मानसिक संक्षोभों से स्वास्थ्य की बर्बादी

November 1978

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विपत्ति आने पर मनुष्य के चिन्तित होने की बात समझ में आती है और संकट से लड़ने के लिए संघर्ष का जो पराक्रम करना पड़ता है, उसकी उत्तेजना उत्पन्न होने की प्रकृति प्रक्रिया भी समझ में आती है। किन्तु आश्चर्य तब होता है जब लोग मनगढ़न्त विपत्तियों की कल्पनाएँ करते- उन पर रंग चढ़ाकर भयानक बनाते और उस अपने ही उपार्जन से भयभीत होकर बेतरह रोते, कलपते और दुःख उठाते देखे जाते हैं।

सम्भावित बीमारी, गरीबी, दुर्घटना, हानि, मौत, आक्रमण, धोखेबाज़ों की आशंका कइयों के मनों में उठती है। दुर्बल मन उसे कल्पना की यथार्थता के रूप में स्वीकार करने लगता है और मनोविज्ञान की ‘स्व सम्मोहन’ पद्धति के अनुसार अपनी गढ़न्त को अपने लिए लगभग वास्तविक जैसी बनाकर खड़ी कर लेता है। तर्क और विवेचन से काम लिया जाय तो प्रतीत होगा कि यह कुकल्पनाएँ बेसिर पैर की और बकवास मात्र हैं। किन्तु जिनकी तर्क शक्ति पर संशय का आवरण पड़ गया है, उनके लिए वस्तुस्थिति को समझ सकने योग्य समीक्षात्मक विवेचन कर सकना कठिन पड़ता है। संशय को स्वीकार कर लेने के उपरान्त मस्तिष्क का पहिया उन्हीं आशंकाओं के समर्थन करने के लिए चल पड़ता है। ऐसी चित्र-विचित्र कल्पनाएँ उठती हैं और ऐसे कारण सूझ पड़ते हैं जो पूर्णतया अवास्तविक होते हुए भी तथ्य जैसे प्रतीत होने लगते हैं।

शंका डायन-मनसा भूत की उक्ति अक्षरशः सत्य है। किसी और निर्दोष महिला पर अपनी कुशंकाओं का आरोपण करके उसे डाकिन, चुड़ैल, जादूगरनी आदि के रूप में भयानक देखा जा सकता है। डायनों का अस्तित्व पूर्णतया संदिग्ध है, किन्तु कुशंकाओं के खेत में असंख्यों एक से एक भयानक डाकिनों का उत्पादन निरन्तर होता रहा है। आश्चर्य इस बात का है कि यह मनगढ़न्त डाकिनें हानि उतनी ही पहुँचा देती हैं जितनी कि कोई वास्तविक डायन रही होती और उसने पूरे जोर−शोर से आक्रमण किया होता।

“मनसा भूत” की उक्ति से संकेत है कि मन से भूत उत्पन्न होते हैं। पीपल के पेड़ पर, मरघट में, खण्डहरों में भूत-पलीतों के किले बने होने और वहाँ से उनके तीर चलते रहने की मान्यता असंख्यों अन्धविश्वासियों के मनों में जड़ें जमाये बैठी रहती हैं। सभी जानते हैं कि जड़ों में दौड़ने वाला रस पत्र, पल्लव, पुष्प, फल आदि के रूप में विकसित परिणत होता रहता है। आशंकाजन्य भय-भीरुता की जड़ें यदि अचेतन मन में घुस पड़ें तो उतने भर से भूतों की अपनी अनोखी दुनिया बन पड़ेगी और उस सेना के आक्रमण की अनुभूति घिग्घी बँध देने वाला त्रास देती रहेगी। यह स्वनिर्मित भूत भी उतने ही डरावने और हानिकारक होते हैं जितने कि यदि वास्तविक भूत कहीं रहे होते और उनके द्वारा आक्रमण किये जाने पर कष्ट सहना पड़ता।

एक बार रूस में काली प्लेग की महामारी फैली। उसमें हजारों व्यक्तियों की मौत हुई। मरने वालों की जाँच पड़ताल करने पर पता चला कि उनमें से एक चौथाई ऐसे थे जिनके शरीर में उस व्याधि का प्रवेश ही नहीं हुआ था। किन्तु वे अपने आपको उस महामारी से आक्रांत मानते रहे और डर के मारे मौत के मुँह में चले गये। अभी भी डाक्टरों के पास पहुँचने वाले मरीजों में से बहुत बड़ी संख्या ऐसों की होती है जिन्हें वस्तुतः कोई रोग नहीं है, पर वहम की बीमारी मन की गहरी परतों में इस कदर घुस गई है कि उन्हें अपने शरीर में कई रोग दिखाई पड़ते हैं और जहाँ-तहाँ दर्द की तथा दूसरी तरह की बीमारियों की शिकायतें करते रहते हैं। ऐसे रोगी दवा-दारू या फाड़-चीर से अच्छे नहीं होते। किसी मनोवैज्ञानिक उपाय से उसका वहम काट दिया जाय तो ही उनके रोग मुक्त होने की सम्भावना बनती है। कुशल चिकित्सक उन्हें दवा के नाम पर कुछ’ विश्वास’ दिलाने के लिए ‘सोडावाइकार्व’ जैसी वस्तु देते रहते हैं उतने भर से कई ऐसी बीमारियों से छुटकारा पा लिया जाता है। झाड़-फूँक की चिकित्सा से अच्छे होने वाले रोगियों की तथ्यतः उनके विश्वास से ही उन्हें रुग्णता से मुक्ति दिलाते है। सूर्य किरण चिकित्सा के नाम पर रंगीन शीशियों में भरकर धूप में रखकर बनाया गया पानी ही कई रोगों को अच्छा कर देता है। इस पानी में जितना गुण होता है यह विवादास्पद है, पर यह निर्विवाद है कि इन्हें अच्छे होने वालों में से अधिकांश को विश्वास का लाभ मिला होता है।

उपरोक्त तथ्यों पर विचार करने से विदित होता है कि मान्यताएँ अपना बुरा या भला असर किस प्रकार डालती है। तथ्यों पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि मान्यताएँ अपने आप में तथ्य हैं और उनकी क्षमता किसी वास्तविकता से कम शक्तिशाली नहीं है।

विचारों का शरीर पर प्रभाव के सन्दर्भ में गहरी खोज करने वाले मनोविज्ञानी जार्ज लाउन ने अनेक प्रमाण प्रस्तुत करते हुए सिद्ध किया है कि बुढ़ापा और जवानी आहार-विहार से जितने सम्बन्धित हैं उससे कहीं अधिक उनका आधार मनुष्य की मनःस्थिति पर टिका होता है। अपने को हारा हुआ, असफल मानने वाले, निराश और खिन्न रहने वाले मनुष्य भरी जवानी में मन से ही नहीं शरीर से भी बूढ़े दीखने लगते हैं। इसके विपरीत आयु की दृष्टि से बुढ़ापे की परिधि में जा पहुँचने वाले व्यक्ति भी उत्साह, उमंग और भविष्य की उज्ज्वल आशा के सहारे जवान बने रहते हैं। मन ही नहीं उनका शरीर भी जवानों की तरह ही आचरण करता रहता है। विनोदी स्वभाव के हंसमुख लोगों के चेहरे पर ही नहीं नस-नाड़ियों में भी जवानी झलकती रहती है। मनहूसों की तरह किसी विपत्ति से ग्रस्त लोगों जैसी मुखाकृति कई लोग अकारण ही बनाये रहते हैं। तिल जैसी कठिनाई को ताड़ जैसी बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं। हैरान होते और हैरान करते हैं। इसी कुचक्र में अपनी जवानी गँवा बैठते हैं और बूढ़ों जैसे थके माँदे और अर्धमृतक दीखने लगते हैं।

इच्छित काम, इच्छित समय में पूरा हो ही जाय यह कोई नियम नहीं है। प्रयोजन का नियत अवधि में पूरा होना अपने हाथ की बात नहीं है। उसके लिए अपनी इच्छा ही सब कुछ नहीं है। योग्यता, साधन, अवसर, सहयोग आदि अनेक कारणों के समन्वय का नाम सफलता है। इनमें कुछ कम पड़ने पर काम पूरा होने में साधारण या असाधारण कठिनाई उत्पन्न होती रहती है। इसमें समय भी अधिक लग सकता है और सफलता के थोड़े अंश पर भी सन्तोष करना पड़ सकता है। अवरोध अधिक बड़ा होने पर रास्ता बदलने की भी जरूरत हो सकती है। यह सब खिलाड़ी की भावना से किया जाना चाहिए, किन्तु कई लोग अभीष्ट मनोरथ पूरा होने में देर लगते या उसमें कमी रहने के कारण दुःखी रहने लगते हैं। भाग्य को कोसते और खिन्नता में डूबते उतरते हैं।

कइयों को मनोरथ पूरा होने में कठिनाई आने, देर लगने, रास्ता न मिलने जैसी कल्पनाओं के कारण चिन्ता रहने लगती है। यह चिन्ता कभी-कभी इतनी बढ़ जाती है कि मस्तिष्क पर बुरी तरह अधिकार कर लेती है, फिर ऐसे व्यक्तियों से चिन्तित रहने के अतिरिक्त और कुछ करते-धरते नहीं बनता। कठिनाइयों को पार करने के लिए उपाय सोचना और साधन जुटाना सन्तुलित मस्तिष्क के लिए ही सम्भव है, पर चिन्तित की स्थिति तो अर्धविक्षिप्त जैसी रहती है, उसे अवरोध और असफलताजन्य संकट तो दीखते हैं, पर यह नहीं सूझता कि प्रस्तुत कठिनाइयों के समाधान के क्या-क्या उपाय हो सकते हैं और उनमें से आज की स्थिति में किन्हें किस प्रकार अपनाया जा सकता है। चिन्ता की उत्तेजना यदि रचनात्मक मार्ग खोजा निकालने में सहायता करती तो उसकी उपयोगिता भी थी, पर जब वह विचारतन्त्र को ही कुण्ठित किये दे रही है तो फिर उसे एक नई विपत्ति ही कहना चाहिए। इस विपत्ति से लदा हुआ व्यक्ति अपने शरीर और मन की सामान्य कार्यक्षमता को भी जलाता-गलाता रहता है।

शरीर शास्त्री रुग्णता के अनेक कारणों में एक बड़ा कारण चिन्ता को मानते हैं। यलमर गेट का कथन है-चिन्ता और उद्विग्नता जैसी मानसिक उत्तेजनाएँ शरीर में विष द्रव्य उत्पन्न करती और नई-नई तरह के रोग उपजाती रहती हैं। डॉक्टर ड्यूकवन्से ने लिखा है-समय से बहुत पहले बुढ़ापे को मनुष्य पर लाद देने वाले कारणों में चिन्ता प्रमुख है। चिन्तित रहने वाले के बाल समय से पूर्व ही सफेद हो जाते हैं और चेहरा झुर्रियों से भी जाता है। सरचार्ल्स पेस्ट का निष्कर्ष है कि आधी बीमारियाँ खिन्न और उद्विग्न रहने के कारण उत्पन्न होती है। यदि लोग मानसिक नियन्त्रण की कला सीख लें तो उन्हें बीमारियों के कष्ट में आधी कटौती कर लेने का लाभ मिल सकता है।

मस्तिष्क के अणुओं की एक विशेषता यह है कि उन्हें जिस ढांचे में ढाला जाय समयानुसार वे उसी राह पर चलने के अभ्यस्त हो जाते हैं। मस्तिष्क का अनुगमन शरीर को करना पड़ता है। सच तो यह है कि मन का शरीर पर पूरा-पूरा नियन्त्रण है। रक्त संचार, पलक झपकना, माँसपेशियों का सिकुड़ना-फैलना, श्वास-प्रश्वास क्रिया जैसी अनैच्छिक हलचलें भी अचेतन मन के नियन्त्रण में चलती हैं। मन की प्रसन्नता पर शरीर भी अच्छा रहता है और खिन्नता से स्वस्थ को भारी आघात पहुँचता है। इस मनःसंस्थान पर यदि निषेधात्मक विचारों का दबाव लदा रहे तो वे तात्कालिक हानि तो पहुँचाते ही हैं एक और बुरी बात यह हो जाती है कि मस्तिष्क का स्वभाव ही निषेधात्मक प्रकृति का बन जाता है और अकारण ही-अनायास ही किसी न किसी बहाने ऐसा चिन्तन चल पड़ता है जो मस्तिष्क को खिन्नता और शरीर को रुग्णता से ग्रसित बनाये रहे।

चिन्ताग्रस्त मनःस्थिति का सबसे अधिक प्रभाव पाचन तन्त्र पर पड़ता है। पचाने वाले रस मुख से लेकर आमाशय और आँतों तक फैली हुई लम्बी नली में झरते रहते हैं। उनके कितने ही स्तर होते हैं और उनमें पचाने बदलने के लिए कितने ही अति महत्वपूर्ण रसायन मिले होते हैं। यह रस ही पाचन क्रिया के प्राण हैं। उनका स्तर एवं अनुपात सही होने पर ही भोजन ठीक-तरह पचता है और उसमें शुद्ध रक्त बनता है। भोजन करते समय सुरुचिपूर्ण प्रसन्नतादायक वातावरण बनाने की प्रथा सभ्य समाज में सर्वत्र पाई जाती है। इसका कारण यही है कि उल्लास भरी मनःस्थिति होने के कारण पाचन रसों का स्राव समुचित मात्रा में हो ओर उल्लासित मनःस्थिति का समावेश होने से रक्त का परिमाण तथा स्तर ऊँचा रहे। भोजन के समय क्रोध, शोक, भय आदि की स्थिति आ जाय तो देखा जाता है कि भूख एक प्रकार से विदा ही हो जाती है। यह प्रभाव हर समय पड़ता हैं। मानसिक विक्षोभ पाचन तन्त्र में सर्वाधिक प्रभाव छोड़ते हैं फलतः अपच से लेकर रक्त में विषाक्तता भर जाने जैसे अनेक ऐसे उपद्रव सामने आते हैं जो प्रकारान्तर से शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की जड़ें ही खोखली करते चले जाते हैं।

धन, सम्मान आदि की रक्षा के लिए सभी सचेष्ट रहते हैं यदि मानसिक सन्तुलन बनाये रखने का भी ध्यान रखा जाय तो व्यक्तित्व नष्ट कर डालने वाले मनोविकारों की भी भयंकरता से बचे रहने की भी सतर्कता बरतनी होगी।


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