सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान चीफ इंजीनियर

November 1978

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एक प्रश्न का सही उत्तर भी सदैव एक होता है, दो नहीं। यदि उत्तर दो हों तो उनमें से एक का असत्य होना अवश्यम्भावी है, यह एक बात हुई। जिसका उत्तर सही होता है वह उत्तीर्ण विद्वान और विचारवान घोषित किया जाता है जिसका हल त्रुटिपूर्ण होता है यह माना जाता है कि उसका अध्ययन अपूर्ण रहा, यह दूसरी बात हुई। एकिक नियम से इन दोनों बातों को यों भी कहा जा सकता है विद्वान, विचारवान और अध्ययनशील व्यक्तियों के निष्कर्ष मान्य होने चाहिये जबकि जिन्होंने किसी विषय का स्पर्श ही न किया हो उसके उत्तर से सन्तुष्ट कदापि नहीं हो जाना चाहिये।

परमात्मा का अस्तित्व है या नहीं इस बात की पुष्टि के लिये यदि उपरोक्त सिद्धान्त को कसौटी पर कसें तो ऐसा लगता है कि मात्र सतही ज्ञान वाले, या निषेध बुद्धि व्यक्तियों ने ही उपरोक्त मान्यता का खण्डन किया है, विज्ञान वेत्ताओं में अधिकांश सभी ने या तो इस सम्बन्ध में प्रायोगिक तौर पर अपनी अनभिज्ञता व्यक्त की है या फिर उन्होंने पूरी तरह ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास व्यक्त किया है।

ईश्वर की मान्यता सृष्टि का सर्वोच्च विज्ञान है, और परम सत्य की खोज, विज्ञान का इष्ट। अतएव वैज्ञानिकों के निष्कर्षों की उपेक्षा करने का अर्थ असत्य का समर्थन और सत्य से इनकार के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। अखण्ड-ज्योति में समय-समय पर वैज्ञानिकों की वह सम्मतियाँ प्रकाशित की जाती रही हैं जिनमें उन्होंने विराट् के प्रति, असीम के प्रति श्रद्धा वश, ज्ञान के अगाध विस्तार और मानवीय विवेक के आधार पर समर्थ सत्ता के औचित्य को स्वीकार किया है। ऐसा ही जोरदार प्रश्न एक बार अमेरिका के वैज्ञानिकों के सम्मुख वहाँ के बुद्धिवादियों ने उठा दिया उस समय “न्यूयार्क एकेडमी आफ साइन्सेज” के तत्कालीन अध्यक्ष-वैज्ञानिक ए क्रैशी मारिशन ने उसका उत्तर इतने तार्किक और व्यवस्थित ढंग से दिया जिससे डार्विन के सिद्धान्त को मानने वालों में तहलका मच गया। ईश्वरीय अस्तित्व के प्रतिपादन में उन्होंने जो सात मूलभूत आधार निश्चित किये हैं वे इतने सशक्त और प्राणवान हैं जिनसे एकाएक तो कोई पूर्वाग्रह ग्रस्त नास्तिक भी इनकार नहीं कर सकता। ये सातों सिद्धान्त भारतीय सिद्धान्त सृष्टिकर्त्ता के- (1) सृजन कर्त्ता (2) पालन कर्त्ता (3) संहार कर्त्ता तीनों स्वरूपों का प्रतिपादन करते हैं।

योरोप तथा एशिया के वैज्ञानिकों के समक्ष अपनी बात प्रस्तुत करते हुए मारिशन महोदय ने बताया कि सृष्टि संरचना पर दृष्टि दौड़ाते हैं तो ऐसा लगता है सारा निर्माण किसी गणितज्ञ, सूझबूझ वाले, बुद्धिमान चीफ इंजीनियर की देख-रेख प्लानिंग के अन्तर्गत हुआ है सृष्टि का प्रादुर्भाव एकाएक, अकस्मात्, दुर्घटनावश, यों ही नहीं हो गया। रेल की रेल से, मोटर से, पुल से दुर्घटना हो जाती है, तो ध्वंस होता है, विनाश होता है, त्राहि-त्राहि मचती है जबकि संसार में अच्छी से अच्छी और उससे अच्छी प्रसन्नतादायक रचनायें निर्गत होती चली आती हैं, ध्वंस के स्थान पर व्यवस्था दिखाई देती है। प्रसन्नता, प्रफुल्लता, उल्लास, उत्साह और प्राणों की छलकन दिखाई देती है। दुर्घटना कभी-कभी होती है, आकस्मिकता का नम्बर करोड़ों बार के प्रयोग में कहीं एक बार आता है। उदाहरण के लिये दस-दस नये पैसे के दस सिक्के लें उन पर एक से दस तक के नम्बर डाल दें। सारे सिक्कों को दोनों हथेलियों का घोंसला बनाकर देर तक हिलायें और उन्हें फिर एक गड्डी में रख दें। यह क्रिया सौ दो सौ बार दुहरायें तो यह सम्भव है कि एक नम्बर का सिक्का ठीक एक नम्बर पर ही आ जाये। हजार दो हजार बार में एक नम्बर के बाद दूसरा भी क्रम में आ सकता है, चार पाँच हजार बाद में सम्भव है एक, दो तीन नम्बर वाले सिक्के भी क्रम में आ जायें। एक से दस तक के सभी सिक्के एक ही क्रम में आ जायें, उस स्थिति के लिये लाखों करोड़ों नहीं असंख्य बार यह क्रिया दोहरानी पड़ सकती है। यदि सिक्कों को आँखों से देख कर, ज्ञान से उनके नम्बर पढ़कर क्रम बार लगायें तो एक से अधिक बार की क्रिया दोहरानी नहीं पड़ेगी। प्रकृति की, सृष्टि की सुव्यवस्थायें इस बात की प्रमाण हैं कि यह सारी रचना प्रकाश में, बुद्धि के द्वारा देख सुन समझ और निष्कर्षों को ध्यान में रखकर की गई है।

उस बड़े इंजीनियर का रेखा गणित ज्ञान तो उस समय आश्चर्यचकित कर देता है जब पता चलता है कि पृथ्वी अपने ही कक्ष में 23 (अंश) झुकी हुई है यदि ऐसा न होता तो महासागरों का सारा जलवाष्प विभक्त होकर कुछ उत्तरी ध्रुव में भाग जाता कुछ दक्षिणी ध्रुव में। फिर न ये सुहावने बादल आते, न रिमझिम वर्षा होती, न झरनों की झरझर, न नदियों की कल−कल, पौधों का बढ़ना फूलना, फलना सारी शोभा विनाश के गर्भ में डूब जाती।

पृथ्वी कुल दस फुट मोटी होती तो जीव जगत के लिए ऑक्सीजन ही सम्भव न होता। समुद्र दस फुट गहरा होता तो कार्बन डाई ऑक्साइड और ऑक्सीजन का संतुलन ही न बैठता, वायुमण्डल विरल होता तो तारों का उल्कापात इस तरह होता मानों किसी बगीचे में आम टपकते हों। सारी धरती लहूलुहान होती, सौन्दर्य नाम की तो यहाँ कोई सत्ता ही नहीं होती।

अपना दूसरा तर्क प्रस्तुत करते हुए डॉ0 मारिशन ने बताया कि जिन दिनों डार्विन विकासवाद सिद्धान्त प्रतिपादन करने में जुटे थे उन दिनों “प्रोटोप्लाज्मा” या “कोशिका विज्ञान” का प्रादुर्भाव नहीं हो पाया था। इस विज्ञान से जीवन का सूक्ष्मतम स्वरूप आया और यह सिद्ध हो गया कि कोशिका उसी तरह का एक ब्रह्माण्ड है जैसा हमारा बाह्य दृश्य ब्रह्माण्ड। उसमें से नाभिक की इच्छा से प्लाज्मा की हलचल होती है स्वयं साइटोप्लाज्मा से नाभिक नहीं बनाता। इसे यों समझ सकते हैं कि दृश्य प्रकृति का निर्माण सूर्य करता है। यह दृश्य प्रकृति ने सूर्य निर्माण नहीं किया। यह चेतना ही जीवन है और भार न होने पर भी इतना शक्तिशाली है कि पौधे में अभिव्यक्त होता है तो चट्टान को फोड़कर ऊपर आ जाता है। इतना बड़ा कलाकार है कि फूलों में तरह-तरह के रंग भरता रहता है। प्रत्येक जीव को समूह गान की प्रेरणा देकर उसने अपने आपको महान संगीतज्ञ और प्रत्येक फूल में अलग-अलग तरह की गन्ध भर कर उसने अपने महान रसायनज्ञ (केमिस्ट) स्वरूप ही दर्शा दिया है।

बाजार की किसी खिलौने वाली दुकान में जाते हैं तो झांझ बजाने वाली गुड़िया नाच दिखाने और ढपली बजाने वाले बन्दर, दौड़ने वाले घोड़े, तेज गति से दौड़ने वाली बसें, रेलें और हैलिकॉप्टर आदि तरह-तरह के खिलौने देश कर मन प्रसन्न हो उठता है। सामान्य दृष्टि में यह खिलौना चाभी भर देने से चलने वाले होते हैं, पर विचारशील व्यक्ति उसे इंजीनियरिंग बुद्धि का कौशल मानते और उन कारीगरों की प्रशंसा करते हैं जिन्होंने उनके भीतर इस तरह की मशीनरी का निर्माण कर दिया जिससे निर्जीव घोड़े, प्लास्टिक के बने बन्दर भी सजीव से गति करते दिखाई देने लगते हैं।

सृष्टि में दृष्टि दौड़ायें तो लगता है यहाँ भी एक विलक्षण इंजीनियरिंग कलाम भरा हुआ है। खिलौनों की मशीन की तुलना प्रकृति के नन्हें-नन्हें जीव-जन्तुओं से लेकर विशालकाय पशुओं तक की अन्तःप्रवृत्तियों से की जाती है। इनमें मनुष्यों की तरह की विचारशक्ति नहीं होती, उनमें लिखने-पढ़ने या गूढ़ विषयों को सोचने समझने की भी सामर्थ्य नहीं होती, पर जिस तरह चाबी भरे हुए खिलौने वैसी ही गति करने लगते हैं जैसे उनके मूल उपमान तो यह विश्वास न करने का कोई कारण शेष नहीं रह जाता कि सृष्टि का कोई नियंता नहीं है। अन्तःप्रवृत्तियों का यह इतिहास इतना अचरज भरा है कि उसमें सिवाय सृष्टि सृजेता के सर्वज्ञ सर्व कुशल और सर्वशक्तिमान होने के अतिरिक्त दूसरी बात ही मस्तिष्क में नहीं आती। अस्तित्व में न होने की बात तो बिलकुल ही गले नहीं उतरती।

सालमन मछली वर्षों तक समुद्र में रहती है और जब कभी अपने जल स्थान की याद करती है तो समुद्र से चलकर अनेक बड़ी नदियों, सहायक नदियों की यात्रा करती हुई ठीक उसी स्थान पर पहुँच जाती है जहाँ उसका जन्म हुआ था यदि उसे विपरीत दिशा में मोड़ने का प्रयत्न भी किया जाये या धोखा देने का प्रयास किया जाये तो भी उसे बहकाया नहीं जा सकता। वह फिर कर लौटेगी अपने सही स्थान को ही।

टिड्डियाँ किसी उपयुक्त स्थान पर अंडे देकर उड़ जाती हैं। पीछे बिना अभिभावकों की देख−रेख के अंडों से बच्चे निकल आते हैं और अपने पूर्वजों के पीछे-पीछे यात्रा पर उसी दिशा में चल पड़ते हैं और कुछ समय पश्चात् अपने पितरों से जा मिलते हैं।

प्रवासी पक्षी एक ऋतु कहीं गुजारते हैं, दूसरी के लिये कठिन यात्रायें करके ठीक उसी स्थान पर जा पहुँचते हैं जहाँ उनके वंशधर आते जाते रहे हैं। ये सारे कार्य अन्तःप्रवृत्ति के सहारे चलते हैं। ये प्रवृत्तियाँ और कुछ नहीं वह चाबियां हैं जो नियन्ता ने उनमें पहले से भर कर छोड़ दी हैं।

ईल मछली इस तरह का सर्वाधिक आश्चर्यजनक उदाहरण है। दुनियाभर की सभी ईलें चाहे वह ग्रेट वियर की हों या काश्मीर की डल झील की अंडे बच्चे। वे अटलांटिक के बरमूडा क्षेत्र में जहाँ समुद्र संसार में सबसे गहरा है, में ही देती हैं। यह वही स्थान है जहाँ से पृथ्वी किसी ऐसे ब्रह्माण्डीय शक्ति प्रवाह से जुड़ी है जहाँ के आकाश में गया कोई भी जहाज आज तक लौटा नहीं, यह कहाँ अन्तर्धान हो जाते हैं यह आज तक भी कोई जान नहीं पाया।

झीलों की ईलें, वहाँ से निकलने वाली नदियों से होकर समुद्र और समुद्र से अटलांटिक महासागर और वहाँ से बरमूडा पहुँचती हैं। वहाँ बच्चे देकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देती हैं जिस मछली ने कोई भूगोल नहीं पढ़ी जिसे महाद्वीपों का ज्ञान नहीं। वही ईलें यहाँ जन्म लेने के उपरान्त अपने माता-पिता के देश चल देती हैं और बड़े-बड़े महासागर पार कर ठीक वहीं जा पहुँचती हैं जहाँ उनके माता-पिता कभी जीवनयापन किया करते थे।

ततैया की तरह का कीड़ा वाष्प ऐसा जीव है जिसके बच्चों को विकास के लिये जीवित जीव का ही मांस चाहिये मृत का नहीं, वाष्प कीड़ा घास के कीड़े को पकड़ता है और उसे मिट्टी में इस तरह गाड़ देता है जिससे वह मरता नहीं वरन् मूर्छित हो जाता है। इस तरह जीवित किन्तु अचेतन घास के कीड़े से ही ये बच्चे अपना विकास कर लेते हैं। यह बुद्धि का खेल नहीं है यह मात्र भरी हुई चाबी का खेल है यदि बुद्धि की बात होती तो हाथी विधिवत् खेती कर रहे होते, शेर अपने बच्चों के लिये विद्यालय खोले हुए होते, भेड़ियों की मनुष्य से मित्रता हो गई होती, बन्दर बगीचों के मालिक हो गये होते। ठीक उसी तरह जिस तरह चाबी भरा घोड़ा आदमी को देशाटन करा सकता है, हर मनुष्य की अपनी रेलगाड़ी होती और हैलिकॉप्टर से कम में कोई यात्रा नहीं कर रहा होता।

मनुष्य में बौद्धिक क्षमताओं की असीम सम्भावनायें परमात्मा के अस्तित्व का चौथा बड़ा प्रमाण है। इस इलेक्ट्रानिक युग में जब कि दुनिया भर के सारे कार्य कम्प्यूटर करने लगे हैं, मानवीय बुद्धि की तुलना में सभी हतप्रभ हैं। गणित के उतने हल जितनी जानकारियाँ भरी गई हों कंप्यूटर प्रदान कर सकता है, पर किसी भी तरह की बात का तात्कालिक, परिस्थितिजन्य तथा ऐसा उत्तर जिसमें भावनायें, सम्वेदनायें भी जुड़ी हुई हों वह दे नहीं सकता। शरीर की रचना जैसी मशीन नहीं, बुद्धि और विवेक जैसी चेतनता अन्यत्र नहीं, इस रूप में उसने साक्षात् अपनी ही चेतना का एक अंश मानवीय प्राणों में घोल दिया है।

अध्यात्म की, परमात्मा की कल्पना अपने आप में एक महान शोध है। यह कल्पना नहीं बुद्धि का गणितीय निर्णय है इसमें भले ही अंक प्रयुक्त न हुये हों उसमें बुद्धि की दौड़ उससे भी बहुत अधिक उत्कृष्ट स्तर पर हुई है। अज्ञात की कल्पना न कर सकें इसका यह अर्थ नहीं कि अज्ञात होता ही नहीं। यह बात हमारे जीवन व्यवहार में प्रतिदिन देखने को मिलती रहती है। इस तरह मानवीय भावनाओं ने जिस समर्थ सत्ता का स्पर्श-अनुभूति के रूप में किया और उसके प्रति श्रद्धा के सतोगुणी सत्परिणाम प्राप्त किये, उसे यों ही झुठला देना व्यक्ति विशेष के तात्कालिक सन्तोष का कारण हो सकता है। उससे न तो उसका, न समाज और विश्व का हित हो सकता है। आज की समस्याओं का एक मात्र आधार यह अनास्था ही है उसे दूर किया जा सके तो मानवीय गरिमा अत्यन्त समर्थ, समृद्ध और समुन्नत रूप में चरितार्थ हो सकती है।


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