स्वाध्यां तपः

November 1978

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गंगा तट पर स्थित महर्षि रैभ्य के आश्रम में कई ब्रह्मचारी विद्याध्ययन करते थे। नीति, धर्म और सदाचार का अभ्यास करने के साथ-साथ शास्त्र विद्या में भी पारंगत होकर वे समाज में जाते तथा सुयोग्य नागरिक की भूमिका निभाते थे। वहीं पास में एक ओर तापस रहते थे जो दिन-रात कठोर साधनाओं में लगे रहते। उन तापस का एक पुत्र था यवक्रीत- वह भी अपने पिता के समान ही जप-तप में लगा रहता। परन्तु यवक्रीत की यह भी आकांक्षा थी कि वह वेद-वेदांतों का ज्ञात, शास्त्रों में निष्णात और पंडित बने।

एक आकांक्षा की पूर्ति के लिए यवक्रीत ने अपने तापस पिता से पूछा। पिता ने कहा- ‘वत्स! विद्या प्राप्ति का तो एक ही उपाय है। स्वाध्याय किया जाय।’

परन्तु तात उससे तो दीर्घकाल में सिद्धि होती है- यवक्रीत ने कहा।

यह साधक की अपनी लगन, योग्यता और ग्रहणशीलता पर निर्भर है, तापस ने कहा- ‘फिर भी इनके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।’

यवक्रीत चुप हो गया, परन्तु उसके मन में यह बात ठीक से समझ नहीं आयी कि एकमात्र अध्ययन ही ज्ञान प्राप्ति का साधन है। हो भी तो उसे यह बहुत लम्बा और श्रमसाध्य लगा, इसलिए यवक्रीत ने तप द्वारा विद्या प्राप्ति के लिए अपने पिता के पास से प्रस्थान किया। फिर एकान्त स्थान में जाकर यवक्रीत तप करने लगा। पंचाग्नि तप करते हुए यवक्रीत अपने शरीर को निरन्तर संतप्त करने लगे।

यवक्रीत को कठोर तप करते देखकर देवराज इन्द्र उनके पास आये और उनसे तप का कारण पूछा। यवक्रीत ने बताया- ‘‘गुरु के मुख से वेदों की शिक्षा ठीक तरह से प्राप्त नहीं की जा सकती इसके लिए मैं तप के प्रभाव से ही सम्पूर्ण वेद शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ।’’

उपयुक्त गुरु न मिले यह बात तो समझ में आती है, परन्तु गुरु के बिना ही कोई ज्ञान प्राप्त कर लिया जाय यह तो नितान्त असम्भव है। आपने सर्वथा उल्टा मार्ग पकड़ा है विप्रवर! गुरू के पास जाकर अध्ययन कीजिये।

इन्द्र तो चले गये, किन्तु यवक्रीत ने अपनी तपस्या नहीं छोड़ी कुछ वर्षों बाद इन्द्र फिर आये और पुनः समझाने लगे- ब्राह्मण श्रेष्ठ! आपका यह उद्योग बुद्धिमत्ता युक्त नहीं है। किसी को गुरुमुख से पड़े बिना विद्या प्राप्त भी हो तो वह सफल नहीं होती। आप अपने दुराग्रह को छोड़ दीजिये।

इतना कहकर इन्द्र चले गए, परन्तु यवक्रीत ने अपना दृढ़ नहीं छोड़ा। उन्होंने और कठिन तप आरम्भ कर दिया। यवक्रीत का संकल्प था कि वह तपस्या से ही विद्या प्राप्त करके रहेगा। इस प्रकार सिद्धि प्राप्त न होते देख यवक्रीत ने निश्चय किया कि यदि इस अनुष्ठान से विद्या की सिद्धि नहीं हुई तो वह गंगा में अपने शरीर को प्रवाहित कर देंगे। यह निश्चय कर वे एक विशेष तप अनुष्ठान पर बैठे। यवक्रीत के इस निश्चय को जानकर देवराज इन्द्र ने एक अत्यन्त वृद्धा एवं रोगी ब्राह्मण का रूप धारण किया तथा उस स्थान पर आकर बैठ गये जहाँ यवक्रीत स्नान करते लिए आया करते थे।

यवक्रीत जब स्नान करने आये तो उन्होंने देखा कि एक दुर्बल और रोगी ब्राह्मण अंजलि में बार-बार रेत लेकर गंगा में डाल रहा है। प्रथम द्वितीय बार तो यवक्रीत ने कुछ नहीं कहा, पर जब चार-पांच दिन तक यवक्रीत ने उस ब्राह्मण को ऐसा करते देखा तो पूछ ही बैठा- विप्रवर! आप यह क्या कर रहे हैं?

‘लोगों को यहाँ गंगा के उस पार जाने में बड़ा कष्ट होता है’- वृद्ध ब्राह्मण ने कहा- ‘इसलिए मैं गंगा पर पुल बाँध देना चाहता हूँ।’

यवक्रीत ने कहा- ‘भगवन्! आप इस महाप्रवाह को बालू से किसी प्रकार बाँध नहीं सकते। इसलिए असम्भव उद्योग को छोड़कर सम्भव प्रयास कीजिए।’

‘आप जिस प्रकार तपस्या के द्वारा विद्या सिद्ध करना चाहते हैं उसी प्रकार मैं भी यह कार्य कर रहा हूँ। आप असाध्य को यदि साध्य कर सकेंगे तो मैं क्यों नहीं कर सकूँगा’- वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण किये इन्द्र ने कहा।

ब्राह्मण कौन है यह यवक्रीत समझ गये और वे महर्षि रैभ्य के आश्रम में जाकर स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्ति की साधना में संलग्न हो गये।

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