एकता के साथ लक्ष्मी का गठबन्धन

December 1974

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सेठ जी पर लक्ष्मी की कृपा थी। उनका व्यापार, व्यवसाय अच्छी उन्नति कर गया था लाखों, करोड़ों का कारोबार होता था, तिजोरियाँ सोने−चाँदी से सदा भरी रहतीं। ईश्वर की कृपा से उन्हें चार सुन्दर पुत्र प्राप्त हुए थे। चारों ही एक से एक बढ़कर चतुर थे। घर सब प्रकार के आनन्दों से परिपूर्ण था।

बेटे बड़े हुए और उनके धूम−धाम के साथ विवाह किये गये। बहुएँ अपने साथ खूब दान−दहेज लाई। सेठजी और सेठानी प्रसन्नता से फूले न समाते थे।

समय का चक्र बड़ा प्रबल है। आज जहाँ आनन्द है, कल वहाँ दुख हो सकता है, आज जहाँ बाग है, कल वहाँ मरघट हो सकता है। सेठ जी के आनन्द से भरे हुए घर में भी विनाश की छाया झाँकने लगी। बहुओं में मनमुटाव बढ़ने लगा। स्त्रियों के मनमुटाव की छूत पुरुषों में पहुंची और वे भी एक दूसरे से असन्तुष्ट रहने लगे। भीतर ही भीतर सब में रोष था, कभी−कभी वह लड़ाई के रूप में बाहर भी प्रकट होने लगा।

एक दिन सेठ जी ने स्वप्न देखा कि दिव्य रूप धारण किये हुए तेज मूर्ति लक्ष्मी जी उनके घर को छोड़कर अन्यत्र जाने की तैयारी कर रही हैं और मन्द स्वर से कह रही है—”पुत्र, मैं तेरे यहाँ बहुत दिन रही पर अब यहाँ नहीं रहूँगी।” सेठजी लक्ष्मी के अनन्य सेवक थे। जीवन भर उन्होंने उसी की उपासना की थी, जब उन्होंने यह देखा कि मेरी सम्पदा जा रही है, वेदना से तड़फड़ा कह वे लक्ष्मी के चरणों में लोट गये और फूट−फूटकर रोने लगे। लक्ष्मी को उन पर दया आ गई। उनने कहा—’पुत्र मेरा जाना तो निश्चय है, पर तेरी भक्ति को देखकर एक वरदान तुझे दे सकती हूँ। मुझे छोड़कर अन्य जो वस्तु चाहे सो तू माँग ले।

स्वप्न में ही सेठ जी ने कहा—माता इस समय मेरा चित्त स्थिर नहीं है। मैं शोक से व्याकुल हो रहा हूँ, इस लिए क्या माँगू क्या न माँगू इसका ठीक निर्णय नहीं कर सकता। आप कल तक का अवसर मुझे दें। कल मैं माँग लूँगा। लक्ष्मी जी दूसरे दिन फिर स्वप्न में दर्शन देने का वचन देकर अन्तर्धान हो गई। सेठजी का स्वप्न टूटा तो उनका कलेजा धकधका रहा था।

प्रातः काल सेठ जी ने अपने सब पुत्रों और पुत्रवधुओं को बुलाया और रात के स्वप्न का सारा हाल कह दिया। उस जमाने में लोगों के मन अधिक गन्दे न होते थे, इसलिये उन्हें जो दिव्य स्वप्न दिखाई देते थे वे प्राय सत्य ही होते थे। सबको विश्वास हो गया कि स्वप्न सत्य ही है। अब सब विचार करने लगे कि लक्ष्मी जी से क्या माँगना चाहिए। लड़कों में से किसी ने कोठी, किसी ने मोटर, की ने कुछ किसी ने कुछ माँगा। इसी प्रकार बेटों की बहुएँ भी सन्तान, आभूषण, महल आदि माँगने लगीं। किन्तु छोटे बेटे की बहू ने नम्रता पूर्वक कहा—पिताजी मेरी सलाह तो यह है कि आप ऐक्य’ का वरदान माँगें। हम लोग चाहे जिस परिस्थिति में रहें पर सब में प्रेम बना रहे और सब मिल−जुलकर रहें।

छोटी बहू की बात सेठ जी को पसन्द आ गई। रात को उन्होंने लक्ष्मी जी से यही वरदान माँगा कि—माता! हम लोग चाहे जैसे दुख−सुख में रहें, परन्तु सब में प्रेम−भाव बना रहे सब मिल−जुलकर रहें। लक्ष्मी इस याचना को सुकर अवाक् रह गई। उनने कहा—यही तो मेरे जाने का कारण था। कलह और द्वेष के कारण ही तो मैं तुम लोगों के यहाँ से जा रही थी, पर जब तुम्हें यह वरदान दूँगी तो किस प्रकार जा सकूँगी? लक्ष्मी जी वचनबद्ध थीं, उन्हें यह वरदान देना पड़ा। परन्तु साथ ही अपने चले जाने का विचार भी छोड़ देना पड़ा। क्योंकि जिस परिवार में प्रेम और संगठन है, लक्ष्मी उसे छोड़कर जा ही नहीं सकती।


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