सन्त फ्रांस्वा अगोबीओ नगर जा रहे थे। मार्ग में भयंकर जंगल पड़ता था। शिष्यों ने कहा-भगवन् मार्ग में बहुत खूँखार भेड़िया रहता है इस रास्ते से मत चलिये। “दुष्ट और दुराचारियों को स्नेह सदाचार की राह पर चलाना यही तो धर्म का उद्देश्य है तात!” यह कहकर फ्रांस्वा उसी रास्ते से आगे बढ़ गये।
सचमुच भेड़िया आ धमका, शिष्यगण भयवश इधर-उधर छुप कर प्राण बचाने की चेष्टा में थे किन्तु सन्त ने अत्यन्त करुणा और प्यार की दृष्टि डाली उस भेड़िये पर। हृदयतंत्री फूट पड़ी। निरीह जीव! पिछले जन्मों के दुष्कृत्यों का प्रतिफल तुम भेड़िये की योनि में पड़कर भुगत रहे हो, सोचो इस जन्म के पापों का गट्ठर कब तक लादे फिरोगे?
भेड़िये ने आंखें नीची कर लीं, दोनों पंजे उसने सन्त के चरणों में रख दिये। एक बार फिर उनकी आँखों से झर रही करुणा को उसने निहारा और फिर दोनों पंजे सन्त के चरणों पर रख जीभ से चरण धूलि ली और जंगल में एक ओर भाग गया।
शिष्य अब तक कम्पित गात यह दृश्य देख रहे थे-सन्त के समीप आकर बोले भगवन्! भेड़िये ने आप पर आक्रमण नहीं किया, दूसरों पर वह क्यों करता था। सन्त ने कहा-”तात! प्यार की भाषा मनुष्य ही नहीं मनुष्येत्तर प्राणी भी अच्छी तरह समझते हैं। प्यार सच्चा हो तो इससे भी खूँखार लोग बदले जा सकते हैं।”
तब से भेड़िये का आतंक सदा के लिये समाप्त हो गया।
----***----