उपासना की मनोवैज्ञानिक पृष्ठ भूमि

June 1980

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‘यथेल’ अपनी पुस्तक ‘साइकोलाजी आँफ रिलिजन में लिखते है कि सेन्ट कैथोराइन एक विशेष समय शरीर के विभिन्न अंगों पर तीव्र पीड़ा अनुभव करती थी। यह पीड़ा उसी प्रकार की होती थी जिस प्रकार की शरीर में कील ठोकने पर होती है, उस अवधि में डाँक्टर देखभाल के लिए पहले से ही नियुक्त रहते थे। मनोवैज्ञानिकों ने अपने विस्तृत अध्ययन के उपरान्त कहा कि यह उपासना की एकाग्रता का परिणाम है। संत कैथेराइन ‘ईसा’ के ध्यान में इतनी तन्मय हो जाती है कि उन्हं वह अनुभूतियाँ भी होने लगती है जो क्रास पर लटकाये जाने के समय ईसा को हुई थी। उनकी सघन संवेदनाएँ अपने इष्ट से जुड़कर अनुभूति का रुप ले लेती थी।

मनुष्य का व्यक्तित्व उसके विचारों का प्रतिबिंब है। चिन्तन मन ही नहीं शरीर को भी प्रभावित करते है। मनोकायिक अधिकाँश रोग निकृष्ट चिन्तन के ही परिणाम होते है। इस तथ्य को मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में एक मत से स्वीकार किया जा रहा है। उपासना श्रेष्ठ चिन्तन एवं उत्कृष्ट व्यक्तित्व के निर्माण का एक सशक्त माध्यम है। मस्तिष्क की बनावट कुछ ऐसी है वह चिन्तन के लिए आधार ढूँढ़ता है। जैसा माध्यम होगा उसी स्तर का च्िन्तन चल पडे़गा। तद्नुरुप क्रिया-कलाप होगे। वातावरण का व्यक्ति पर पड़ने वाला प्रभाव एक तथ्य है। दुर्जन, अनाचारी के साथ रहने वाला व्यक्ति उनसे प्रभावित होता है। संत, महात्मा के सानिध्य में रहने वाला उनके आचरण को ग्रहण करता है। यह उनके व्यक्तित्व का प्रभाव है जो समीप आने वाले को अपने अनुरुप बना लेता है। मानवी चिन्तन व्यक्तियों एवं वातावरण से प्रभावित होता है। गतिविधियाँ एवं अनुभूतियाँ भी उसी स्तर की होती है।

वर्तमान समय में श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्तियों का अभाव है। बहुलता हेय-गये गुजारों की है तो अनुकुल वातावरण की अपेक्षा करना एक विडम्बना है। इन परिस्थितियों में समस्या यह खड़ी होती है कि मानवी व्यक्तित्व को श्रेष्ठ कैसे बनाय जाय? विचार करने पर एक ही रास्ता दिखाई पड़ता है उपासना का अवलम्बन।

उपासना से जुड़ी आदर्शवादी मान्यताएँ एवं प्रेरणाएँ ही चिन्तन को श्रेष्ठ एवं व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बना सकने में समर्थ हो सकती है। उपासना की समग्रता एवं उसके मनोवैज्ञानिक प्रभावों को भली-भाँति समझा जा सके तो व्यक्तित्व निर्माण का एक सुदृढ़ आधार मिल सकता है। व्यक्तित्व का परिष्कार ही उपासना का लक्ष्य होता है।

इसका निर्धारण उससे जुडें़ आदर्शो एवं उच्च स्तरीय सिद्धान्तों द्वारा साधक को श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है। इष्ट में तन्मय होने का अभिप्राय है उच्चस्तरीय आदर्शों एवं सिद्धान्तों में लीन हो जाना और उसके अनुरुप आचरण करना। उपासना द्वारा निर्माण की यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया चलती रहती है। उपासना में तन्मयता की पराकाष्ठा साधक-साध्य के बीच विभेदकों समाप्त कर देती है। द्वैत से उठकर ‘अद्वैत’ की स्थिति बन जाती है। फलस्वरुप इष्ट की अनुभूतियाँ साधक को होने लगती है। सेन्ट कैथेराइन की पीड़ा, मीरा का कृष्ण के प्रति भक्ति में एकाकार हो जाना, रामकृष्ण परमहंस द्वारा सर्वत्र काली का दर्शन करना, काली के स्वरुप में स्वयं का अस्तित्व भूल जाना उपासना की तन्मयता एवं उसकी प्रतिक्रियाआँ का ही प्रभाव है। यह असामान्य स्थिति न भी हो तो भी साधक के विचारों का परिशोधन होता जाता है। भाव-संवदेनाओं में आदर्श वादिता जुड़ने लगती हैं

उपासना में इष्ट का निर्धारण क्या हो यह व्यक्तिगत अभिरुचि एवं मनःस्थिति के उपर निर्भर करता है। चिन्तन को लक्ष्य की ओर नियोजित किए रखने के लिए साकार अथवा निराकार कोई भी अवलम्बन लिया जा सकता है। यह आवश्यक है और उपयोगी भी। उपासना के साथ जुड़े चिन्तन प्रवाह में आदर्शवादिता का जितना अधिक पुट होगा उसी स्तर की सफलता प्राप्त होगी। इष्ट से तादात्म्य और उससे मिलने वाले दिव्य अनुदानों से वह आधार बन जाता है जिससे साधक अपने चिन्तन एवं गतिविधियों को श्रेष्ठता की ओर मोड़ सके।

आधुनिक मनोविज्ञान ने नये तथ्यों का उद्घाटन किया है जो आध्यात्मिक मान्यताओं की पुष्टि करते है। चिन्तन को व्यक्तित्व का मूल आधार माना जाने लगा है। मनोविज्ञान की शोधों ने सिद्ध किया हे कि मनुष्य का जैसा भी आदर्श होगा उसके अनुरुप ही उसका व्यक्तित्व ढलेगा। आदर्श यदि श्रेष्ठ है तो चिन्तन और गतिविधियों में भी उत्कृष्टता का समावेश होगा। इसके विपरीत निकृष्ट आदर्श निम्नगामी प्रवृत्तियों को प्रोत्सान देगे। हेय व्यक्तित्व ही गढ़ेगें। उपासना में इष्ट का निर्धारण परोक्ष रुप में श्रेष्ठ आदर्शों की ही प्रतिष्ठापना है। जिसके निकट आने, तादात्म्य स्थापित करने वाला भी उसी के अनुरुप ढलता-बनता चला जाता है।

प्राकृतिक चिकित्सक डाँऋ ‘हेनरी लिंडलहर’ अपनी पुस्तक ‘प्रैक्टिस आँफ नेचरल थेरोप्यूटिकस’ में उपासना के प्रभावों के विषय में लिखते है कि हम शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को किसी दिव्य सत्ता, देवदूत अथवा सर्व व्यापी चेतना से एकत्व स्थापित करके निश्चय पूर्वक सुधार करते है। उनका कहना है कि “हम जिस प्रकार की आत्मा का ध्यान करते है उससे हमारा सर्म्पक उसी प्रकार स्थापित हो जाता है उससे हमारा सर्म्पक उसी प्रकार स्थापित हो जाता है जिस प्रकार वायरलेस के द्वारा संसार के विभिन्न रेडियों स्टेशनों से सर्म्पक हो जाता है। दिव्य-सत्ताओं से सर्म्पक एवं उनसे मिलने वाली दिव्य प्रेरणाओं से आध्यात्मिकही नहीं शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य सर्म्बधन का लाभ भी प्राप्त कर सकते है। प्रत्येक मनुष्य का मस्तिष्क वायरलेस सैट के समान है जो हर समय भले-बुरे विचारों को ग्रहण करता रहता है। मन में किस प्रकार के विचार उत्पन्न होगे यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम किस प्रकार की आत्मा से सर्म्पक जोड़ रहे है अर्थात् इष्ट से जुडे़ आदर्श कैसे है।

विचारों की परिपक्वता एवं दृढ़ता, समीपवर्ती व्यक्तियों एवं वातावरण को भी प्रभावित करती है। ‘उपटन सिकलेयर’ मेन्टल रेडियों नामक पुस्तक में लिखते है कि उपासना व्यक्तित्व निर्माण की एक समग्र प्रक्रिया है। जिसका अवलम्बन लेने वाला स्वयं श्रेष्ठ बनता तथा अन्यों को भी प्रभावित करता है। वह अपने विचारों का प्रसारण अभौतिक माध्यमों से अन्य लोगों तक कर सकता है। इसमें व्यक्ति एवं वातावरण को अनुपवर्ती बनाने के सभी तत्व विद्यमान है।”

उपासना को जीवन की अनिवार्य आवश्यकता के रुप में स्वीका करते हुए प्रसिद्ध मनवैज्ञानिक ‘चार्ल्सथुग’ ने कहा है कि “सभी धर्मों में प्रचलित उपासनाएँ मानव स्वास्थ्य एवं समग्र विकास के लिए आवश्कय है।” उनका कहना है कि “संसार के सभी मानसिक चिकित्सक मिलकर भी उतने रोगियों को आरोग्य प्रदान नहीं कर पाते जितना कि संसार का छोटे से छोटा धर्म करा पाता हैं

मानसिक अशान्ति एवं असंतोष का कोई स्थाई उपचार किसी भी चिकित्सा प्रणाली में उपलब्ध है।

चिन्तन में उत्कृष्टता एवं व्यक्तित्व में समग्रता के समावेश के लिए उपासना का अवलम्बन आवश्यक है। इसमें व्यक्ति एवं समाज के सर्वतोमुखी परिष्कार एवं प्रगति के सभी आधार विद्यमान है। समस्याओं की जटिलता एवं परिस्थितियों की विषमता के निराकरण के लिए उपासना आज की सर्वोत्तम आवश्यकता है।

चक्रवर्ती भरत छह खण्डों को विजितकर वृमाचल पर्वत पर अपना नाम लिखने गए। वे सोचते थे “मैं बड़ा चक्रवर्ती हूँ। इस पर्वत पर मेरा ही नाम रहेगा।” परन्तु पहाड़ पर हुँचने पर उन्होने देखा कि वहाँ तो पहिले से ही अगणित नाम लिखे हुए है जिन्हे अनेकों चक्रवर्ती लोग आ-आकर लिख गये है। पर्वत पर नया नाम लिखने की जगह ही नहीं बची थी। यह देख भरत का गर्व चूर-चूर हो गया। वह बिना नाम लिखे ही लौट आये। जो मृत्यु को ही न जीत पाया वह कैसा चक्रवर्ती?


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