अन्धविश्वास का फतवा देने में उतावली न की जाय

December 1974

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अन्ध-विश्वास को अब उपहासास्पद और अग्राह्य माना जाता है और उन लोगों को पिछड़ेपन का शिकार माना जाता है जो तथ्यों एवं प्रमाणों से सिद्ध न हो सकने वाली बातों पर विश्वास करते हैं।

अन्ध-विश्वास की मोटी परिभाषा है बिना प्रमाण युक्त कारणों की किन्हीं मान्यताओं को स्वीकार कर लेना। इस संदर्भ में मनीषियों के अन्यान्य प्रतिपादन भी हैं। रॉयल इन्स्टीट्यूट ऑफ लंदन में विज्ञान और अध-विश्वास विषय पर अपना निबन्ध पढ़ते हुए रेवेन्डर चार्ल्स किंग्सले ने उसे ‘अज्ञात का भय’ सिद्ध किया। उनका मतलब शायद उस देवी-देवताओं या भूत-प्रेतों से था जो भेंट-पूजा ऐंठने के लिए डराने, धमकाने और आतंकित करने वाले माने जाते हैं। पर उनका यह प्रतिपादन भी एकाकी था। प्राचीन यूनान में प्रत्येक नदी, वृक्ष, पर्वत आदि में देवात्मा मानी जाती थी और उससे मात्र शुभ-कामना की आशा की जाती थी। यह आत्माएँ डराती नहीं, वरन् स्नेह, सहयोग प्रदान करती हैं। यूनानियों की देव-मान्यता अन्ध विश्वास कही जा सकती है, पर उसका कारण ‘अज्ञात का भय’ नहीं माना जा सकता।

नेशनल कालेज आयरलैंड के प्राध्यापक सर वैरेट ने काये और कारण की संगति बिठाये बिना किन्हीं मान्यताओं को अपना लेना अन्ध-विश्वास बताया है। इस परिधि में अनेकानेक धार्मिक प्रचलन और कथा-पुराणों में बताये हुए संदर्भ भी आ जाते हैं। शकुन एवं मुहूर्त भी इसी वर्ग के हैं। छींक हो जाने, की काम बिगड़ने की सूचना मानस यद्यपि बहु प्रचलित मान्यता है, पर खोजने पर ऐसा कोई कारण समझ में नहीं आता जिसमें छींक आने और काम बिगड़ने की परस्पर संगति बिठाई जा सके।

भूतकालीन मान्यताओं को यदि तथ्य पूर्ण नहीं सिद्ध किया जा सके तो उन्हें अग्राह्य ठहरा देना चाहिए, इस सिद्धान्त पर इन दिनों बुद्धिजीवी वर्ग का बहुत जोर हैं। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि जो तथ्य आज उपलब्ध हैं वे ही अन्तिम हैं, आगे ऐसे आधार प्रस्तुत नहीं होंगे जिनसे आज अन्ध-विश्वास समझी जाने वाली बातें कल तथ्यपूर्ण सिद्ध हो सकें। तर्क, विवेक, कारण और प्रमाणों को उचित महत्व दिया जाना चाहिए पर चिन्तन में यह गुंजाइश भी छोड़ी जानी चाहिए कि शोध की प्रगति किन्हीं भूतकालीन मान्यताओं को सही भी सिद्ध कर सकती है। उचित यही है कि हम प्रमाणित सिद्धांतों को स्वीकार करते हुए मस्तिष्क को इसके लिए खुला हुआ रखें कि अतीत की अध्यात्म सम्बन्धी मान्यताओं को भविष्य में सही सिद्ध हो सकने की सम्भावना है। सामाजिक कुरीतियों के रूप में जो हानिकारक प्रचलन हैं उन्हें निस्संकोच हटाया जाय, पर अध्यात्म मान्यताओं के सम्बन्ध में उतावली न बरती जाय। तत्वदर्शी ऋषियों के अनुभव सहज ही उपहासास्पद नहीं ठहरा दिये जाने चाहिए और उन्हें तत्काल अन्ध-विश्वासों की श्रेणी में नहीं गिन लेना चाहिए।

पिछले दिनों योग सम्बन्धी प्राचीन मान्यताओं को अप्रामाणिक ठहराने वालों को अपनी बात पर पुनर्विचार करना पड़ा है और अत्युत्साह हो खण्डन प्रवृत्ति से पीछे हटना पड़ा हैं।

डा. मेस्मर की मैस्मरेज्म और जेम्स व्रेयड की हिप्नोटिज्म जब प्रयोगशाला में सही सिद्ध होने लगी, तब उस आधार पर रोगियों को बेहोश करके आपरेशन किये जाने लगे और अचेतन मस्तिष्क का चमत्कारी उपयोग किया जाने लगा तो योग की इन शाखाओं को मान्यता मिली और समझा जाने लगा कि मानवी विद्युत् से सम्बन्धित अन्य प्रतिपादनों में भी तथ्य हो सकता है और वे अगले दिनों प्रमाणित ठहराये जा सकते हैं।

क्लौरिंगटन ने ‘ईविल आई’ सिद्धान्त के अनुसार यह सिद्ध किया है कि नेत्रों में वेधक दृष्टि होती है और उसे विशेष उपायों से समुन्नत करके दूसरों को अच्छे या बुरे प्रभाव के अन्डडडड लाया जा सकता हैं। यह सिद्धान्त लगभग उसी स्तर का है जिसके अनुसार नजर लगने’ की पुरानी मान्यता को अन्ध-विश्वास ठहरा दिया गया है।

चार्ल्स वाइविन ने इच्छा शक्ति एवं एकाग्रता की शक्ति को जादुई चमत्कारों से लेकर शारीरिक मानसिक रोगों की निवृत्ति तक के लिए प्रयुक्त करके दिखाया करके दिखाया और बताया है कि यह शक्ति मानवी क्षमताओं में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसके प्रयोग से व्यक्तित्व को प्रतिभाशाली बनाने की दिशा में आशातीत सफलता पाई जा सकती है और अपने में ऐसी विशेषताएँ उत्पन्न कर सकते हैं जिन्हें अद्भुत कहा जा सके। इस संदर्भ में उनके प्रयोगों ने दर्शकों को चकित कर दिया है। यह मन्त्र शक्ति के सम्बन्ध में कहे जाने वाले चमत्कारी वर्णनों की पुनरावृत्ति है।

सोसाइटी फार साइकिकल रिसर्च के अध्यक्ष जी एन. टीरेल ने अपनी खोजों में ऐसे प्रमाणों के पहाड़ लगा दिये हैं जिनमें प्रेतात्माओं के अस्तित्व एवं क्रिया-कलाप के लगभग वैसे ही प्रमाण मिले हैं जैसे कि जीवित मनुष्यों के होते हैं। ठीक इसी प्रकार की शोधें स्प्रिचुवाल सोसाइटी ऑफ ब्रिटेन की है उसके संचालक भी अपनी संग्रहित प्रमाण सामग्री में प्रेतात्माओं के अस्तित्व को इस प्रकार सिद्ध करते हैं जिन्हें बताने के कारण झाड़-फूँक करने वाले ओझा लोगों का अथवा भूत-प्रेत की बातें करने वालों को अन्ध-विश्वासी कहा जाता रहा है।

स्वप्नों के मिथ्या होने की बात बुद्धिजीवी वर्ग में कहीं जाती है। पर जब कितने ही उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिनमें स्वप्न को देखी गई बात यथार्थ निकली अथवा तब परामनोविज्ञान के विश्लेषणकर्ताओं को मनुष्य की अतीन्द्रिय शक्ति का स्वप्नों के साथ एक सीमा तक डडडडला रहने की बात स्वीकार करनी पड़ी। स्वप्न फल बताने वालों को अन्ध-विश्वासी ही कहा जाता रहे, आज के प्रस्तुत प्रमाणों को देखते हुए यह बात न्याय संगत प्रतीत नहीं होती।

मेन्टल टेलीपैथी—क्लेयर वायस आदि ऐसी अध्यात्म विधा सामने आती जा रही हैं जो भूतकालीन चमत्कारवाद की सत्यता मानने के लिए फिर वापिस लौट चलने का निमन्त्रण देती हैं। मैटा फिजिक्स विज्ञान का जिस क्रम से विकास हो रहा है उसे देखते हुए लगता है वह दिन बहुत दूर नहीं रह गया जब मस्तिष्क विद्या हमें प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि जैसे योगाभ्यासों को न केवल सही आधार पर विनिर्मित सिद्ध करेगी, वरन् यह भी बतायेगी कि उपासना, साधना की पद्धतियाँ जीवन के अंतरंग और बहिरंग दोनों पक्षों के विकास में उपयोगी हैं और सहायक भी।

ऐसी दशा में हमें अन्ध-विश्वासों की सीमा निर्धारित करते हुए प्राचीन आध्यात्मिक मान्यताओं के सम्बन्ध में थोड़ा उदार दृष्टिकोण ही रखना चाहिए और विज्ञान बुद्धि द्वारा यथार्थता तक पहुँचने के लिए जितनी प्रतीक्षा की आवश्यकता है उसे बिना उतावली के पूरी होने देना चाहिए।


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