगल में गिरी थी। इसके गिरने से उस स्थान पर अणु विस्फोट जैसा दृश्य उपस्थित हो गया था। हालाँकि वहाँ कोई आबादी वाला क्षेत्र इस उल्कापात की चपेट में नहीं आया पर जहाँ यह गिरा वहाँ मीलों लम्बा और सैकड़ो फुट गहरा गड्ढ़ा बन गया। इकोरस तो इस उल्कापिंड से हजारों गुना बड़ा है। उसके इतने विस्तार से परिणाम का अनुमान लगाया जा सकता है। सौभाग्यवश इकोरस प्रृथ्वी के समीप होकर निकल गया और यह आपदा टल गई। किन्तु खगोलविदों का कहना है कि सौरमण्डल में ऐसे कितने ही क्षुद्र उपग्रह है जो पृथ्वी से कभी भी टकरा कर उसके अस्तित्व को संकट में डाल सकते है। इस तरह के उपग्रहों में हिडालगो, इटोस, अलवर्ट, अलिंडा, एयोर, अपोलो, एडोरस, हर्मेस आदि कई पृथ्वी का चक्कर काट रहे है, और कई बार अपनी कक्षा बदल कर इधर-उधर आवारा गर्दी करने को भी निकल पड़ते है। इनके टकराने से कभी भी विनाश हो सकता है।

इसके अतिरिक्त अमेरिका के दो खगोल विदों जानग्रिवन और स्टीफेन प्लेगमन ने सन् 1982 में एक और संकट की सम्भावना बताई है। उक्त खगोल शास्त्रियों का कथन है कि सन् 1982 में सौर मण्डल के नौ ग्रह यानी मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, पृथ्वी, यूरेनस प्लेटो और नेपच्यून सूर्य के बिलकुल एक तरफ एकत्र हो जायेंगे। इससे सूर्य पर कई बड़े धब्बे पड़ जायेगे। स्मरणीय हे सूर्य पर प्रति ग्यारवें वर्ष कुछ धब्बे से बन जाते है उनके कारण पृथ्वी सहित सभी ग्रह प्रभावित होते है। यह धब्बे भी इसलिए पड़ते है कि सौर परिवार के सदस्यों की गतिवधियों से इस परिवार का मुखिया सूर्य भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। जिस तरह सूर्य की हर गतिविधि से सौरमण्डल के अन्यान्य ग्रह प्रभावित होते है, उसी प्रकार अन्य ग्रहों की गतिविधियों से सूर्य भी प्रभावित होता है।

सभी ग्रह पूर्व से पश्चिम की ओर सूर्य की परिक्रमा करते है और पृथ्वी की ही भाँति अपनी धुरी पर भी घुमते है। इस परिभ्रमण काल में सूर्य पर उत्पन्न होने वाले धब्बों के कारण पृथ्वी सहित सभी ग्रह उपग्रह प्रभावित होते है। खगोल शास्त्रियों का कथन है कि सन् 1982 में जब नौ ग्रह सूर्य के एक ओर एकत्रित हो जायेंगे तो उसके कारण सूर्य पर कई बड़े-बड़े धब्बे पडेंगे। यह धब्बे ग्यारहवें वर्ष के चक्र से सर्वथा भिन्न और अधिक भयावह परिणाम प्रस्तुत करेगे। उस अवधि में विश्व के विभिन्न हिस्सों में भयानक, भूकंप, प्रलयंकर बाढे़, प्राकृतिक विपदाएँ और समुद्री ज्वार भाटे आयेगे। इन दोनों वैज्ञानिकों के अनुसार सन् 1906 में समुद्री ज्वार भाटों का क्रम प्रबलतर हो जायेगाँ। कैलीफोनिया में एक प्रचंड भूकंप आएगा जो कि सन् 1906 में सैनफ्रासिस्कों में आये भूकम्प से भी प्रबल और विनाशकारी सिद्ध हो सकता है।

आरम्भ में ही कहा जा चुका है कि पृथ्वी पर इस तरह की हलचले समय-सयम पर आती रही है और उथल-पुथल मचती रही है। सर्व विदित है कि भूमण्डल के सभी महाद्वीप परस्पर एक दूसरे से सृष्टि के आरम्भ में जुडे़ थे। इस तरह के प्राकृतिक परिवर्तनों के कारण, ग्रहों के प्रभाव के कारण पृथ्वी में होनें वाले परिवर्तनों की वजह से वे एक दूसरे हटते, सरकते और अलग होते गये। हिमालय अभी भी लगाकर उत्तर की ओर खिसकता जा रहा है और भूगर्भ शास्त्रियों का कथन है कि यदि हिमालय इसी गति से खिसकता रहा तो 5 करोड़ वर्षों में उत्तर भारत का अधिकाँश इलाका हिमालय के पेट में समा जाएगा।

सन् 1966 में मास्कों में सम्पन्न हुए द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलन में प्रो. डाँ. ब्रस सी. हीजन और डाँ. नील यू. डाइक ने घोषणा की थी कि आज से लगभग 2 हजार 32 वर्ष बाद पृथ्वी के चुम्बकीय बल अपना स्थान बदल देगें। साथ ही पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति घटेगीं। इससे मनुष्यों का आकार व जीवन भी प्रभावित होगा। वृक्ष वनस्पति, कीट-पतंग आदि पर भी व्यापक प्रभाव पड़ेगा। भूगर्भवेत्ताओं द्वारा किये गये शोध अनुसंधनों से भी इस बात की पुष्टि हुई है कि पृथ्वी के चुम्बकीय बल क्षेत्र अपना स्थान बदलते रहते है। प्रशाँत महासागर की तलहटी से निकाली गई मिट्टी और रेडियों सक्रियता तथा लारिया नामक एक कोशीय जीव में हो रहे क्रमिक परिवर्तनों के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह निर्ष्कष निकाला है कि सन् चार हजार तक चुम्बकीय क्षेत्रों में परिवर्तन होगा इससे धु्रवों का स्थान भी बदल जायेगा। फलस्वरुप पृथ्वी पर खण्ड प्रलय की सी स्थिति बन जायगी। बर्फीले तूफान चारों ओर उठेगें, धरती में बेहद गर्मी और बेहद ठण्डक की स्थितियाँ उत्पन्न हुआ करेगी। समुद्र तल भी लगातार उपर उठ रहा है। इसका भी परिणाम अवश्यंभावी है। ऐसी ही विशिष्ट प्राकृतिक उथल-पुथल प्राचीनकाल में भी जल प्रलय जैसी घटनाओं का कारण बनती रही है। और इन घटनाओं के कारण संसार की कई सभ्यताएँ नष्ट होती रही है विश्व के प्राचीन धर्मों के इतिहास में अनेक स्थानों पर जल प्लावन तथा उसके बाद सृष्टि के निर्माण का, नये क्रम का वर्णन मिलता है इसे धार्मिक पुट दिया गया हैं। लेकिन भूगर्भ शस्त्रियों का अनुमान है कि पृथ्वी के विशेष खण्ड समय-समय पर टूटते रहे हे तथा धरती पर जल ही जल हो जाता रहा हैं। भूगर्भवेता डाँ. टिकलर के अनुसार हिमालय के आसपास प्राप्त ध्वंसावशेषों से यह सिद्ध हो चुका हैं शास्त्र में वर्णित जल प्रलय की कथाएँ काल्पनिक नहीं वरन् ध्रुव सत्य रही है।

यूनान के प्राचीन साहित्य में भी इसी प्रकार जल प्रलय का उल्लेख मिलता हैं एक कथा के अनुसार आर्ट का जलमय थी दूसरी कथा के अनुसार जीयस ने अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए जब डयूकालियन अपनी पत्नी पैरहा के साथ जल यात्रा कर रहा था तो जीयस ने भीषण जल वृष्टि करके पृथ्वी को सागर में डुबा दिया नौ दिन तक डयूकालियन और पैरहा पानी में ही अपनी नाव पर तैरते रहे। तब व पैरालस पहुँचे तो जल प्लावन कुछ कम हुआ। तब उन दोनाँ ने अपने अंग रक्षकों को देवताओं पर बली चढ़ा दिया। इससे जीयस प्रसन्न हो गया और उनको सन्तान का वरदान दिया। डयूकालिन और पैरहा ने वरदान पाकर जीयस पर पत्थरों की वर्षा की। जो पत्थर ड्यूकालियन ने फेंके वे पुरुष हो गये और जो पैरहा ने फेके वे नारी हो गये।

इस तरह की घटनाओं में कवि कल्पना और घटनाओं का अलंकारित वर्णन भी कम नहीं होता पर जल प्लावन की पुष्टि अवश्य होती है। केवीलोनिया में भी ऐसी ही एक दन्त कथा प्रचलित है। तीन सौ वर्ष ईसवी पूर्व वहाँ वोरमस नामक पुरोहित हुआ था उसने लिखा है कि आरडेट्स की मृत्यु के बाद उसके पुत्र ने अठारह सर तक राज्य किया। एक सर 3600 वर्ष का माना गया है। इसी अवधि में एक बार भीषण बाढ़ आई । राजा को इसकी सूचना स्वप्न द्वारा पहले ही मिल चुकी थी। अतः उसने अपने लिए एक नाव पहले से ही तैयार करवा ली थी और जल प्लावन के समय वह नाव में बैठकर तैरता रहा। जब जल प्लावन का वेग कुछ कम हुआ तो उसने नाव में बैठे-बैठे ही तीन बार पक्षी उड़ाया। अन्तिम बार जब पक्षी वापिस लौटकर नहीं आये तो उसने देवताओं को बलि दी। इससे देवता प्रसन्न हंए और शान्ति का वातावरण बना।

बाइबिल में भी इसी प्रकार जल प्लावन की कथा आती है। उसके अनुसार जल देवता नूह को खबर मिली कि धरती पर जल प्रलय होगी और ऐसा हंआ थी। चराचर जगत जलमग्न हो गया। जल देवता ‘नूह’ तथा उनके कुछ साथी नौका में बैठकर बच निकले। नौका द्वारा आमाकन पर्वत पहुँचे। वहाँ नौ महीने बाद जल धीरे-धीरे कम होने लगा और धीरे-धीरे पर्वत श्रेणियाँ दिखाई देने लगी, फिर अन्य हिस्से भी। इस जल प्लावन में केवल हजरत नूह ही बचे थे उन्होने फिर से मानवता का विकास कियाँ। सुमेरियन ग्रन्थों में भी जल प्लावन का संकेत है । चीनी पुराण साहित्य मैं भी जल प्रलय की कई कथाएँ मिलती हैं। भारत में तो शतपथ ब्राहमण से लेकर महाभारत विविध पुराणों तक जल प्रलय का वर्णन मिलता है।

महाभारत के बन पर्व में मत्स्योपरायान में यह कथाऐ आती है कि विवस्वान मनूनेदसहजारवर्ष तक हिमालय पर तपस्या की। उस समय एक मछली की प्रार्थना पर उन्होंने उसकी जीवन रक्षा की। इस उपकार का बदला मछली ने आगामी भीषण जलप्लावन की पूर्व सूचना देकर चुकाया साथ यह भी कहा कि तुम सप्त ऋषियों के साथ नौका में मेरी प्रतीक्षा करना। अन्य पर्वो में भी इस जल प्लावन का सुविस्तृत वर्णन है। इस प्रकार सम्पूर्ण प्राचीन विश्व साहित्य में जल प्रलय की ये कथाएँ निश्चय ही किसी घटित घटना की ही पूर्व स्मृत्तियाँ है अभिव्यक्ति की शैली भिन्न-भिन्न सभ्यताओं के परिवेश और साँस्कृतिक चेतनाके अनुरुप अलग-अलग है किन्तु उनमे एक अविभिन्न आतरिक एकता है, पर उसके छोटे रुप भूकंप, विस्फोट, बाढ़, अतिवृष्टि का महामारी आदि के रुप में जब तब दिखाई देते है।

खगोल शस्त्रियों द्वारा सन् 1982 में जिस विनाश की सम्भावना बताई गई है वह भी प्रकृति मं होते रहने ववाले परिवर्तनों का ही एक अंग है। करोड़ों लोगों के लिए यह घटना रोमाँचकारी भले ही हो पर सृष्टि इतिहास के लिए नई नहीं है। विनाश के बाद विकास, विध्वंस क बाद सृजन, और मृत्यु के बाद नये जन्म की तरह ही प्रकृति इन घटनाओं का आयोजन करती हैं इस तथ्य से विकास और विनाश के गतिचक्र को समझना चाहिए उत्पादन, अभिवृद्धि, सुरक्षा के लिए हम भरपूर प्रयास करे किन्तु साथ यह ध्यान भी रखे कि परिवर्तन और विनाश भी इस सृष्टि की ऐसी गतिविधियाँ है, जिनसे बचा नहीं जा सकता। अतः तैयार इसके लिए भी रहे कि विक्षोभकारी परिवर्तनों के समय उत्पन्न होने वाली ..... को धैर्य और साहस पूर्वक सहन किया जा सके।


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