आस्था संकट में संस्कृति की नाव ही पार करेगी।

November 1978

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अच्छा करना तभी सम्भव हो सकता है, जब उसके मूल में अच्छा चिन्तन भी उत्कृष्टता की प्रेरणा भरता रहे। करना मूल्यवान है, पर सोचना अव्यक्त होते हुए भी क्रिया-कलाप के समतुल्य ही महत्वपूर्ण है। लोगों को श्रेष्ठ काम करने के लिए कहा जाय, पर साथ ही उन्हें यह भी सुझाया जाय कि कर्म का बाह्य स्वरूप ही सब कुछ नहीं है, उसकी आत्मा तो उद्देश्यों में निवास करती है।

अन्तर्राष्ट्रीय मसीही धर्म सम्मेलन में उद्बोधन करते हुए संसार के ईसाई जगद्गुरु-आर्कविशप कार्डिनल ग्रासीयास ने कहा था-मसीही धर्म समेत समस्त धर्मावलम्बियों को अपने सहयोग का क्षेत्र अधिकाधिक व्यापक बनाना चाहिए। यह सहयोग पारस्परिक सद्भाव, सहानुभूति और विश्वास पर आधारित होना चाहिए। धर्म की मूल धारणा और ईश्वर प्रदत्त न्याय की समूची परम्परा की रक्षा, उसका विकास और उसे समृद्ध बनाने जैसे महान् कार्यों में विभिन्न धर्म मिल-जुलकर काम कर सकते हैं।

अनास्था का संकट सभी धर्मों के सामने समान रूप से है। उद्योग, विज्ञान और विकृत तर्कवाद ने जो अनास्था उत्पन्न की है, उससे प्रभावित हुए बिना कोई धर्म रहा नहीं है। संचित कुसंस्कारों की, पशु प्रवृत्तियों को इस अनास्था ने और भी भड़काया है, फलतः समूची मनुष्य जाति स्वार्थान्धता और दुष्टता की काली छाया से ग्रसित होती चली जा रही है।

धर्म का तात्पर्य है-शालीनता एवं नीतिमत्ता। यह प्रयोजन उच्चस्तरीय आस्थाओं के सहारे ही सधता है। दैनिक जीवन के प्रत्येक क्रिया कृत्य के साथ सज्जनता और उदारता के तत्वों को संजो देने की विचार पद्धति का नाम अध्यात्म है। आध्यात्मिकता का चक्र आस्तिकता की धुरी के इर्द-गिर्द घूमता है। इन सबका परस्पर सम्बन्ध और तारतम्य है। एक कड़ी तोड़ देने से यह समूची जंजीर ही बिखर जाती है। वैयक्तिक जीवन में जिसे नीतिमत्ता कहते हैं, वही सामूहिक रूप में विकसित होने के उपरान्त सामाजिक सुव्यवस्था बन जाती है। प्रगति और समृद्धि की सुख और शान्ति की आधार शिला इसी पृष्ठभूमि पर रखी जाती है।

नीति क्या है? इसका उत्तर उतना सरल नहीं है जितना कि समझा जाता है। उसका स्वरूप कई विचारक कई तरह से प्रस्तुत करते हैं। नीति शास्त्री सिज्विक ने अपने ग्रन्थ “मैथड आफ एथिक्स” में लिखा है सत्य बोलना अपरिहार्य नहीं है। राजपुरुषों को अपनी गतिविधियाँ गुप्त रखनी पड़ती हैं। व्यापारियों को भी अपने निर्माण तथा विक्रय के रहस्य छिपाकर रखने पड़ते हैं। अपराधों को पकड़ने के लिए जासूसी की कला नितान्त उपयोगी है उसमें दुराव और छल का ही प्रश्रय लिया जाता है। इसलिए नीति का आधार सच्चाई को मानकर नहीं चला जा सकता। अधिक लोगों के अधिक सुख का ध्यान रखते हुए नीति का निर्धारण होना चाहिए।

लेस्ले स्टीफन ने अपने ग्रन्थ ‘साइन्स आफ एथिक्स’ में लिखा है-किसी के कार्य के स्वरूप को देखकर उसे नीति या अनीति की संज्ञा देना उचित नहीं। कर्त्ता की नीयत और कर्म के परिणाम की विवेचना करने पर ही उसे जाना जा सकता है।

क्रिया कृत्यों को देखकर नीतिमत्ता का निर्णय नहीं हो सकता। सम्भव है कोई व्यक्ति भीतर से छली होकर भी बाहर से धार्मिकता का आवरण ओढ़े हो यही भी हो सकता है कि कोई धर्म कृत्यों से उदासीन रहकर भी चरित्र और चिन्तन की दृष्टि से बहुत ऊँची स्थिति रह रहा हो। व्यक्ति की गरिमा, मात्र उसकी आन्तरिक आस्थाओं को देखने से ही जानी जा सकती है। नीयत ऊँची रहने पर यदि व्यवहार में भूल या भ्रम से कोई ऐसा काम बन पड़े जो देखने वालों को अच्छा न लगे, तो भी यथार्थता जहाँ की तहाँ रहेगी। अव्यवस्था फैलाने के लिए उसे दोषी समझा और दण्डित किया जा सकता है। इतने पर भी उसकी उत्कृष्टता अक्षुण्ण बनी रहेगी। व्यक्तित्व और कर्तृत्व की सच्ची परख उसकी आस्थाओं को समझे बिना हो नहीं सकती। धर्म तत्व की गहन गति इसीलिए मानी गई है कि उसे मात्र क्रिया के आधार पर नहीं जाना जा सकता। नीयत या ईमान ही उसका प्राण भूत मध्य बिन्दु है।

संस्कृत का अर्थ है-सुसंस्कारिता। इसके पर्यायवाची शब्द हैं-सज्जनता और आत्मीयता। ऐसी आत्मीयता जो दूसरों के सुख-दुःख को अपनी निजी सम्वेदनाओं का अंग बना सके। यह सार्वभौम और सर्वजनीन है। संस्कृति के खण्ड नहीं हो सकते उसे जातियों, वर्गों, देशों और सम्प्रदायों में विभक्त नहीं किया जा सकता। यदि संस्कृति को वर्गहित के साथ जोड़ दिया गया तो वह मात्र विजेताओं और शक्तिमन्तों की ही इच्छा पूरी करेगी। अन्य लोग तो उससे पिसते कौर पददलित ही होते रहेंगे। ऐसी संस्कृति को विकृति ही कहा जायगा भले ही उसे लबादा कितना ही आकर्षक क्यों न पहनाया गया हो।

संस्कृति एक है उसे खण्डों में विभक्त नहीं किया जाना चाहिए। अन्यथा यह टुकड़े आपसे में ही टकराने लगेंगे और जादवी वंश विनाश का अप्रिय प्रसंग उपस्थित करेंगे। जर्मन संस्कृति, अरब संस्कृति, रोम संस्कृति आदि के पक्षधरों ने अपने अत्युत्साह को उस चौराहे पर इस तरह नंगा ला खड़ा किया जहाँ विश्व संस्कृति की आत्मा को अपनी लज्जा बचानी कठिन पड़ गई। सर्वहारा को निवोदित संस्कृति, सामान्य जन-जीवन को मानवोचित न्याय प्राप्त कर सकने का अवसर दे सकेगी इसमें सन्देहों की भरमार होती चली जा रही है। माओ की लाल किताब में वह आह्वान छपा है जिसमें कहा गया है कि हिमालयों की चोटी पर खड़ा माओ एशिया को अपने पास बुला रहा है। ‘उस आमन्त्रण को जिन्हें स्वीकार करना है, सोचते हैं निकट बुलाने के उपरान्त आखिर हमारा किया क्या जायगा?’

विचारों का एकाकी प्रवाह सदा उपयोगी ही नहीं होता उसमें बहुधा एक पक्षीय विचारणा का बाहुल्य जुड़ जाने से यथार्थता की मात्रा घटने लगती है। अपनी मान्यता और आकांक्षा के पक्ष में मस्तिष्क काम करता चला जाता है और प्रतिपक्षी तर्कों एवं तथ्यों का ध्यान ही नहीं रहता। किसी निर्णय पर पहुँचने के लिए पक्ष और विपक्ष के सभी तर्कों को सामने रखा जाना चाहिए। न्यायाधीश को वस्तुस्थिति के समझने के लिए वादी और प्रतिवादी दोनों पक्षों के प्रमाण, साक्षी एवं तर्क सुनने पड़ते हैं। अन्य न्यायाधीशों ने ऐसे प्रसंगों पर क्या-क्या निष्कर्ष निकाले हैं इसका ध्यान रखना पड़ता है। तब कहीं उचित निर्णय करने की स्थिति बनती है। यदि एक ही पक्ष की बात सुनी जाय दूसरा पक्ष कुछ बताये ही नहीं तो स्वभावतः एकांगी निर्णय करने की स्थिति खड़ी हो जायगी। इसमें न्याय के स्थान पर अन्याय का पक्षपात जैसी दुर्घटना घटित हो जायगी। इसमें न्यायाधीश की नीयत का नहीं उस एकांगी परिस्थिति का दोष है जिसमें मन्थन के लिए काट-छाँट के लिए अवसर ही नहीं मिला और न करने योग्य निर्णय कर लिया गया। यही दुर्घटना तब घटित होती है जब एकांगी, एक पक्षीय विचारों की घुड़दौड़ मस्तिष्क में चलती रहती है और ऐसे निष्कर्ष निकाल लिए जाते हैं जो अनुपयुक्त होने के कारण असफल एवं उपहासास्पद सिद्ध होते हैं।

यदि मन पक्षपाती पूर्वाग्रहों से भरा हो तो फिर आप्त वचन और शास्त्र भी सही मार्गदर्शन कर सकने में असमर्थ रहेंगे। उनकी व्याख्याएँ इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर की जाने लगेंगी कि तर्क की दृष्टि से उस प्रतिपादन को चमत्कारी माना जायगा फिर भी शास्त्रकारों और आप्त पुरुषों के मूल्य मन्तव्य की वास्तविकता के साथ उसकी पटरी बिठाना अति कठिन हो जायगा।

गीता के अनेक भाष्य हुए हैं। इन भाष्यकारों ने जो भाष्य किये हैं उनमें उनकी अपनी मान्यताओं को सिद्ध करने का आग्रह ही प्रधान रूप से काम करता है। जानबूझकर अथवा अनजाने ही वे मूल ग्रन्थकार के वास्तविक उद्देश्य के विपरीत बहुत दूर तक निकल गये हैं। यदि ऐसा न होता तो इतने तरह के परस्पर विरोधी भाष्य एक ही ग्रन्थ के क्योंकर लिखे जा सकते? इनमें से कुछ ही टीकाकार सही हो सकते हैं। कर्त्ता का यह उद्देश्य तो रहा नहीं होगा कि वह ऐसी वस्तु रच दे जिसका तात्पर्य निकालने वाले इस प्रकार के परस्पर विरोधी जंजाल में फँसकर स्वयं भ्रमित हों और दूसरों को भ्रमित करें। रामायण की अनेक चौपाइयों के ऐसे विचित्र अर्थ सुनने में आते हैं जिन्हें यदि मूल रचनाकार के सामने रखा जाय तो स्वयं आश्चर्यचकित होकर रह जायेंगे कि जो बातें कल्पना में भी नहीं थी वे उनके गले किसी प्रकार मढ़ दी गईं।

संसार के मूर्धन्य साहित्यकारों के अपनी कृतियों में भारतीय शास्त्रों और मनीषियों के अनेकों उद्धारण दिये हैं। ध्यान से देखने पर प्रतीत होता है कि उद्धरणों की शब्द रचना यथावत् है, किन्तु उन्हें इस प्रकार के प्रयोजनों में प्रयुक्त किया गया है जैसा कि उन कथनों का मूल उद्देश्य नहीं था। डी0 एच॰ लारेन्स ने अपनी अन्तःस्थिति का विश्लेषण करते हुए कहा है-‘मेरे भीतर एक नहीं कई देवता निवास करते हैं।’ यहाँ उनने देवताओं को जिस रूप में प्रस्तुत किया है वह देववाद के मूल प्रतिपादनों के अनुरूप नहीं हैं। हेनरी मिलर की पुस्तकों में रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के उद्धरणों की भरमार है, पर वे मूलतः उन मन्तव्यों के लिए नहीं कहे गये थे जैसा कि मिलर ने सिद्ध किया है। स्टेनबेक ने अपनी पुस्तक ‘केनेरी को’ में संस्कृत कवि विल्हण की कई रचनाओं का उल्लेख किया है। कालिन विल्सन ने मानवी पृथकतावाद के समर्थन में भारत में प्रचलित धर्म दृष्टान्तों का अनेक प्रसंगों में सहारा लिया है। आल्हुआस हक्सले ने प्राचीनता और आधुनिकता के विग्रह में भगवान बुद्ध को आधुनिकता का समर्थक सिद्ध किया है

एरिक फ्राम ने अपनी पुस्तक ‘आर्ट आफ लविंग’ में योरोप में उत्पन्न हुए अनेक संघर्षों की जड़ अरस्तु के तर्कशास्त्र को बताया है जिसने जनमानस में यह बात बिठाई कि संसार में देव और असुर दो ही शक्तियाँ हैं और दोनों परस्पर विरोधी हैं। यह (ए, एण्ड नान ए) का सिद्धान्त मुद्दतों तक लोगों के दिमागों में गूँजता रहा है और वे यह सोचते रहे कि बुराई पर आक्रमण करके उसे मिटाया जाना चाहिए। अब इसका निर्णय कौन करे कि बुराई किस पक्ष की है? अपनी या पराई? इस निष्कर्ष में फैसला अपने ही पक्ष को सही मानने की ओर झुकता है। हम जो सोचते और करते हैं वही ठीक है। गलती तो अन्य लोग ही कर सकते हैं, वह हमसे क्यों होगी? इसी पूर्वाग्रह से हर व्यक्ति और वर्ग घिरा रहता है। फलतः उसे सामने वाले में ही बुराई दीखती है ओर उसे मिटाने के लिए तलवार पर धार रखता है। इसी मान्यता ने कलह, विद्वेष और आक्रमणों को जन्म दिया है।

उच्चस्तरीय आस्थाओं के प्रति व्यक्ति को निष्ठावान बनाना अध्यात्मवादी तत्वदर्शन का काम है। धर्म और दर्शन का लक्ष्य सही है। संस्कृति की उपयोगिता इसी में है कि वह मानवी चिन्तन का स्तर ऊँचा उठाये। उसे आत्म गौरव की अनुभूति कराने के साथ-साथ सज्जनता को व्यवहार में उतारने का साहस भी प्रदान करे।

इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए उदार चिन्तन की मनोभूमि होनी चाहिए। तथ्यों को समझने के लिए पूर्वाग्रहों से मुक्त रहना आवश्यक है। औचित्य को ही प्रधानता दी जाय। तथ्यों को तर्क और प्रमाणों की कसौटी पर कसा जाय। मानवी आदर्शों को सर्वोपरि रखा जाय। अधिकार को पिछली पंक्ति में स्थान दिया जाय और कर्त्तव्य को आगे रखा जाय। ये ऐसे उपाय हैं जिनके सहारे सज्जनता की रक्षा हो सकती है। प्रगति और शान्ति का वातावरण बन सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि सुसंस्कारिता को प्रमुखता मिलने के लिए हर क्षेत्र से प्रबल प्रयत्न किया जाय। ऐसे सुव्यवस्थित प्रयत्नों को ही तत्वदर्शियों ने धर्म धारणा का नाम दिया है। वर्तमान को सुखद और भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए उसकी आज सबसे अधिक आवश्यकता है।


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