युग शक्ति गायत्री का अवतरण अभिप्राय

November 1978

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हम जिस युग में जी रहे हैं उसमें सुविधाओं और साधनों की प्रचुर मात्रा विद्यमान है। विज्ञान और टेक्नालॉजी के द्रुत विकास के साथ-साथ मानवीय वैभव में अध्यापक अभिवृद्धि हुई। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उपयोगी सामग्री के अम्बार लगते जा रहे हैं। किन्तु इसे युग की सबसे बड़ी विडम्बना ही कहा जायेगा कि साधनों की इस बढ़ोत्तरी के साथ उनका उपयोग करने वाली अन्तःचेतना का स्तर ऊँचा उठने की अपेक्षा उलटा गिरता चला जा रहा है। पतन इस स्थिति तक आ गया है जहाँ से सर्वनाश की विभीषिकायें स्पष्ट दिखाई देने लगी हैं इतने पर भी ध्यान समृद्धि की ओर ही लगा हुआ है। मानवीय अन्तःकरण को, आस्थाओं, आकांक्षाओं, प्रथा-परम्पराओं, रीति-नीति और गतिविधियों को उर्ध्वगामी बनाने की ओर किसी का भी ध्यान नहीं है।

स्वास्थ्य, शिक्षा, उपार्जन और सुरक्षा व्यवस्था मानवीय प्रगति के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी कहे जा सकते हैं किन्तु यदि यह साधन दुष्ट बुद्धि के हाथों में पड़ जाते हैं तो वह प्रगति ही विनाश का कारण बन जाती है। आज की स्थिति यह है कि सारा समाज तृष्णा और अहंता, इन्द्रिय सुखों की अतृप्ति लालसा में डूबा पड़ा है। उनकी पूर्ति सामान्य तरीकों से हो नहीं सकती। ईमानदारी और परिश्रम के सहारे निर्वाह योग्य आजीविका उपलब्ध की जा सकती है, पर जब थोड़े समय में अपार सुख की कामना हर किसी को सता रही हो तो भ्रष्टता और दुष्टता का बढ़ना निश्चित हो जाता है। आज स्थिति यही है। दूसरों की बात पीछे की है न्याय और विकास के अधिकारी ही, “भेड़ ने खेत” खाया की क्रूरता में लिप्त दिखाई देते हैं जो जन सामान्य की तो कल्पना करना ही कठिन है।

बढ़ती हुई हिंसा, अपराध और समस्यायें इतनी जटिल हो गई हैं कि भयंकर परिणामों की कल्पना करने से भी हृदय सिहर उठता है। छोटे-छोटे बच्चों, अबोध महिलाओं तक के साथ भी दुष्टता बरतने से लोग बाज न आये तो उसे दुर्बुद्धि की पराकाष्ठा समझनी चाहिए। आज का बुद्धिमान कहा जाने वाला समाज इन बुराइयों में आकण्ड डूबा हुआ है। अतएव इस युग की सबसे आवश्यकता व्यक्तियों की अन्तःभूमिका को सुसंस्कृत और समुन्नत बनाने की हो गई है। उसकी उपेक्षा की गई तो आज की प्रगति कल के पिछड़ेपन से भी महंगी पड़ेगी। मनुष्य का अन्तराल उत्कृष्ट बनाया जा सके तो स्वल्प साधनों में भी सुख शान्ति की परिस्थितियाँ विकसित हो सकती हैं। दृष्टिकोण में उदारता, चरित्र में शालीनता और व्यवहार में नैतिकता का समावेश रहे तो अभावग्रस्त स्थिति में भी मनुष्य स्वर्गीय परिस्थितियों का आनन्द लेता रह सकता है। यही वह जिम्मेदारी है जिसे पूरा किया जाना आज की सबसे बड़ी साधना कही जा सकती है।

दण्ड, पुरस्कार, प्रलोभन और सज्जनता का प्रशिक्षण यह तीन प्रयोग पिछले दिनों मानवीय दृष्टिकोणों को सुधारने के उद्देश्य से किये जाते रहे हैं। किन्तु उनकी पहुँच शरीर और मस्तिष्क तक तो किसी तरह हो जाती है, पर आस्थायें निकृष्ट स्तर की होने के कारण वे मनुष्य को देर तक आदर्शवादी बनाये रखने में सफल नहीं हो पाये। कानूनी प्रक्रियायें इतनी लचर हैं कि अधिकांश अपराधी तत्व बच निकलते हैं। इस तरह दण्ड का भय जाता रहा, पुरस्कार की मात्रा कहीं भी हो सीमित हो सकती है, पर लालसाओं की बाढ़ असीम हो तो भी लोग दुष्कर्म के लिए ही उतावले होंगे। सज्जनता का प्रशिक्षण करने वाले लोग जब स्वयं ही ओट से शिकार करते दिखाई देते हैं तो रही सही सज्जनता भी बालू के ढेर की तरह थोड़े से प्रलोभन में ढह कर रह जाती है। अव्यवस्था रोकने के सारे के आधार धरे के धरे रह जाते हैं और अवांछनीयतायें उसी गति से बढ़ती हुई चली जाती हैं।

मनुष्य का जीवन उसकी आस्थाओं से प्रेरित होकर बढ़ता है। यदि आस्थायें निकृष्ट हुईं तो व्यक्ति अधोगामी प्रवृत्तियों में जकड़ा रहेगा। मन आकांक्षाओं का दास है तो शरीर मन का। स्पष्टतः आस्थाओं के अनुरूप जीवन क्रम सुनिश्चित होता है। मनुष्य भला बुरा जो कुछ भी करता है उसकी मूलभूत प्रेरणा उसे अपनी आकांक्षाओं, आस्थाओं से ही मिलती है, आस्थायें संस्कार जन्य होती हैं। राजकीय कानून, सामाजिक नियम तर्क और प्रवचन प्रशिक्षण उन्हें बहुत सीमित मात्रा में ही प्रभावित कर पाते हैं, पर यदि मानवीय विश्वास मोड़े जा सकें, तो व्यक्ति बाल्मीकि, अँगुलिमाल, सदनकसाई, गणिका और अजामिल की तरह से परिवर्तित होकर दुष्ट से महान् सन्तों की श्रेणी में जा खड़े हो सकते हैं।

आस्थाओं में परिवर्तन के लिए आस्थाओं का प्रतिरोपण ही कार्य कर सकता है। अत्यधिक ब्रह्मवर्चस् सम्पन्न महापुरुषों द्वारा पैदा किया गया वातावरण भी इस कार्य में सहायक होता है, पर उस तरह की उपासना और साधना के द्वारा ही अन्तःकरण में उच्चस्तरीय श्रद्धा का आरोपण, परिपोषण और अभिवर्धन करके मनुष्य जीवन की ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों को सृजन प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जा सकता है। अन्तःकरण परिवर्तित किया जा सके तो सामान्य जीवन के क्रिया-कलाप स्वतः बदल जाते हैं।

आस्थाओं के पुनर्निर्माण का एक अन्य उपाय भी है जिसे तप कहते हैं। उपासना वर्ग के सभी कलेवर वस्तुतः इस तप के ही उपादान हैं, पर इस पद्धति में शरीर को अनेक कष्ट पूर्ण तितीक्षाओं से, मन को विरोधी परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। इस तरह मनुष्य का दृष्टिकोण उदार, उदात्त और विशाल बनता है। शोषण, उत्पीड़न और भ्रष्टता की प्रतिक्रियाओं को स्वतः अनुभूति इसी से होती है और उस स्थिति में मनुष्य स्वयं ही उनसे दूर भागता है। स्पष्ट है कि ऐसे समाज बुराइयों से बचे हुए होंगे, साधन सुविधाओं की सार्थकता भी ऐसे ही समाज में सिद्ध होती है।

ईसा, बुद्ध, शंकराचार्य, विवेकानन्द, गान्धी जैसे महामानवों ने जो भी सफलतायें मानवीय समाज को संस्कारित करने में पाई उनका कारण अपनी प्रखर आत्मशक्ति द्वारा उस समय के जनमानस की भौतिक लालसाओं से हटाकर उन्हें अन्तर्मुखी बनाना रहा है। मानवीय दृष्टिकोण में जब तक भौतिक जीवन के सुखों की चाह प्रबल रूप से छायी रहती है तब तक वह समूचे ब्रह्माण्ड को अत्यन्त विलक्षण संरचना-मनुष्य शरीर की आध्यात्मिक सत्ता की बात ही नहीं सोच पाता। मृत्यु के बारे में हर कोई जानता है कि उसे टाले चला जाना आज तक किसी के लिए संभव नहीं हुआ तो भी कितने लोग हैं जो उसके लिए तैयारी करते हैं। जीवन की अमरता के विश्वास को लोग शारीरिक अमरता के भ्रम में फँसा कर यों ही निरर्थक गँवाते रहते हैं। और मनुष्य शरीर पाने जैसा स्वर्ण-अवसर हाथ से चला जाता है, थोड़े से लोग इस बात को समझते हैं तो सन्त और महात्मा हो जाते हैं। अधिसंख्य जनमानस को इस अध्यात्म के प्रकाश में लाया जा सके तो स्वभावतः लोगों की उद्यत लालसाओं की बाढ़ को रोका जा सकता है। उसके लिए किसी न किसी रूप में हर व्यक्ति को तप करना पड़ता है। तप का अर्थ मन्त्र जप, ध्यान, आसन, प्राणायाम ही नहीं है यह भी उस प्रक्रिया के धार्मिक अंग हैं उसका व्यवहार पक्ष भी है जिसमें अपनी तृष्णा, अहंता से, असीम साधन एकत्र करने, अधिकतम भोग भोगने अपने को बड़ा सिद्ध करने की प्रवाह वाले जीवन क्रम को तोड़-मरोड़ कर सादगी सज्जनता मितव्ययिता, निरहंकारिता का जीवन जीना पड़ता है। अपने लिए साधनों का संचयन न होते देख उस स्थिति में अपने ही कहलाने वालों का बैर विरोध उपहास तिरष्कार भी सहना पड़ता है। तब जाकर कहीं आत्मिक लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। इतिहास साक्षी है जब-जब जनमानस इस तरह आध्यात्मवादी आदर्शों से प्रेरित हुआ लोक व्यवहार में तब-तब स्नेह मधुरता भ्रातृ भाव, कर्तव्यनिष्ठा, उच्च नैतिकता, ईमानदारी और चरित्र निष्ठा का विकास हुआ, सामाजिक जीवन की सुख शान्ति और सुव्यवस्था ऐसे ही युगों में अक्षुण्ण रहती आई हैं। यदि आज के युग में भी भौतिकतावादी मान्यताओं, आकांक्षाओं और आस्थाओं को बदल कर उनमें आध्यात्मिक तत्वों को समाविष्ट किया जा सके तो इन दिनों दिखाई देने वाली चरित्रहीनता, सामाजिक भ्रष्टता और रीति-नीति में छाई स्वार्थपरता को पूरी तरह हटाया और मिटाया जा सकता है।

भगवान् राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसामसीह, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द जैसे प्रभृति महापुरुषों की कार्यपद्धतियाँ भिन्न-भिन्न दिखाई देते हुए भी उनका दर्शन एक ही रहा है। आस्थाओं में मोड़, दृष्टिकोण में परिवर्तन, मान्यताओं में आदर्शवादिता का समावेश। कार्यशैली सब की अपनी-अपनी तरह की रही है। पर उन सब का उद्देश्य जनमानस को संस्कारित करना ही रहा है।

इस युग में न तो धार्मिक विकृतियों का संशोधन मुख्य प्रश्न है और न ही भौतिक जीवन का प्रशिक्षण। वस्तुतः जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, चाहें यह प्रथा परम्पराएँ हों, चाहे रीति-रिवाज, वेश-भूषा, खान-पान और मान-मर्यादायें, सर्वत्र अविवेक ही वह प्रमुख राक्षस घुस बैठा है। जिसके वशवर्ती होकर मनुष्य जाति भ्रष्ट अनैतिक और बर्बर होती चली जा रही है। स्पष्ट है कि आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है मनुष्य के विचारों में सद्-विवेक की स्थापना। विचारों का गुरु दीपक लेकर जागृत हो जाये तो अज्ञानान्धकार में भटकने वाली प्रवृत्तियों का भटकाव स्वतः ही रुक सकता है। युग-निर्माण योजना ने यही कार्य, यही उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठाया है और पिछले 25 वर्षों से इस दिशा में अत्यधिक तेजी से बढ़ता हुआ यहाँ तक आ पहुँचा है।

गायत्री उपासना को सद्ज्ञान, सद्-विवेक की उपासना भी कहा जाता है। गायत्री महामन्त्र के 24 अक्षरों में बीज रूप से वह सभी तत्व ओत-प्रोत हैं जो उपासक के हृदय अन्तःकरण में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को स्वस्थ समर्थ और विवेकपूर्ण बनाने वाला प्रकाश जागृत करते है। अनेक तरह की दार्शनिक मान्यताओं के रहते हुए भी गायत्री उपासना, तत्वज्ञान के प्रति आदिकाल से ही ऋषि मनीषी सभी एक मत रहे हैं जितने भी अवतार हुए हैं उन सब ने उपासना के रूप में आद्यशक्ति भगवती गायत्री को ही इष्टदेव चुना है। उसके पीछे इस दर्शन का प्रतिपादन ही रहा हैं कि मनुष्य जाति की समस्याओं का निराकरण एक मात्र विवेक और सद्ज्ञान से ही सम्भव है। इस युग में जबकि असुरता ने मानवीय बुद्धि को ही पूरी तरह आच्छादित कर रखा है तब तो उसकी आवश्यकता और भी अधिक हो जाती है। इसी कारण युग परिवर्तन के लिए गायत्री अभियान को चुना गया। युग शक्ति गायत्री के अवतरण का अभीष्ट भी यही है।

गायत्री उपासना में तप-साधना के वह सभी तत्व विद्यमान है। जिनके आधार पर लोगों की आस्थायें बदलती है जनमानस का परिष्कार होता है। जीवन को सचेतन बनाने वाली प्राण ऊर्जा विकसित होती है और मानवीय सुख शान्ति की परिस्थितियाँ मुखरित होती हैं। गायत्री को त्रिपदा भी कहा गया है। जिसका एक अर्थ यह भी होता है कि इस उपासना से मनुष्य अभाव, अशक्ति और अज्ञान से मुक्ति पाता है। शरीर, समाज और लोक-व्यवहार में क्या उचित है क्या अनुचित इस बात को सीखता है, तद्नुसार, अपना जीवनक्रम निर्धारित करता है। दुःख के यही तीन कारण हैं, इन्हीं तीनों चरणों की भ्रष्टता ही मनुष्य को पतित करती है यदि वह व्यवस्थित हो जाते हैं तो फिर उस कोलाहल, अशान्ति और सर्वनाश की विभीषिका से स्वतः ही बचा जा सकता है। इस प्रयोग को प्राचीनकाल में सर्वाधिक सफलता मिली थी इसलिए मनीषियों ने एक मत से गायत्री उपासना को राष्ट्रीय उपासना के रूप में स्वीकार किया था। अन्य किसी उपासना के बारे में मतभेद रहे होंगे पर गायत्री उपासना और तत्वज्ञान का निर्विवाद स्वरूप लोग आज भी स्वीकारते हैं यदि कहीं कोई मतभेद झलकता है तो वह मात्र प्रयुक्तीकरण में हो सकता है, उसकी महत्ता उपयोगिता के बारे में कहीं कोई विवाद नहीं।

आज के युग की तो सब से पहली आवश्यकता ही वह प्रज्ञा है जिसका मूलाधार गायत्री है। इस महामन्त्र के 24 अक्षरों में सिद्धि सामर्थ्य और ज्ञान-विज्ञान के अनन्त बीज विद्यमान हैं। उसकी शिक्षायें प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारक हैं लोक और परलोक दोनों को स्वस्थ, संतुलित और सामंजस्यपूर्ण बनाती हैं। ऐसी कोई दूसरी तप साधना है नहीं। यह कोई जादू या चमत्कार नहीं, अपितु शब्द शक्ति, भावशक्ति का प्रत्यक्ष विज्ञान है। जिसे श्रद्धा अश्रद्धालु, तार्किक, अविवेकी कोई भी अपना कर अपने बिगड़े स्वरूप को सुधार और सुधरे को अधिक सँवार कर स्वर्गीय परिस्थितियाँ विनिर्मित कर सकता है, अपने लिए भी संसार के लिए भी।

इसलिए युगान्तर चेतना के अभ्युदय के साथ-साथ युग शक्ति गायत्री का अवतरण हुआ। संस्कृति के अन्य उपादानों के समान ही यह विज्ञान भी अन्धकार में खोया पड़ा था। एक तो व्याख्यायें, विज्ञान और प्रतिपादन मिलते ही नहीं थे जो मिलते भी थे वह इतने उलझे शास्त्रीय पद्धति में थे कि जन साधारण उसे समझ ही नहीं सकता था। यदि किसी को बात समझ में आ भी सकती थी तो स्वार्थी तत्वों ने इस महान् तत्वज्ञान को भी इस तरह बन्दी बना लिया था कि हर कोई उसके श्रवगाहन का, उपासना का साहस ही नहीं कर सकता है। गायत्री केवल ब्राह्मणों के लिए, स्त्रियाँ प्रतिबन्धित हैं, यह कान में कहा जाने वाला मन्त्र है, गायत्री शापग्रस्त है ऐसी न जाने कितनी मूढ़मान्यताओं ने उपयोगी हीरे को जंग लगा दिया था। पिछले तीस वर्षों से अथक परिश्रम अनवरत लगन और कठोर साहस के साथ उस अन्धकार को काटा गया। गायत्री उपासना को इतना स्पष्ट किया गया जिससे वह शिक्षित-अशिक्षित, आस्तिक-नास्तिक, स्त्री-पुरुष स्वस्थ, बीमार सभी की श्रद्धा का पात्र बनी। शास्त्रीय प्रतिपादनों का संकलन करना उन्हें, सामान्य हिन्दी भाषा में जन सुलभ बनाना, प्रकाशित करना, उस विधान का मार्गदर्शन स्वयं चलकर और संरक्षण देकर दूसरों को भी अग्रसर करने का दायित्व बहुत बड़ा था, पर उसे पूरा किया गया। गायत्री महाविज्ञान के अब तक बीसियों संस्करण निकल चुके हैं और वह गायत्री महाविद्या के “एनसाइक्लोपीडिया” बन गये हैं। छोटे-छोटे ट्रैक्टों के माध्यम से भी इस ब्रह्मविद्या का उद्घाटन और प्रसार जन-जन तक किया गया। इस तरह युग शक्ति गायत्री के अवतरण का एक महान कार्य पूरा हुआ, एक ऐसा सुव्यवस्थित आधार तैयार है जिस पर चलते हुए मानवता चिरकाल तक जीवित रहने की आशा कर सकती है, देवत्व धरती पर उतरने और स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करने को समुद्यत हो सकता है। गायत्री युग-निर्माण का मूल आधार है। अतएव उसे युग शक्ति कहा गया। यह अवतरण इस देश के इतिहास में सौभाग्य सूर्य का उदय कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी। अभी एक चरण पूरा हुआ है। अगले चरण उससे भी महत्वपूर्ण हैं वे जब प्रकाश में आयेंगे तो लोग भारतीय तत्वदर्शन की गरिमा पर आश्चर्यचकित और चमत्कृत हुए बिना न रहेंगे। “युग-शक्ति गायत्री पत्रिका” का प्रकाशन एक महत्वपूर्ण कदम है उसके दूरगामी प्रतिफल सामने आयेंगे तो लोग दाँतों तले उँगली दबाये बिना नहीं रह सकेंगे।


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