प्रगति पथ पर हमारे चरण रुकें क्यों ?

December 1974

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भारत में अध्यात्म की तरह ही विज्ञान पर भी गहन अनुसंधान होते रहे हैं और शोध-प्रयासों द्वारा जड़ तथा चेतन प्रकृति के रहस्यों को जानने– उनसे लाभान्वित होने का प्रयत्न करते रहे हैं। महाभारत में जिन दिव्य अस्त्रों के चलाये जाने का वर्णन है, वे आज के विकट बारूदी तथा छोटे आणविक हथियारों से किसी प्रकार कम नहीं हैं।

अश्विनीकुमार कुशल शल्य चिकित्सक थे। उनके विश्पला की कटी हुई जांघ को सीकर जोड़ा था। च्यवन ऋषि की अन्धी आँखों की ज्योति लौटाई थी तथा वृद्धता को युवावस्था में बदला था। रामायण काल में सुषेण वैद्य की चर्चा मिलती है, जिनने लक्ष्मण की, शक्ति आघात से प्राण-रक्षा की थी।

नल-नील द्वारा समुद्र पर पुल बनाये जाने की वास्तुकला अद्भुत थी। शिखण्डी का यौन-परिवर्तन स्थूलकर्ण नामक यक्ष चिकित्सक ने किया था। ईसा से पूर्व समस्त संसार को शून्य की जानकारी न थी। एक हजार लिखना होता, तो 1000 के स्थान पर दस बार X लिखना पड़ता था, शून्य के आविष्कार ने गणित-जगत में एक क्रांति ही उत्पन्न कर दी। अंकगणित भारत से अरब और अरब से योरोप पहुँचा। अंकों को ‘हिन्दसा’ अर्थात् भारत से आया हुआ, इसी आधार पर कहा जाने लगा। ज्यामिति के बारे में कहा जाता है कि वह यूक्लिड से आरम्भ हुई,पर वास्तविकता यह नहीं है। तंत्र ग्रंथों में यन्त्र-चक्रों का उल्लेख एवं आयस्तक में विविध आकृतियों के कुण्डों का विधान ज्यामिति शास्त्र के अनुरूप ही बनाने का विधान है। भारत चिरकाल से इस विद्या में निष्णात रहा है।

आश्वलायन द्वारा खगोल विद्या का– पालकाट्य द्वारा पशु चिकित्सा का– पंचाल वाभव्य द्वारा काम-विज्ञान का– हारीत द्वारा विष चिकित्सा का– वोधकन द्वारा रेखागणित का– लाट्यायन द्वारा कृमिशास्त्र का– चरक द्वारा औषधि-विज्ञान का– सुश्रुत द्वारा शल्य चिकित्सा का– नागार्जुन द्वारा रसायन विद्या का– व्याडिका द्वारा वायुयान विद्या का– वृद्ध श्रृंगधर द्वारा शस्त्रविद्या का– यास्क द्वारा भाषा-विज्ञान का जिस तत्परता के साथ विकासा– विस्तार किया गया, उसे, उन साधनहीन परिस्थितियों को आश्चर्यजनक ही कहा जा सकता है।

आर्यभट्ट ने पहली बार यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया, कि पृथ्वी, सूर्य की परिक्रमा करती है। न्यूटन से 600 वर्ष पूर्व भाष्कराचार्य पृथ्वी में आकर्षण शक्ति होने की बात प्रमाणित कर चुके थे। अनेक सौरमण्डल इस ब्रह्माण्ड में हैं; यह जानकारी भारतीयों की थी।

आइन्स्टीन ने समय को सूर्य की गति का सापेक्ष बताया है। उनका कथन है कि हर सौर मण्डल का समयक्रम पृथक−पृथक होता है। यह वहाँ के ग्रहों की कक्षा एवं परिभ्रमण गति पर निर्भर रहता है। सापेक्षवाद का यह रहस्य भारत में बहुत प्राचीन काल से विदित था। पौराणिक गाथा है कि राजा रेवत अपनी पुत्री रेवती के लिए उपयुक्त वर पृथ्वी पर न मिलने के कारण ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी से परामर्श करने गये। वहाँ सभा में हा हा− हू हू− गंधर्वों का नृत्य चल रहा था। रेवत थोड़ी देर वहाँ बैठकर वह नृत्य देखते रहे और समारोह समाप्त होने पर ब्रह्माजी से अपना प्रयोजन कहने लगे। ब्रह्माजी ने कहा तुम्हें यहाँ आये हुए आधी घड़ी ही लगी है, पर पृथ्वी पर तो दो युग बीत गये। इस वर्णन से स्पष्ट है कि सापेक्षवाद के सिद्धान्त की भारतीयों को चिरकाल से जानकारी थी।

कोई समय था, जब हमारे मन से लोकोपयोगी तथ्यों को ढूँढने और संसार को विविध−विधि अनुदान देने की महत्वकांक्षाएँ उफनती रहती थीं, तब हमने वे कार्य किये, जिनके लिए संसार नतमस्तक है। आज हम व्यक्तिगत स्वार्थ-साधनों तक सीमित हैं; फलतः जातीय तेज समाप्त हो गया और वह प्रतिभा नष्ट हो गई, जो हमें सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में अग्रसर करती थी। संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊँचे उठकर उदात्त चिन्तन अपनाये बिना महानता प्राप्त करने का और मार्ग नहीं। यह तथ्य जितनी जल्दी समझ लिया जाय, उतना ही उत्तम है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles