आध्यात्मिक शोधों के लिए नई प्रयोगशाला का शुभारम्भ

November 1978

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इन प्रयासों को सफल बनाने में परिजनों का योगदान क्या हो?

अपने युग की वैज्ञानिक बौद्धिक एवं भौतिक प्रगति ने जहाँ मनुष्य को अनेकानेक सुविधा साधन प्रदान किये हैं, वहाँ अनास्था संकट को भी कम बढ़ावा नहीं दिया है। आदर्शवादी तत्वज्ञान के प्रति अनास्था उत्पन्न होना एक प्रकार से मानवी गरिमा को समाप्त करना ही है। मनुष्य कुशल एवं समृद्ध कितना ही क्यों न हो यदि उसकी उत्कृष्टता चली गई तो फिर बढ़े हुए साधन विनाश की विभीषिका ही उत्पन्न करते हैं। आज के युग विपत्तियों और अन्धकार भरे भविष्य की झाँकियों से तथाकथित प्रगति के साथ-साथ बढ़ते चलने वाला ‘आस्था संकट’ ही अपनी धरती और संचित संस्कृति के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

अखण्ड-ज्योति ने इस खतरे के साथ पिछले चार दशकों से जमकर लोहा लिया है। बुद्धि को बुद्धि से, तर्क को तर्क से, तथ्य को तथ्य से, विज्ञान को विज्ञान से निपटने की उसकी रणनीति ऐसी है, जिसे इतिहासकार अद्भुत और अनुपम ही कहते रहें। आस्था संकट से निपटे बिना मानवी गरिमा का संरक्षण हो नहीं सकता। आदर्शवादी उत्कृष्टता चली गई तो समझना चाहिए कि नर पशुओं और न पिशाचों से भरी हुई यह दुनिया नरक की आग में जलेगी।

आदर्शवादी आस्थाएँ ही ऋषि परम्परा को पुनीत बनाये हैं। इन्हीं के लिए इन दिनों तथाकथित बुद्धिमत्ता और प्रगतिशीलता ने भयानक संकट खड़ा कर दिया है। इससे जूझने के लिए जैसे अस्त्र-शस्त्रों और जैसे कौशल की आवश्यकता उसे जुटाने में कुछ उठा नहीं रखा गया है। अखण्ड-ज्योति का अद्यावधि इतिहास ऐसी ही है, जिसका आज भले ही मूल्यांकन न हो सके, पर भावी विचारक इस निष्कर्ष पर पहुँचे बिना न रहेंगे कि आस्था संकट से लड़ने और उसे पराजित करने में जो पुरुषार्थ किया गया उसमें विश्व भविष्य को उज्ज्वल बनाये रखने में अखण्ड-ज्योति के साधनहीन किन्तु प्राण पुण्य संस्थान ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाई।

विज्ञान और अध्यात्म की समन्वित शक्ति के आविर्भाव तथा उसकी समग्र प्रगति के लिए उपयोग करने का प्रयत्न जितना ही सफल होगा, उतना ही मानवी गरिमा को सुरक्षित और देव संस्कृति को जीवित रहने का अवसर मिलेगा। इसे अपने युग की विषमतम विभीषिका के मध्य जलती हुई जीवन-ज्योति कहा जा सकता है। अब तक जो किया गया वह सन्तोषजनक है पर अगले दिनों जो किया जाने वाला है वह और भी अधिक आशाजनक है। अखण्ड-ज्योति परिजनों को यह जानकर हर्ष और गर्व होगा कि अध्यात्म और विज्ञान को जोड़ने वाले जो प्रतिपादन अब तक पत्रिका के पृष्ठों पर किये जाते रहे हैं, अब उनके प्रत्यक्ष प्रमाणित करने के लिए सुसम्पन्न प्रयोगशाला खड़ी की जा रही है। अध्यात्म सिद्धान्त विज्ञान की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं उसके अनेकानेक पक्षों को प्रयोगशाला में सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाएगा। इस परीक्षण से उन लोगों के मुँह बन्द हो सकेंगे जो अध्यात्म सिद्धान्तों को अन्धविश्वास कहने में अपनी शान समझते हैं। इस प्रयोग परीक्षण में सबसे प्रथम यज्ञ विज्ञान को लिया है और उसका प्रभाव मानवी स्वास्थ्य पर, मानसिक सन्तुलन पर, अन्यान्य प्राणियों पर, वनस्पतियों पर, जीवाणुओं तथा परमाणुओं पर, अन्तरिक्ष तथा वातावरण पर क्या, क्यों और कैसे पड़ता है? इसे प्रत्यक्ष कर दिखाने का निश्चय किया गया है। प्रयोगशाला इन्हीं दिनों खड़ी की जा रही है। उसका कार्य सम्भवतः इसी वसन्त पर्व से आरम्भ हो जाएगा। इन प्रयोगों को अणु परीक्षणों के समतुल्य माना जाए और विनाश के प्रतिपक्षी विकास को प्रतिद्वन्दी माना जाए तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी।

अध्यात्म और विज्ञान की समन्वय शक्ति का प्रादुर्भाव जिन प्रतिपादनों और प्रभावों के आधार पर संभव हो सकता है, अगले दिनों उन्हीं की चर्चा अखण्ड-ज्योति में और भी अधिक गम्भीर तथ्य प्रस्तुत करते हुए छपा करेगी। यों इस दिशा में हलके-भारी प्रयत्न तो बहुत पहले ही से किये जाते रहे हैं। इस प्रकार पत्रिका की उपयोगिता और अधिक बढ़ जायेगी और उसे बुद्धिजीवी वर्ग तक पहुँचाने की आवश्यकता और भी अधिक अनुभव की जायेगी।

इन बढ़ते हुए प्रगति प्रयासों में बुद्धि शक्ति और धन शक्ति का असाधारण उपयोग करना पड़ेगा। जिन्हें छोटे-मोटे साहित्यिक एवं वैज्ञानिक शोध प्रयत्नों का अनुभव है। वे जानते हैं कि यह कार्य कितने जटिल, कितने श्रमसाध्य और कितने व्ययसाध्य होते हैं। उनके लिए योगियों जैसे तन्मयता और सैनिकों जैसी तत्परता बरतनी पड़ती है। साधनों का सरंजाम इकट्ठा करना तो और भी अधिक चिन्ताजनक है। उनके लिए कितने धन की आवश्यकता पड़ सकती है उसे जानना हो तो उन शोधकर्ताओं के क्रिया-कलापों को आंकना चाहिए जो अन्तरिक्ष यात्राएं, अणु शक्ति की महिमा, दूरगामी राकेट बनाने जैसे अन्वेषणों के लिए आवश्यक व्यवस्था जुटा रहे हैं।

यह अखण्ड-ज्योति संस्थान के सूत्र संचालकों द्वारा किये जाने वाले भावी प्रयासों का एक दिग्दर्शन हुआ। यह एक पक्ष है। इसका दूसरा पक्ष है अखण्ड-ज्योति के प्राणवान परिजनों का भाव भरा वह पुरुषार्थ जिसके सहारे उसकी सदस्य संख्या बढ़ती रही है और समुद्र मन्थन से निकली हुई रत्न-राशि का विवरण जनसाधारण तक हो सकना संभव हुआ है। कोई उत्पादन कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो यदि उसका प्रसार विस्तार न हो सके तो समझना चाहिए कि लगी हुई पूँजी और मेहनत बेकार ही चली गई। अखण्ड-ज्योति के प्रतिपादनों दार्शनिक उत्पादनों को जन-साधारण तक पहुँचाने और उस आलोक से व्यापक क्षेत्र को अलोकित करने का श्रेय ऐसे ही परिजनों को है जो अपनी पत्रिका आप मंगाने और पढ़ने मात्र से अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर लेते वरन् अपने व्यक्तिगत मान-अपमान की चिन्ता किये बिना जन-जन के पास जाते और पत्रिका के नये सदस्य बढ़ाने के लिए आग्रह भरा प्रयत्न करते हैं। स्पष्ट है कि यदि यह प्रयत्न न बन पड़े तो ‘अखण्ड-ज्योति’ की सदस्य संख्या उसके आधी चौथाई भी न रही होती, जितनी कि अब है। भविष्य में इस संस्थान द्वारा-उसके सूत्र संचालकों द्वारा जा कुछ किया जाना है, उसका प्रकाश एवं लाभ जन-जन तक पहुँचाने का और कोई दूसरा माध्यम नहीं है। प्राणवान परिजनों द्वारा किये जाने वाले नये सदस्य बनाने और पुरानों को संभाले रहना यह कार्य जिन लोगों के द्वारा होता रहा है, वे भी अगले दिनों में आशा के केन्द्र बनकर रहेंगे। नये शोध प्रयत्नों में यह सदस्य संख्या बढ़ाने का प्रयास प्रकारान्तर से प्रत्यक्ष सहयोग की भावभरी भूमिका सम्पादित करेगा।

युग शक्ति गायत्री के सदस्य बढ़ाने के साथ-साथ अखण्ड-ज्योति के कार्यक्षेत्र एवं प्रयोजन को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। इस बार तो शोध प्रयत्नों के परिपोषण एवं प्रसार विस्तार की दृष्टि से अखण्ड-ज्योति की सदस्य संख्या बढ़ाना और भी अधिक आवश्यक हो जाएगा। यह आवश्यकता आत्मीयजनों में भली प्रकार समझी जाएगी और उसके लिए भाव-भरी चेष्टा की जाएगी, ऐसा विश्वास है।

बसन्त पर्व अखण्ड-ज्योति का, युग निर्माण योजना का, उनके सूत्र संचालक का, जन्मदिन है। इस अवसर पर आत्मीय जन अपनी भावभरी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करने की एक ही परम्परा अपनाते रहे हैं-अखण्ड-ज्योति के सदस्यों की संख्या वृद्धि। इस बार न केवल उसका परम्परागत निर्वाह करना पर्याप्त होगा वरन् उसमें और दूनी-चौगुनी तत्परता बरतनी होगी। नये शोध-प्रयासों की सफलता का एक अति महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इस अमृतोपम उत्पादन का प्रसार विस्तार द्रुतगति से बढ़ सके। इसके लिए और कोई मार्ग है नहीं। प्राणवान परिजनों का प्रसार पुरुषार्थ ही पहले भी कम आता रहा है। इस आड़े समय में भी उसी से पहले की अपेक्षा अधिक सहयोग, अधिक पुरुषार्थ की अपेक्षा की जा रही है। बसन्त पर्व पर इस बार सदस्य संख्या बढ़ाने की चेष्टा पिछले वर्षों की तुलना में हल्की नहीं भारी ही होगी, ऐसा विश्वास है। इससे बढ़कर इन दिनों श्रद्धा सहयोग का दूसरा कोई माध्यम हो नहीं सकता।

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