सिद्ध न होने पर भी ईश्वर तो है ही

November 1978

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मार्क्स ने किसी पुस्तक में यह लिखा है कि-”यदि तुम्हारा ईश्वर प्रयोगशाला की किसी परखनली में सिद्ध किया जा सके तो मैं मान लूँगा कि वस्तुतः ईश्वर का अस्तित्व है।” नास्तिक दर्शन की मूल मान्यता भी यही है कि ईश्वर सिद्ध नहीं किया जा सकता और जो सिद्ध नहीं होता उसका अस्तित्व कैसे हो सकता है।

यह मान्यता अपने आप में एकांगी और अधूरी है। जो वस्तु विज्ञान से सिद्ध नहीं होती उसका अस्तित्व ही नहीं है-यह अब से सौ वर्ष पूर्व तक तो अपने स्थान पर सही थी क्योंकि तब विज्ञान अपने शैशव में था। परन्तु जब विज्ञान ने अविज्ञात के क्षेत्र में प्रवेश किया और एक से एक रहस्य सामने आते गये तो यह माना जाने लगा कि ऐसी बहुत-सी वस्तुओं का, सत्ताओं का अस्तित्व है जो अभी विज्ञान द्वारा सिद्ध नहीं हो सका है अथवा जिन तक विज्ञान नहीं पहुँच सका है।

कुछ दशाब्दियों से पूर्व तक यह माना जाता था कि पदार्थ का सबसे सूक्ष्म कण अणु है और वह अविभाज्य है। पदार्थ के सूक्ष्मतम विभाजन के बाद अवशिष्ट स्वरूप को अणु कहा गया और माना जाने लगा कि यही अन्तिम है। परन्तु इसके कुछ वर्षों बाद ही वैज्ञानिकों को अणु से भी सूक्ष्म कण परमाणु का पता चला। परमाणु को अभिभाज्य समझा जाने लगा। लेकिन परमाणु का विखण्डन भी सम्भव हो सका। पदार्थ के इस सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म स्वरूप के विखण्डन से बहुत बड़ी ऊर्जा का विस्फोट दिखाई दिया, जिसके ध्वंस या सृजन में चाहे जिस प्रयोजन के लिए उपयोग सम्भव दिखाई देने लगा।

परन्तु अब भी यही नहीं मान लिया गया है कि परमाणु ही अन्तिम सत्य है। यह समझा जा रहा है कि परमाणु से भी सूक्ष्म पदार्थ का कोई अस्तित्व हो सकता है। इसी आधार पर प्रो0 रिचर्ड ने अपनी पुस्तक “थर्टी ईयर ऑफ साईकिक रिसर्च” में लिखा है-पचास वर्ष पूर्व यह माना जाता था कि जो बात भौतिक विज्ञान से सिद्ध न हो उसका अस्तित्व ही नहीं है। किन्तु भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में ही अब ऐसे प्रमाण मिलने लगे हैं कि वह अभी भौतिक वस्तुओं का ही ठीक से समझ नहीं पाया है। फिर उस सत्ता के अस्तित्व को इस आधार पर कैसे चुनौती दी जा सकती है जिसे भौतिक विज्ञान की पहुँच के बाहर कहा जाता है।”

सर ए0 एस0 एडिग्रन ने इसी तथ्य को यों प्रतिपादित किया है- ‘‘भौतिक पदार्थों के भीतर एक चेतन शक्ति काम कर रही है जिसे अणु प्रक्रिया का प्राण कहा जा सकता है। हम उसका सही स्वरूप और क्रियाकलाप अभी नहीं जानते, पर यह अनुभव कर सकते हैं कि संसार में जो कुछ हो रहा है वह अनायास, आकस्मिक या अविचारपूर्ण नहीं है।

आधुनिक विज्ञान पदार्थ का अन्तिम विश्लेषण करने में भी अभी समर्थ नहीं हो सका है। उदाहरण के लिए परमाणु का विखण्डन हो जाने के बाद पदार्थ का एक ऐसा सूक्ष्मतम रूप अस्तित्व में आया है जिसे वैज्ञानिक अभी तक पूरी तरह समझ नहीं पाये हैं। जैसे प्रकाश कोई वस्तु नहीं है। वस्तु का अर्थ है जो स्थान घेरे, जिसमें कुछ भार हो और जिसका विभाजन किया जा सके। प्रकाश का न तो कोई भार होता है, न वह स्थान घेरता है और न ही उसका विभाजन किया जा सकता है। पदार्थ का अन्तिम कण जो परमाणु से भी सूक्ष्म है ठीक प्रकाश की तरह है, परन्तु उसमें एक वैचित्र्य भी है कि वह तरंग होने के साथ-साथ स्थान भी घेरता है। वैज्ञानिकों ने परमाणु से भी सूक्ष्म इस स्वरूप को नाम दिया है- “क्वाण्टा”।

कहने का अर्थ वह कि भौतिक विज्ञान अभी पदार्थ कि विश्लेषण करने में भली-भाँति समर्थ नहीं हो सका है फिर चेतना का विश्लेषण और प्रमाणीकरण करना तो बहुत दूर की बात है। शरीर संस्थान में चेतना का प्रधान कार्यक्षेत्र मस्तिष्क कहा जाता है। वहीं विचार उठते हैं, चिन्तन चलता है, भाव-सम्वेदनाओं की अनुभूति होती है। शरीर विज्ञान की अद्यतन शोध प्रगति भी मस्तिष्कीय केन्द्र का रहस्य समझ पाने में असमर्थ रही है। डॉ0 मैकडूगल ने अपनी पुस्तक “फिजियोलॉजिकल साइकोलॉजी” में लिखा है- ‘‘मस्तिष्क की संरचना को कितनी ही बारीकी से देखा समझा जाय यह उत्तर नहीं मिलता कि मानव प्राणी पाशविक स्तर से ऊँचा उठकर किस प्रकार ज्ञान-विज्ञान की धारा में बहता रहता है और कैसे भावनाओं सम्वेदनाओं से ओत-प्रोत रहता है। भाव सम्वेदनाओं की गरिमा को समझाते हुए हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि मनुष्य के भीतर कोई अमूर्त सत्ता भी विद्यमान है, जिसे आत्मा अथवा भाव चेतना जैसा कोई नाम दिया जा सकता है।”

जीवित और मृत देह में मूलभूत रासायनिक तत्वों में कोई परिवर्तन नहीं होता। परिवर्तन होता है तो इतना भर कि उनकी गति, निरन्तर उनका होता रहने वाला रूपान्तरण विकास अवरुद्ध हो जाता है। इस अवरुद्ध क्रम को चालू करने के कितने ही प्रयास किये गये, परन्तु उनमें कोई सफलता नहीं मिल सकी। प्रयास अभी भी जारी हैं, परन्तु भिन्न ढंग के। अब यह सोचा जा रहा है कि मृत्यु के समय शरीर में विलुप्त हो जाने वाली चेतना को पुनः किसी प्रकार लौटाया जा सके तो पुनर्जीवन सम्भव है। इसी आधार पर “मिस्टिरियस यूनिवर्स” ग्रन्थ के रचयिता सरंजेम्स जोन्स ने लिखा है ‘विज्ञान जगत अब पदार्थ सत्ता का नियन्त्रण करने वाली चेतन सत्ता की ओर उन्मुख हो रहा है तथा यह खोजने में लगा है कि हर पदार्थ को गुण धर्म की रीति-नीति से नियन्त्रित करने वाली व्यापक चेतना का स्वरूप क्या है? पदार्थ को स्वसंचालिता इतनी अपूर्ण है कि उस आधार पर प्राणियों की चिन्तन क्षमता का कोई समाधान नहीं मिलता।

सृष्टि क्रम की सुव्यवस्था, विकासक्रम और जीवन चेतना की विचित्र अद्भुत विविधता फिर भी उनमें सुनियोजित साम्य-ईश्वरीय अस्तित्व का प्रबल प्रमाण है। इसके विरुद्ध यह कहा जाता है कि सृष्टि का कोई भी घटक, जीव-प्राणी पदार्थ से भिन्न कुछ नहीं है। कहा जाता है कि समस्त विश्व कुछ घटनाओं के जोड़ के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

उसके उत्तर में ख्याति प्राप्त विज्ञान वेत्ता टेण्डल ने अपने ग्रन्थ “फ्रेगमेण्टस ऑफ साइन्स” में लिखा है-हाइड्रोजन ऑक्सीजन, कार्बन और कुछ ऐसे ही जड़ ज्ञान शून्य पदार्थों के परमाणुओं से जीवन चेतना का उदय हुआ यह असंगत है, क्योंकि जीवन चेतना का स्पन्दन हर जगह इतना सुव्यवस्थित और सुनियोजित है कि उसे संयोग मात्र नहीं कहा जा सकता। चौपड़ के पासे खड़खड़ाने से होमर के काव्य की प्रतिभा एवं गेंद की फड़फड़ाहट से गणित के डिफटेंशियल सिद्धान्त का उद्भव कैसे हो सकता है?

“पुगमेण्ट्स ऑफ साइन्स” के लेखक ने लिखा है कि यांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से देखना, सोचना, स्वप्न, सम्वेदना और आदर्शवादी भावनाओं के उभार की कोई तुक नहीं बैठती। शरीर यात्रा की आवश्यकता पूरी करने के अतिरिक्त मनुष्य जो कुछ सोचता, चाहता और करता है तथा संसार में जो कुछ भी ज्ञात-विज्ञात है वह इतना अद्भुत है कि जड़ परमाणुओं के संयोग से उनके निर्माण की कोई संगति नहीं बिठाई जा सकती।

रहस्यमय यह संसार और इसके जड़ पदार्थों का विश्लेषण ही अभी प्रयोगशालाओं में सम्भव नहीं हुआ है तो चेतना, ईश्वरीय सत्ता का विश्लेषण प्रमाणीकरण लैबोरेटरी के यन्त्रों से किस प्रकार हो सकेगा? फिर भी यह कहने का अथवा इस आग्रह पर अड़े रहने का कोई कारण नहीं है कि विज्ञान से सिद्ध न होने के कारण ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। परमाणु का जब तक पता नहीं चला था, इसका अर्थ यह नहीं है कि उससे पहले परमाणु था ही नहीं। परमाणु उससे पहले भी था और आज तर्कों द्वारा उसे असत्य सिद्ध कर दिया जाय तो भी उसका अस्तित्व मिट नहीं जाता। स्वीकार करने या न करने, ज्ञात होने अथवा अज्ञात रहने से किसी का होना न होना कोई मतलब नहीं रखता।

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