महापण्डित राहुल सांकृत्यायन अपने मित्र के घर गये थे। वहाँ दो-तीन सज्जन और ठहरे हुए थे। मित्र ने सबके लिए अमृताशन (खिचड़ी) तैयार कराया। अभी दूसरे लोग स्नानादि में लगे थे कि भोजन के लिए बुलावा आ गया। राहुल जी बुलाते ही पाटे पर जा बैठे और थाली में रखी खिचड़ी सफाचट करके उठ गये।
बाद में शेष मेहमानों ने खिचड़ी खाई तब यह ज्ञात हुआ कि जल्दी-जल्दी में नमक ही नहीं डाला गया था। राहुल जी से पूछने पर ज्ञात हुआ कि उनका ध्यान इस ओर गया भी नहीं था, क्योंकि भोजन करते समय वे अपने अध्ययन की किसी गुत्थी को सुलझाने में लगे हुए थे। उनके लिए उदर पूर्ति के मामले में जिह्वा के स्वाद का कोई महत्व नहीं था।
सचमुच महत्व स्वाद का नहीं, भूख का होता है। स्वाद के आग्रह में ही विचारों की एकाग्रता नष्ट होती है।
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