अति विलक्षण अचेतन की माया

June 1980

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विश्व के अगणित जीव जन्तुओं में विविध प्रकार की ऐसी समता पाई जाती है जिनसे मनुष्य वंचित रहता है। उदाहरण के लिए चमगादड़ के ज्ञानतंतु राडार क्षमता सम्पन्न होते है। वह अपनी इस क्षमता के आधार पर विभिन्न वस्तुओं से निकलने वाली विद्युत तरंगो को भलीभाँबति पहचान लेता है और घने अन्धकार में भी अपने आसपास की वस्तुओं का स्वरुप एवं उनका स्थान समझ कर बिना किसी से टकराये उड़ता रहता है।

समुद्र में एक मछली पाई जाती है जिसे डाल्फिन कहा जाता है। इस मछली के शरीर से एक प्रकार की रेडियों तरंगे निकलती है, जो पानी के भीतर ही दूर तक फैल जाती है और उस क्षेत्र के जीव जन्तुओं से टकराकर उसी के पास वापस लौटा आती है। इस क्षमता के आधार पर मस्तिष्क क्षण में यह जान लेता है कि कौन सा जीव किस आकृति प्रकृति का हे और कितनी दूर है। उसी आधार पर डाल्फिन मछली अपने बचाव तथा आक्रमण की योजनाबद्ध तैयारी करती है।

विकासवाद के अनुसार के कई जीव जन्तुओं ने आवश्यकतानुसार अपने शरीर में ऐसी विशेषताऐ उत्पन्न कर ली, जो आरम्भ में नहीं थी। जैसे मेढ़क ने जल में प्रवेश करने पर गोताखोरों के द्वारा चढ़ाये जाने वाले चश्में की तरह एक आवरण विकसित कर लिया जो पहले नहीं था। रावण प्लाँट और ग्रेटमुलर पौधों ने पशुओं द्वारा चरे जाने से आत्मरक्षा के लिए नोंकदार काँटे विकसित किये है। तितलियों के बच्चे और रेशम के कीड़े अपने शरीर से रस निकाल कर उस पर पत्तियाँ चिपका लेते है और आत्मरक्षा की सुविधा उत्पन्न करते है। कछुए ने मगरमच्छों से अपने स्वादिष्ट माँस को बचाने के लिए चमड़ी को काफी मोटा और सख्त बना लिया व्हेल मछली ने पनडुब्बियों की सारी खास-खास विशेषताए। अपने शरीर में उपस्थिति करा रखी है। लगता है कि मनुष्य ने व्हेल की शरीर रचना देख कर ही पनडुब्बियों का विकास किया है।

गिलहरी ने अपने गालों में दो जेबे विकसित की है ताकि वह उसमें उपलब्ध खाद्य समग्री जल्दी से जमा कर सके। बन्दर के गले में भी ऐसी ही थैलियाँ होती है ताकि उसमें वह अपने बचे रख सके। आहार उपलब्धि की दृष्टि से असुविधा का समय पास आते ही चीटियाँ तथा दूसरे कीड़े अपने लिये आहार जमा करने लगते है। उनका भविष्य ज्ञान बिल्कुल सही होता है।

दीमक और चींटीयों के झुन्ड की लड़ाई देखते ही बनती है उनकी मोर्चा बन्दी आक्रमण तथा बचाव के ढंग से योद्धा मनुष्यों को बहुत सीखने के लिए मिल सकता है। अफ्रीका का काटन रले जाति का खरगोश हिंसक जंतुओं का खतरा देख कर अपनी पिछली टाँग एक खास तरीके से जमीन में मरता है, उससे एक विद्युत धारा उत्पन्न होती है जो भूमि के उपर वाले परत पर दूर तक फैल जाती है। दूसरे खरगोश उस को तुरन्त सुन लेते है और सजग होकर अपने बचाव की तैयारी भी करने लगते है। खरगोश ही नहीं दूसरे अन्य कई जानवर भी इस तरह के संकेतों को समझकर उनसे लाभ उठाते है तथा बचने की व्यवस्था बना लेते है, उत्तरी अमेरिका की नदियों में पाई जाने वाली “ईल”‘ मछली अपने आप में एक अच्छा खासा डायनुमा है। घरों की बत्तियाँ 220 वोल्ट पर जलती है पर उसके शरीर से 500 से भी अकिध वोल्ट टेज की बिजली उत्पन्न होती देखी गई हे।

कुछ विशेषताएँ तो आम भी देखी जा सकती है। वर्षा की संभावना निकट आते ही मकड़ अपना जाला खाली जगह में से समेट कर बचाव की जगह पर चली जाती है। गिरने वाले मकान में से बिल्ली अपने बच्चों को लेकर कुछ ही समय पूर्व सुरक्षा के लिए प्रयास करती देखी गई है। कछुआ बालू में अण्डे देता है और दूर रह कर अपनी मानसिक चतना द्वारा उन्हे सेता रहता है। अनुकुल ऋतु की तलाश में पक्षी हजारों मील उड़कर समुद्र और पर्वतों को लाँघते हंए कही से कही चले जाते है और सुविधा की ऋतु आने पर इतनी ही लम्बी यात्रा बिना भूले भटके पर कर के वापस आ जाते है। कई मछलियाँ अण्डे देने के लिए अपनी पूर्व जानकारी के उपयुक्त स्थान पर पहुँचने के लिए हजारों मील की समुद्र में यात्रा करती है और फिर वापस आती है।

इन पशु-पक्षियों में कोई मस्तिष्क तो होता नहीं, मनुष्य जैसी प्रखर बुद्धि भी नहीं होती। फिर किस आधार पर इनमें ये विशेषताएँ उत्पन्न हो सकी है इसका विश्लेषण करते हुए अतीन्द्रिय विद्या के शोधकत्ताओं परामनोवैज्ञानिको का कथन हे कि यह सब क्रिया-कलाप इन छोटे जीव-जन्तुओं का अचतन मन कराता है। चेतन मस्तिष्क की विशेषताएँ तो सर्वविदित है। वह मनुष्य के ही पास है। इसके आधार पर विद्धान, लेखन, कलाकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक, व्यवसायी, उद्योगपति, राजनेता आदि अनेकों वर्ग के बुद्धिजीवी अपन बौद्धिक चेतना के बल पर अपना तथा दूसरों का हित साधन करते है, यह किसी से नहीं छिपा हें ये सब चेतन

मस्तिष्क के ही चमत्कार है।

मनोवैज्ञानिक भी अब इस बात को स्वीकार करने लगे है कि अचेतन मस्तिष्क चेतन मस्तिष्क से कही अशिक रहस्यपूर्ण और विलक्षण क्षमताओं से सम्पन्न है। अभी उसके क्रियाकलापों का सात प्रतिशत भाग ही मनोवैज्ञानिक जान पाते है और उस आधार पर यह कहा जात है कि शरीर यात्रा की स्वसंचालित गतिविधियों तथा रक्त परिभ्रमण, हृदय स्पंदन, पाचन, उर्त्सजन आदि क्रियाओं का संचालन नियमन यह अचेतना मस्तिष्क ही करता है अभिरुची, प्रकृति स्वभाव और आदतों की जड़ भी इसी अचेतन मस्तिष्क में जड़ जमाये रहती हैं। अचेतन मस्तिष्क के सम्बन्ध में अभी इतना जाना ही जा सकता है। आगे चलकर परामनोविज्ञान और अतीन्द्रिय विद्या की खोज आरभ हुई तो पाया गया कि मस्तिष्क तो सर्वाधिक रहस्मय, विलक्षण और चमत्कारपूर्ण है ही अचेतन मस्तिष्क उससे हजार लाख गुना रहस्यपूर्ण है। यह संसार का सबसे अधिक रहस्यमय, उद्भुत और शक्तिशाली यन्त्र है। यदि उनमें सन्निहित संभावनाओं को पूरी तरह समझा जा सके और उन्हें साकार किया जा सके तो इतना बड़ा चमत्कार उत्पन्न हो सकता है कि कुछ ही वर्षों में अब तक हुई प्रगति से हजार गुना प्रगति संभव हो सकती है और तब जो दुनिया विनिर्मित हो सकती है, वह अब की अपेक्षा लाख गुना उन्नत और विकसित स्थिति की हो सकती है।

यो पदार्थ विज्ञान के क्षेत्र में ही अब तक जितना जो कुछ खोजा और जाना जा सका है, उससे बहुत अधिक खोजना और जानना शेष है। मानवीय शरीर के बारे में ही अभी बहुत कम खोजा जा सका है। जो कुछ जाना जा सका है वह अभी स्थूल जानकारी ही हे वह भी इतनी विलक्षण है कि उसे जानकर सहज ही आर्श्चय होता है, मस्तिष्क विद्या न्यूरोलाजी साइकोलाजी का क्षेत्र उससे भी गहन है। इसके बाद अतीन्द्रिय विद्या आती है, जिस का संबंध अचेतन मस्तिष्क से है।

यदि इस शक्ति केन्द्र का समझा जा सके तो यहाँ सब कुछ देवलोकों के अद्भुत वर्णन, चित्रण जैसा दिखाई पड़ सकता है। अतीन्द्रिय विद्या के शोधकत्ताओं का कथन है कि चेतन मस्तिष्क की सक्रियता-अचेतन की क्षमता तरंगों को काटती है। इसलिए यह अविकसित स्थिति में ही पड़ा रहता है। यदि बौद्धिक संस्थान की गतिविधियाँ मंद से शिथिल की जा सके तो उसी अनुपात से अचेतन केन्द्र जागृत हो सकता है। सामान्यतः हमारे चेतन मस्तिष्क में प्रतिक्षण कोई न कोई विचार कोई न कोई कल्पनाएँ और आकाँक्षाएँ उठती रहती है। एक क्षण भी ऐसा नहीं बीतता जिसमें मस्तिष्क शाँत या शून्य हो। हर समय चेतन मस्तिष्क व्यस्त और सक्रिय रहता है। यहाँ तक कि सोते समय भी वह स्वप्न देखता रहता है। यदि इस मस्तिष्क को कुछ समय के लिए शाँत, शिथिल और शून्य किया जा सके तो अचेतन को कार्य करने का अवसर मिल जाता है और वह अपनी विलक्षण विभूतियों से लाभान्वित कर सकता है।

मनोविज्ञान तो अब इस निर्ष्कष पर पहुँचा है, लेकिन योग विद्या के आचार्य बहुत पहले से ही इस निर्ष्कष पर पहुँच चुके है। इतना ही न ही उन्होंने प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि जैसी साधनाओं के माध्यम से चेतन मस्तिष्क को शिथिल निष्क्रिय एवं शून्य स्थिति में ले जाने में भी सफलता प्राप्त कर ली थी। यह सफलता आज भी प्राप्त की जा सकती है, जो अनेक चमत्कारों की जननी है। दूरदर्शन, दूरश्रवण, विचार प्रेषण, भविष्य ज्ञान, अदृश्य का प्रत्यक्ष आदि कितनी ही ऐसी विशेषताएँ प्राप्त की जा सकती है, जो साधारणतय मनुष्यों में नहीं होती।

अचेतन मस्तिष्क को यदि विकसित किया जा सके, उसे थोड़े समय के लिए भी सक्रिय होने का अवसर मिल सके तो व्यक्ति अपने शरीर, मन, स्वभाव प्रकृति आदि का काया कल्प करा सकता है। यह संभावनाएँ योग-साधना द्वारा प्रत्यक्ष की जा सकती है। योग साधना का मूल उद्देश्य ही चित्त वृत्तियों का निरोध है। कहा भी गया है-

योगश्चित वृत्ति निरोधः। (योग दर्शन 1। 2)

इसका तार्त्पय है मस्तिष्क की अतिशय अनावश्यक सक्रियता को नियन्त्रित करके चेतन उर्जा का अपव्यय होने से बचा लेना और उस बचे हुए प्राण प्रवाह को अचेतन का विकास करने में नियोजित कर देना। इसके लाभ अलौकिक उपलब्धियों के रुप में देखे जा सकते है। समाधि स्थिति तक पहुँचा हुआ व्यक्ति इसी आधार पर विश्व की जड़ चेतन सत्ता को प्रभावित करने में सक्षम समर्थ होता है।

चेतन मस्तिष्क को निष्क्रिय और शिथिल बनाने का अर्थ यह नहीं है कि बुद्धि से कोई काम ही न लिया जाय। यह समझना गलत होगा। योग साधना विद्यार्जन, ज्ञान साधना या बौद्धिक विकास के प्रयत्नों पर प्रतिबन्ध नहीं लगाती। उसमें मानसिक उर्त्कष, विद्याध्ययन कलाकौशल आदि के विकास और संवर्धन की पूरी छूट है। प्रतिबन्ध केवल इस बात का है कि मनः क्षेत्र को उत्तेजित, विक्षुब्ध एवं अंशात न होने दिया जाय। अनाशक्ति, स्थित प्रज्ञा आदि पर योगशास्त्रों में बहुत जोर दिया गया है। इनका तार्त्पय इतना ही है कि अनुकुल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ सदैव आती जाती रहती है। इनसे क्षुग्ध न होने और संतुलित बने रहने के लिए यदि मन को साध लिया जाय-वह स्थिति अचेतन मन की दिव्य क्षमता को काटने वाली उथल-पुथल भरी उष्मा को भी नहीं बढ़ने देती। यही मानसिक सन्तुलन योग का प्रथम चरण है।

एकं सदविप्रा बहुधा वदन्ति अग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः॥ (ऋग्वेद 6। 32। 4)

दूसरे चरण में चेतन मस्तिष्क की सभी गतिविधियों को रोक कर उस संस्थान में कार्य करने वाली शक्ति को अचेतन मस्तिष्क का विकास करने में लगाना होता है इस साधना में एकाग्रता को बढ़ाना होता है और मन में उठने वाले विभिन्न संकल्पों को रोककर उसे एक केन्द्र पर स्थिर रखने का प्रयत्न करना पड़ता है। योग साधना में इसके लिए ध्यान को सर्वोत्कृष्ट माध्यम बताया गया है। ध्यान के द्वारा योगीजन अपनी एकाग्रता को बढ़ाते हुए चित्त को जागृत अवस्था में ही संकल्प पूर्वक लय कर देते है। इस स्थिति को समाधि कहा गया है और यह स्थिति प्राप्त करने के लिए प्रत्याहार, धारणा ध्यान आदि भूमिकाएँ पार करनी पड़ती है। इन साधनाओं के द्वारा सचेतन बुद्धि संस्थान में लगी हुई चिन्तन और संकल्प की क्षमता को जब अचेतन के साथ जोड़ दिया जाता है तो उसकी अद्भुत और अनुपम दिव्यताएँ जागृत होना आरम्भ कर देती है। इस दिशा में जो जितनी सफलता प्राप्त करता चलता है उसे उतना ही समर्थ और सिद्ध पुरुष कहा जाता है। उसे उतना ही समर्थ और सिद्ध पुरुष कहा जाता है। इन प्रयोगों को यदि व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग से किया जा सके तो निस्संदेह मनुष्य साधारण न रह कर असाधारण बन जाता है।


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