जिस गृहिणी का घर व्यवस्थित और सन्तुलित होता है वह बुद्धिमती तथा कुशल गृहिणी कही जाती है, पर जिसका हर कार्य अस्त-व्यस्त खर्च बेहिसाब, आय-व्यय का कहीं कोई संतुलन नहीं वह फूहड़ और मूर्ख कही जाती है। यह तो एक घर की बात हुई। वास्तव में प्रकृति में आवश्यक उपार्जन, समुचित खर्च का ऐसा सन्तुलन विद्यमान है जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि प्रकृति में बुद्धि और एक निरन्तर चेतनशील प्रक्रिया कार्यरत है।
एक बार आस्ट्रेलिया में जंगली जानवरों से फसलों की सुरक्षा के लिए कैक्टस की बाड़ लगाई गई। पौधे बाहर से लाई गयी थी, उसमें किसी प्रकार कैक्टस खाने वाले कीड़े नहीं आ पाये। कैक्टस निरंकुश अभिवृद्धि की ओर अग्रसर हुआ। कुछ ही समय में कैक्टस ने इंग्लैण्ड के क्षेत्रफल के बराबर भूमि अधिग्रहित कर ली। कृषि विशेषज्ञों के सम्मुख यह एक वैसी ही चुनौती बनकर खड़ी हो गई जैसी अन्धाधुन्ध प्रजनन के कारण आज संसार को खाद्य समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
विशेषज्ञों की गोष्ठी आयोजित की गई। अन्ततः एक ऐसा कीटाणु खोज निकाला गया जिसका प्रमुख खाद्य ही कैक्टस था। इस कीड़े की एक विशेषता यह भी थी कि उसकी प्रजनन शक्ति भी बहुत अधिक थी। इसने जो कैक्टस को खाना प्रारम्भ किया तो उसका सफाया ही करके छोड़ा अन्त में कैक्टस तो थोड़ा रह गया, पर इन जीवाणुओं की पूरी फौज तैयार थी। अभी विशेषज्ञ इस उधेड़बुन में थे कि समस्या का निराकरण कैसे हो, पर जब खोज की गई तो यह पाया गया कि अब उतने ही बैक्टीरिया (जीवाणु) शेष रह गये हैं जितनों के लिए खाद्यान्न शेष था। शेष भाग गये या मर गये कुछ पता नहीं। आज की अपार जनसंख्या अन्य ग्रहों को भाग जाये तब तो सम्भव है कि समस्या उतनी भारी न पड़े अन्यथा प्रकृति, सन्तुलन के लिए दूसरा अस्त्र प्रयुक्त करने से हिचकेगी नहीं। क्योंकि प्रतिरोध और सन्तुलन व्यवस्था से ही उसने सृष्टि क्रम को यथावत कर रखा है।
प्रकृति की व्यवस्थापिका बुद्धि का एक बड़ा प्रमाण यह भी है कि जिन प्राणियों में अत्यधिक प्रजनन पाया जाता है उनके फेफड़े होते ही नहीं, फेफड़ों के स्थान पर मात्र एक ट्यूब लगा दिया गया है। यह ट्यूब प्रारम्भ में जितना छोटा होता है अन्त तक उतना ही अर्थात् छोटे का छोटा ही बना रहता है। यह कठोर नियन्त्रण उसकी अत्यन्त बुद्धि कुशलता का प्रमाण है अन्यथा कैक्टस का ही छोटा कीड़ा सिंह के समान होता उस स्थिति में वह कैक्टस के समाप्त होते ही मनुष्यों को ही खा जाता।
यह तथ्य मनुष्य सम्प्रदाय में भी उतनी ही कठोरता से लागू है अधिक बच्चे पैदा करने वाले लोगों के फेफड़े प्रायः दुर्बल होते हैं। इसी कारण थोड़े परिश्रम से ही उनका दम फूलने लगता है। इस तरह वे दीर्घजीवन तो खोते ही हैं, बीमारियों की आधि-व्याधि में ऊपर से जकड़े रहते हैं। ये बीमारियाँ ही उन्हें खाती रहती हैं। यदि उससे बचे तो भोजन आवास की समस्या सताती रहती है। ऐसे व्यक्ति स्वयं अपने और समाज के लिए भी घातक परिस्थितियाँ पैदा करते हैं। उनका सामूहिक दण्ड सारी मानव जाति को अकाल, अनावृष्टि, भुखमरी, बेकारी, बेरोजगारी के रूप में भुगतना पड़ता है। इससे मनुष्य की बुद्धिमानी इसमें है कि वह प्रकृति की सचेतन व्यवस्था को अच्छी तरह अनुभव करे, पालन करे और सृष्टि को व्यवस्थित सन्तुलित तथा सुन्दर बनाने में सहयोग प्रदान करे।
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