अपरिष्कृत मनोभूमि वाले भस्मासुर ने वर्षों तक भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिये घोर तप किया। अन्त में भगवान प्रसन्न हुए और उसे वर माँगने को कहा। असुर अन्ततः असुर ही तो था। वर माँगा-‘जिसके सिर पर हाथ रखूँ वही भस्म हो जाय।’ उसे वह शक्ति मिल गयी।
शक्ति पाते ही वह उसके मद में मत्त हो उठा। उसका असुरत्व यहाँ तक बढ़ा कि भगवती पार्वती को पाने के लिये वह भगवान शंकर पर ही उस शक्ति का प्रयोग करने को उद्यत हो गया। भगवान शंकर भागे। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर उसे अपने रूप जाल में फँसा अपने साथ नाचने पर विवश किया। नाचते समय उसने अपने सिर पर हाथ उठाया और भस्म हो गया। वर्षों के तप के प्राप्त शक्ति को उसकी कुपात्रता ने न तो उसके काम आने दिया न लोक के ही। उल्टे उसे ही समाप्त होना पड़ा। भगवान विष्णु ने शिवजी को आग्रह किया भविष्य में पात्र को ही शक्ति देना, कुपात्र को नहीं।
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