जितनी हानि शत्रु-शत्रु की और बैरी-बैरी की करता है, मिथ्या मार्ग का अनुगमन करने वाला चित्त उससे कहीं अधिक हानि पहुँचाता है।
सत्य वाणी ही अमृत है, सत्य वाणी ही सनातन धर्म है। सत्य, सदर्थ और सद्धर्म पर सन्त जन सदैव दृढ़ रहते हैं।
जिस मनुष्य के मन से लोभ, द्वेष और मोह ये तीन मनोवृत्तियाँ नष्ट हो गई हैं, वही चारों दिशाओं में प्राणिमात्र के प्रति मैत्री भाव प्रसारित कर सकता है। अपने मैत्रीमय चित्त से चारों दिशाओं में बसने वाले समस्त प्राणियों पर वह प्रेम की रस वर्षा करता है। करुणा, मुदिता और उपेक्षा की भावनाओं का उसे अनायास ही सुलभ हो जाता है।
बैर से बैर कभी शान्त नहीं होता। वैर प्रेम से ही शान्त होता है। यही सनातन नियम है।
लोगों की हड्डियाँ तोड़ डालने वाले, दूसरों का प्राण ले लेने वाले, गाय, घोड़ा, धन, सम्पत्ति आदि का हरण करने वाले और राष्ट्र में विप्लव मचाने वाले लोग भी मेल कर लेते हैं, उनमें भी एका हो जाता है, तब (हे धर्म प्रेमियों) तुम्हारा मेल क्यों नहीं होता?
प्रमादरत मनुष्य की तृष्णा लता की भाँति बढ़ती ही जाती है। वह एक वस्तु से दूसरी वस्तु तक इस तरह दौड़ती रहती है- जैसे वन में बन्दर एक फल के बाद दूसरे फल की इच्छा करता है।
ये रोगयुक्त संकल्प स्रोतों के रूप में चारों ओर बह रहे हैं, जिनके कारण तृष्णारूपी लता अंकुरित होती और जड़ पकड़ती रहती है। जहाँ भी कहीं तुम यह लता जड़ पकड़ती हुई देखो, वहीं प्रज्ञा की कुल्हाड़ी से उसकी जड़ काट डालो।
ये जो लोहे, लकड़ी या रस्सी के बन्धन हैं इन्हें बुद्धिमान लोग दृढ़ बन्धन नहीं कहते। इनकी अपेक्षा दृढ़ बन्धन तो वह चिन्ता है, जो मणि, कुण्डल, पुत्र और कलत्र के लिए की जाती है।
मनुष्य तभी तक शान्त और नम्र दीखता है, जब तक कोई उसके विरुद्ध अपशब्द नहीं कहता, पर जब उसे अपशब्द या निन्दा सुनने का प्रसंग आता है, तभी इस बात की परीक्षा हो सकती है, वह वास्तव में शान्त और नम्र है या नहीं।
जो प्राणी तर्क-वितर्क आदि संशयों से पीड़ित है और तीव्र राग में फँसा हुआ है तथा सदा सुख ही सुख की अभिलाषा करता है, उसकी तृष्णा बढ़ती ही जाती है और वह प्रतिक्षण अपने लिए और भी मजबूत बन्धन तैयार करता जाता है।
मनुष्य जितना ही कामादि का सेवन करता है, उतनी ही उसकी तृष्णा बढ़ती है। काम के सेवन में क्षण मात्र के लिए ही रसास्वाद मालूम देता है।
हे ब्राह्मण! शीलरूपी घाटवाले निर्मल धर्म सरोवर में, जिसकी सन्तजन प्रशंसा करते हैं, नहाकर कुशल जन शुद्ध होते हैं। वे शरीर को बिना-भिगोये ही पार उतर जाते हैं।
शुद्ध मनुष्य के लिए सदा की फल्गु नहीं है, सदा ही उपोसथ (व्रत का दिन) है। शुद्ध और शुचि कर्मों के व्रत तो सदा ही पूरे होते रहते हैं।
बर्तन के पानी में काला रंग डाल देने के बाद जैसे उसमें हमें अपना प्रतिबिम्ब ठीक-ठीक नहीं दिखाई देता, उसी तरह जिसका चित्त काम विकार से व्यग्र हो जाता है, उसे अपने हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता।
स्वच्छ पानी का बर्तन जब गरम हो जाता है, तब उस पानी से भाप निकालने लगती है और वह खौलने लगता है। उस समय मनुष्य उस खौलते हुए पानी में अपना प्रतिबिम्ब नहीं देख सकता। इसी तरह मनुष्य जब क्रोधाभिभूत होता है, तब-उसकी समझ में यह नहीं आता कि उसका आम हित किसमें है।
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